छत्तीसगढ़

Chhattisgarh


छत्तीसगढ़ के कुछ खास खेल

डा. सत्यभामा आदिल कुछ खास खेलों के बारे में बता रही है -

यहाँ कुछ खास खेल है, जैसे खेलते वक्त गीत गाया जाता है।

एक तो डोन्डी-पोहा-खेल का नाम है। इस खेल में एक दल रहता है। मैदान में एक गोल खींचा जाता है। दल में से कोई एक लड़का/लड़की घेरे के बाहर खड़ा रह जाता है। औरा बाकी सब घरे के अन्दर रह जाते हैं। घेरे के बाहर खड़ा लड़का बहुत ही गीत के लय में कहता है -

'कुकुरुस कुं'-

घेरे के अन्दर सब लड़के कहते है

'काकर कुकड़ा'

घेरे के सब लड़के कहते है -

'काय चारा'

उत्तर मिलत है - 'कन की पोहा'

अन्दर के लड़के - 'का खेल?'

बाहर का लड़का - 'डोन्डी पोहा'

अन्दर के लड़के - 'कोन चोर?'

बाहर का लड़का - 'रामू'

इस तरह से ये खेल खेला जाता है और घेरे के बाहर खड़ा लड़का किसी का भी नाम ले लेता है जैसे - रामु, शामु.......

एक प्रसिद्ध खेल है - बहुत ही लोकप्रिय खेल है - भौंड़ा - भौड़ा धुमाते है और गाया जाता है -

लावन मा लोल लोल

तिखर मा झोल झोल

जब तक भौंड़ा स्थिर होता है, तब तक ये गीत गाते जाते है।

फिर एक खेल है खुदुआ - जिसे और जगह कबड्डी कहा जाता है, उसे यहाँ खुदुआ कहा जाता है। इसमें गीत है -

खुदुआ खुदुआ

नागर के पत्ती

ढेरवा गोन्दा

तोर चवेती चवेती

अन्दन बदन चौकी चरिहारी बेल

मारो झोटका खुते तेल

तीन ढुरवा तिल्ली तेव

घर घर बचाये तेल

इस तरह खेतलते है और गाते है, और खेल-खेल में अगर कोई बालक खेलना नहीं चाहता है तो दूसरे उसके सिर के कसम रख देते है - अगर वह लड़का उस सर के कसम के महत्ता को स्वीकार नहीं करता और खेलने के लिए राज़ी नहीं होता तब एक लड़का कहता है -

नदीयाँ के तीर तीर

पातल सूर

नी मानले तो

अपनी बहनी ला पुछ

इस तरह से एक दूसरे को सुनाते है - और ये खेल खेलते है।

माधवराव सप्रेजी ने पत्रकारिता का शुरुआत यहीं से की थी। 'छत्तीसगढ़ मित्र' नाम की पत्रिका उन्होंने, दैनिक समाचार पत्र उन्होंने उस समय निकाला था जब यहाँ प्रिर्जिंन्टग प्रेस का भी अभाव था। लोक सोच नहीं सकते थे कि यहाँ से कोई हिन्दी की सेवा कर सकता है। न केवल उन्होंने हिन्दी की सेवा की बल्कि पत्रकारिता को भी एक नये स्तर पर पहुँचाया। जो आज भी एक कीर्तिमान बना हुआ है। टोकरी भर मिट्टी जो कहानी थी उनकी, यहीं रह कर लिखी है। जो हिन्दी की सर्वप्रथम कहानी के रुप में मानी जाती है।

आचार्य पदमलाल पुन्नालाल बक्शी जी जो सरस्वती के सम्पादक रहे हुये हैं और सरस्वती के साधन करहे हुये हैं, वह इसी छत्तीसगढ़ के माटी के पुत्र हैं और खैड़ागढ़ से उन्होंने शरुआत की थी, जब उन्होंने सरस्वती का सम्पादन आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से ग्रहण किया था तो सभी लोकों को शक हुआ था कि पता नहीं वह सम्पादन अच्छे से कर पायेंगे या नहीं - याने लोगों को यहाँ के लोगों पर शक था - लेकिन उस शक को उन्होंने बहुत ही अच्छे से दूर किया। इतने अच्छे से उन्होंने सरस्वती का सम्पादन किया कि उनके कार्यकाल में सरस्वती खूब नाम कमाई। और चारों ओर इसका यश फैला और लोगों ने छत्तीसगढ़ का लोहा माना। तो इस तरह से यहाँ पर लोग जुड़े रहे, साहित्य से, रचना करते रहे। बक्शी जी ने कहानियाँ, लघु कथाओं और लोक कथाओं पर बहुत काम किया था। उनके निबन्ध एक से एक प्रसिद्ध हैं। उनका काम छत्तीसगढ़ी के लिए बहुत महत्वपूर्ण साबित हुआ है।

जितने प्रख्यात रचनाकार है हिन्दी साहित्यक के, वे किसी न किसी तरह से जुड़े रहे। मुक्तिबोध, हिन्दी साहित्य में, श्रेष्ठतम कवि के रुप में जिनका नाम लिया जा सकता है, वह राजनांदगांव में रहकर ही, कालेज में प्रोफेसर थे, उस समय उन्होंने अपनी जो तमाम रचनायें हैं, छत्तीसगढ़ की माटी ने ही उन्हें यह अवसर प्रदान किया कि वह उन रचनाओं की रचना कर सकें।

इस तरह छत्तीसगढ़ ने रचनाकारिता को, पत्रकारिता को सर्वश्रेष्ठ अवसर प्रदान किया है। ये अलग बात है कि दिल्ली से राजधानी से दूर होने के कारण यहाँ की रचनाकारों को इतना प्रकाश नहीं मिल पाया। यही एक दुख की बात है, पर अब नया राज्य बनने से लोगों को पर्याप्त स्थान मिलने लगा है।

हमारे विनोद कुमार शुक्ल जी, राष्ट्रीय स्तर के कवि माने जा रहे हैं। उन्होंने कई पुरस्कार भी प्राप्त किये हैं, उनकी रचनायें बड़ी गम्भीर रचनायें हैं। समकालीन साहित्य में उनका बहुत ऊँचा नाम है। इस तरह से यहां लोग अपना काम कर रहे हैं।

व्यंग्य के क्षेत्र में छत्तीसगढ़, पूरे राष्ट्र में, सबसे उर्वरा भूमि है। यहाँ के व्यंग्यकारों ने काफी सत्रीय रचनायें लिखी हैं, और उनका काफी नाम है। वह अच्छा लिख रहे हैं और समकालीन सन्दर्भों से जुड़ा हुआ लिख रहे हैं। हरिशंकर परसाईजी और शरद जोशी की जो परम्परा थी, उसको वह लगातार आगे बढ़ाते हुये चल रहे हैं। यहाँ अश्विनी दूबे और प्रभाकर चौबे जी, विनोदशंकर शुक्ला जी, स्नेहलता पाठक, लतिफ खोंगि - ये सब लगातार लिख रहे है और बहुत अच्छा लिख रहे हैं। इनका राष्ट्रीय स्तर पर अच्छा नाम है। त्रिभुवन पाण्डेजी व्यंग्यकार हैं।

छत्तीसगढ़ की भूमि साहित्य के स्तर पर, रचना के स्तर पर, पत्रकारिता के स्तर पर कम नहीं हैं।

पत्रकारिता में जो शुरुआत माधवराव सप्रे जी ने की थी, वह आज रमेश नारायणजी है, कुमारसाहु जी है, गोविन्दलाल जी है, ललित सूरजनजी, मायाराम सूरजनजी। मायाराम सूरजनजी ने तो यहाँ देशबन्धु पत्र समूह की जो स्थापना की, उस से एक इस क्षेत्र में पत्रकारिता ने एक नई दिशा पकड़ी है। उससे पहले नबभारत जरुर था लेकिन एक नई दिशा - समकालिन सन्दर्भों से जुड़ा हुआ लेखन, जो पत्रकारिता के स्तर में होता है, वह मायाराम सुरजनजी के पत्रकारिता ने स्थापित किया, ललित सुरजनजी बहुत अच्छी तरह उस परम्परा को निभा रहे है। प्रभाकर चौबेजी उनके साथ जुड़े हुये है जो एक अच्छे व्यंगकार है। बहुत अच्छा काम कर रही है इनकी टीम। छत्तीसगढ़ अन्चल में काफी जाना पहचाना नाम है जिसके राष्ट्रीय स्तर पर पहचान है।

इसी तरह हम देखते है कि हर स्तर पर छत्तीसगढ़ किसी भी तरह पीछे नहीं है। पत्रिकाओं के क्षेत्र में बहुत सारी पत्रिकायें निकलती है रायपुर से, छत्तीसगढ़ क्षेत्र से जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अपना नाम कमाया है। अक्षरपर्व निकल रही है देशबन्धु समूह की। साहित्य के क्षेत्र में बहुत अच्छी पत्रिका है। सद्भावना दःपंन जो कि गिरिश पकंजजी निकाल रहे है जो कि साहित्य के क्षेत्र में जुड़े हुये है। 'छत्तीसगढ़ परिक्रमा' अर्चना पाठक निकाल रही है। वह भी एक अच्छा यहाँ के सांस्कृतिक साहित्यिक गतिविधियों को लेते हुये - कला, संस्कृति साहित्य के एकाग्र पत्रिका है। वह बहुत अच्छा काम कर रही है। रिचा शक्ति निकाल रही है 'शान्ति यदु' जो बहुत पुराने समय से साहित्य के क्षेत्र से जुड़ी हुई है। पत्रकारिता में भी उनकी रुची है। वह भी एक अच्छा काम कर रही है। 'नारी का सम्बल' निकाल रही है शकुन्तला तरार। 'पहचान' पत्रिका निकाल रहे है हमारे राजेन्द्र सोनी जी। वह भी अच्छा का कर रहे है।

ये सारी पत्रिकायें मिलकर एक समग्र रुप प्रदान करती है छत्तीसगढ़ी पत्रिकाओं को। एक मढ़ई पत्रिका निकलती है बिलासपुर से जो कि लोक कलाओं पर केन्द्रित है। साल में एक बार निकलती है - वार्षिक है। बहुत अच्छा अंक रहता है मढ़ई पत्रिका का। वह भी छत्तीसगढ़ी लोक-कलाओं पर बहुत अच्छा काम करती है।

परितोष चक्रवर्ती पत्रकारिता पर बहुत अच्छा काम किया है। साहित्यिक रुची वाले है। कवि भी है। साथ में पत्रकारिता में रुची है। अभी लोकायत पत्रिका के प्रधान सम्पादक बने हुये है दिल्ली में। इस तरह से छत्तीसगढ़ी पत्रिकारिता वहाँ भी स्थापित होने जा रहा है। ये सब हम हमारे लिये बड़ी खुसी की बात है कि छत्तीसगढ़ किसी भी तरीके से किसी भी स्तर में पीछे नहीं है।

छत्तीसगढ़ में जो साहित्यकार है, कवि है - उनमें अपने ललित सुरजनजी है, विनोदकुमार शुक्ल जी है, आलोक वर्मा है, शीलकान्त पाठक है, इस तरीके के और भी बहुत कविगण है - असंख्य है जिनकी गिनती नहीं है की जा सकती, लगातार समसामयिक सन्दर्भों को लेते हुये लेखन कर रहे है।

कहानीकार में एस. अहमदजी है, आनन्द हरशुल है, जया जादवनी जी है, इस तरह सभी लोग अपना काम कर रहे है। पददेसिया वर्माजी है छत्तीसगढ़ के लोक सन्दर्भो को लेते हुये लिखते है। आन्चलिक उपन्यास उन्होंने लिखे है। उपन्यास बड़े अच्छे थे। काफी प्रसिद्धि उन्होंने प्राप्त की। साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपे थे।

आन्चलिक प्रभाव जो साहित्य में आता है - हम साहित्यकारों को प्रभावित करता है, देखिये एक कविता में लिखा है -

सबसे सुन्दर - ये सौन्दर्य प्रतियोगिताओं का विरोध करती हुई कविता है कि आखिर सबसे सुन्दर कौन होता है। वह इस कविता में बताया गया है।

सबसे सुन्दर

उसकी परेड गांव से शुरु होती है

शहर तक

बड़ी सी टोकरी में भर

लेकर आती है वह कण्डे

मिट्टी के घड़े

कसबे में बेचने

कमर मचकाते

उस के वजन से

लगभग दौड़ते

तय करती है धूल

कीचड़ भरी राह

बारों मास

बावन हफ्ते।

फैशन परेड का कोई निर्णायक

नहीं देखता है

उसका कमड़ मचकाना

जो कि जिन्दगी के वजन से

इतनी तेज़ी मचकती होती है

कि शर्मा जाये मटकना भी खुद।

और वह सौन्दर्य निर्णायक

अपने इस दो प्रश्नों का उत्तर

कि जिन्दगी में उसकी ख्वाविश

क्या है, सुनकर

सर फोड़ ले

कि लौटते में कसबे से

आलु नमक खरीदकर ले जाना।

किसी बहुराष्ट्रिय कम्पनी ने

ऐसा सनस्क्रीन फाउन्डेशन

नहीं किया है

जो उसके धारोधार

चुनवाते पसीने से टक्कर ले सके

उत्तर आधुनिक के सौन्दर्य-शास्र

को कसा जाये

यदि वह उसके गहरे

फटे हुये

और जिन्दगी के सन्तुलन की कोशिश में

पन्जो से बाहर भागते

पैर के अंगष्ठो को देख ले

हमारे ठेठ देशज सौन्दर्य शास्र में

अभी भी वह सबसे सुन्दर महिला है

जो कसबे से आलु नमक लेकर लौटती है।

जो कसबे से आलु नमक लेकर लौटती है।

अर्चना पाठक - छत्तीसगढ़ी गीत (सावन के उपर) 

झिमिर झिमिर सावन

बरसन लागे न

झिमिर झिमिर सावन

बरसन लागे न

आज धरती के अचरा

हरिहर होके न

झिमिर........

तो बिड़वा ला झोंका

झकोड़ डाले ना

झुला सावन के जैसन

हिलोर मारे ना.......

झिमिर.......

कड़िया बादर रे

बिजुरी छाके ना

जइसन प्यौरि पहन के

गोड़ि नाचे ना

सौन्ध सौन्ध सुखड़

माटी महके ना

संगी पंछी परेवा

मगन चहेकेना

झिमिर......

नदीया अऊ नरखा

ला

हमार धरती म

देवतामन उतरतहेन

शीलकान्त पाठक 

छत्तीसगढ़ में छायावाद का प्रवर्तन भी यही से हुआ है - ऐसा माना जता है हमारे मुकुटधर पाण्डेजी, उनको छायावाद का प्रवर्तक माना जाता है जिनकी भूमि भी छत्तीसगढ़ थी। पण्डित लोचन प्रसाद पाण्डेजी ने छत्तीसगढ़ के इतिहास पर खुद महत्वपूर्ण काम किया है। वह भी छत्तीसगढ़ के रत्न थे। इसी तरह से छत्तीसगढ़ के बोली में भी या छत्तीसगढ़ के विषय में लिखनेवाले लेखकों के संख्या यहाँ बहुत ज्यादा है, जिन्होंने छत्तीसगढ़ के अस्मिता को गौरव प्रदान किया है। लोचन प्रसाद पाण्डेजी से इसकी शुरुआत होती है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के अस्मिता, छत्तीसगढ़ के सम्मान के लिये लगातार लेखन किया, और यहाँ के इतिहास को, पुरातत्त्व को काफी ऊँचाई प्रदान की।

इसी तरीके से उन्हीं के विरासत में उन्हीं की परम्परा को आगे बढ़ानेवाले में हरि ठाकुरजी थे जिन्होंने बहुत अच्छा लेखन किया है और छत्तीसगढ़ के गौरव को उन्होंने बहुत ही ऊँचे स्थान में पहुँचा दिया है। हरि ठाकुरजी का लेखन छत्तीसगढ़ के लिये अविस्मरनीय रहेगा और ये छत्तीसगढ़ का क्षेत्र उनके योगदान के लिये सदैव ॠणी रहेगा। इस तरह से छत्तीसगढ़ी बोली में लिखने वाले में पण्डित शामलाल चतुर्वेदी जी है उनका लेखन काफी अच्छा है। उन्होंने भी छत्तीसगढ़ अन्चल का गौरव प्रदान किया है। परदेसी राम वर्माजी है। यहाँ के कविगनों में अपने लक्ष्मण मस्तुरियाजी है, रामेश्वर वैष्णव है - रामेस्त्र शर्मा है, सुशील यदु है। इस तरीके से छत्तीसगढ़ी बोली में लगातार लेखन हो रहा है। एक मान है कि छत्तीसगढ़ी बोली को भाषा का दर्जा दिया जाये, क्योंकि इसका साहित्य काफि सम्बृद्ध हो चुका है। छत्तीसगढ़ी लेखन का शुरुआत, हम कह सकते है पण्डित सुन्दरलाल शर्मा से उनकी छत्तीसगढ़ी में 'दानलीला' है, 'रामायण' है - वही से शुरुआत हुई छत्तीसगढ़ी लेखन की। उसके बाद लगातार इतने वर्षो से वह परम्परा सम्बृद्ध होती चली जा रही है। और छत्तीसगढ़ी बोली अब वास्तव में एक भाषा का अधिकार पाने का बुन चुकी है। यहाँ के लेखक लगातार छत्तीसगढ़ी भाषा को सम्बृद्ध कर रहे है। उसका जो हक है, वह मिलना चाहिये, ऐसा मेरा मानना है।

छत्तीसगढ़ में केयुर भूषनजी जो हमारे भूतपूर्व सांसद भी रहे है, उन्होंने भी काफी अच्छा लेखन किया है, और उनका लेखन जो है, लोकभाषा से एकदम जुड़ा हुआ है। लोकभाषा का जितना अच्छा प्रयोग वे करते है, केयुर भूषन जी, वैसा बहुत कम देखने को मिलता है - क्योंकि वे स्वंय लोक में रमे हुये है। आंचलिक भाषा का प्रयोग बहुत ही सुन्दर उनके लेख में देखने को मिलता है। लगातार उन्होंने लेखन किया है। उनका लेखन भी रेखांकन करने योग्य है।

अर्चना पाठक 

मैं अर्चना पाठक, हमारी एक सांस्कृतिक संस्था - सांस्कृतिक सामाजिक संस्था है - साकार सृजन जिसके द्वारा हम लोक सांस्कृतिक गतिविधियाँ करते है, बच्चों को साथ में जोड़कर।

हम लोगों का ये मानना है कि बच्चों के अन्दर अगर हम समाज की उत्कृषृता के लिए कुछ विचार गाढ़ दे मन में, और सांस्कृतिक धरोहर को डाल दे उनके भीतर, बीज डाल दे उनके मन में, तो कभी न कभी वह पल्लवित पुष्पित होगा। बड़ा होकर जब भी एक अच्छा वातावरण मिलेगा, वह पुष्पित पल्ल्वित होगा। इस संस्कृति के साथ उसी आत्मीयता के साथ जुड़ेंगे।

नहीं तो ये पाश्चात्य संस्कृति है, वह लागातार हावी होते जा रहा है बच्चों पर, वह अपनी संस्कार धीरे-धीरे ख्तम करती जा रही है।

हम लोग संस्था के माध्यम से यही काम करते है, कि बच्चों को जबरदस्ती न करे। लेकिन उनको खेल खेल में, गाते हँसते हुये, धीरज से उनके अन्दर ये बीज रोपित कर दे अपनी सांस्कृतिक मूल्यों को, अपनी साहित्यिक के मूलभूत जो सिद्धान्त है, उनके प्रति जो कर्तव्य है, उनके द्वारा जो अच्छाईया होने वाली है, सांस्कृतिक घराने के बीज, आगे जाकर बढ़ा सके, किसी को दे सके।

यही काम हम लगातार कर रहे हैं, बारह-तेरह साल से।

सुशील यदु 

मेरा नाम सुशील यदु है। मैं छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति रायपुर का प्रान्तीय अध्यक्ष हूँ। पच्चीस वर्षों से छत्तीसगढ़ी साहित्य पर काम कर रहा हूँ।

मैं संस्थाओं के माध्यम से अनेक साहित्यकारों को सामने लाया है, और अनेक पुस्तकों का प्रकाशन किया है।

साल में एक बार प्रान्तीय स्तर पे एक सम्मेलन का आयोजन करते है जिसमें यहाँ के साहित्यकार भाग ले सके।

छत्तीसगढ़ी जो संस्कृति है, उसका वैदिक परम्परा से प्रभावित रहा है। यहाँ के जो पुराने इतिहास मिलते है, जितने लेख, वगैरा वगैरा - संस्कृत, पाली, यहाँ की जी राजभाषा रही, वह संस्कृत, प्राकृत-पाली से प्रभावित रही। इन कारणों से छत्तीसढ़ प्रभावित रहा है वैदिक संस्कृति से, कुछ द्राविड़ संस्कृति का भी यहाँ प्रभाव रहा, जैसे खास बस्तर में। इन सब का मिला-जुला कलचरल रुप है छत्तीसगढ़ी संस्कृति। अगर हम देखे यहां की रीत-रिवाज, तीज, त्यौहार, बेश भूषा, ये हम पाते है, ये जो सम्पूर्ण तीज त्यौहार है, और यहाँ की धार्मिक मान्यतायें है, धार्मिक परम्परायें है, वह सब प्रकृति पर ही अवलम्बित है, जैसे साल में हमारे तीन ॠतुएँ होती है - ग्रीष्म ॠतु, वर्षा ॠतु और शीत ॠतु। तो इसमें तीज त्यौहारों पर कृषि का बहुत प्रभाव है। ये कहा जाये कि सम्पूर्ण जो तीज त्यौहार है, उन कृषि पर अवलम्बित है क्योंकि छत्तीसगढ़ - पहले कृषि प्रधान क्षेत्र था, जैसे हम जँवार बोते है, जँवारा साल में दो बार बोये जाते है - शक्ति आराधना करते है लेकिन उसेक साथ-साथ हम जो जँवारा बोते है, वह कृषि का एक स्वरुप है। अन्न देवी, इस मान्यताओं पर आधारित है। उसी प्रकार दशहरा, वह तो देश में सभी इलाकों में मनाया जाता है लेकिन यहाँ, खास कर के ग्रामीण क्षेत्रों में, हर गाँव में दशहरा ग्राउन्ड मिलेगा - दिवाली तो सम्पूर्ण राष्ट्र में मनाया जाता है परन्तु दिवाली में, परम्परा के अनुसार, जो लक्ष्मी देवी की पूजा की जाती है, इसके अलावा भी गाय को लोक संस्कृति और आस्ता का प्रतीक है। उसी तरीके से मातर जागते है। मातर जागना, ग्रामीण क्षेत्रों में मातर जागते है। वह वैदिक परम्पराओं से प्रभावित है।

तीजा पुरा का पर्व सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में मनाया जाता है। सम्पूर्ण राष्ट्र में और कहीं तीजा पर्व नहीं है। यहाँ कि जो परम्परा है, उस दिन जो बहने है, जो ससुराल चली गई है। भाई उसको लाता है। वह अपने पति के लिये उपवास रखती है। हरतालिका, ये परम्परा है छत्तीसगढ़ में। हलषष्ठी है - मिट्टी के मूर्ति बनाकर उसको पूजा करेंगे। ये भी सब वैदिक अनुष्ठान है। वैदिक प्रभाव है जो लोक मान्यताओं का रुप ले चुकी है। कृषि पर आधारित है। जैसे-जैसे किसान फसल काटेगा, वैसे-वैसे उत्सव मनायेगा। उसके अनुसार कल्चर का निर्माण होगा।

संस्कृति में लोकगीत और लोकनृत्य है। हमारे छत्तीसगढ़ में सुआ गीत है जो दीवाली के समय गाया जाता है। सुआ गीत में ऐसा है कि भगवान शंकर को सुआ का प्रतीक मानते है। उसी के अनुसार जो नृत्य करते है सुआ गीत गाके। वस्तुत वह भी धार्मिक स्वरुप है।

ददरिया तो किसान गाते है। ग्रामीम अन्चलों में तो ददरिया बहुत लोकप्रिय विधा है। करमा है। ये भी ददरिया के समान ही है। शहरों में विलुप्त हो रहे है। ग्राम में आज भी जिन्दा है। खासकर सूदूर ग्रामीण अन्चलों में।

वैसे भोजली है। राखी के दूसरे दिन भोजली है। धान बोवाई के समय - बोके अब तैयार हुआ है - भोजली गीत गाते हुये उसको तालाब में विसर्जन करने जाती है।

छत्तीसगढ़ी पहले लोग डाइलेक्ट के रुप में मानते थे। इसका लोक साहित्य बहुत ही सम्बृद्ध साहित्य है। कहावते, मुहावरे, लोक गाथायें, लोक गीत, कहानी, कथा के रुप में लोक साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। छत्तीसगढ़ी की लोक साहित्य अलिखित परम्परा में पिढ़ी दर पिढ़ी चलती रही। कुछ तो विलुप्त हो गई समय के साथ-साथ, कुछ अभी भी जिन्दा है। लोक साहित्य के मामले में भी छत्तीसगढ़ सम्बृद्ध है लेकिन छत्तीसगढ़ी लिखित साहित्य-जो रचनाकर रचना कर रहे है, इनका जो स्वरुप देखेंगे आज से सौ साल पहले और वर्तमान में - लिखित स्वरुप विकसित हो रही है - अभी चार पांच सालों में काफि कुछ लिखा गया है। बहुत से साहित्यकारों ने कहानी, उपन्यास, कथा, गीत, ये सब प्रकाशित किये है। काफि लोकप्रिय होते जा रहे है छत्तीसगढ़ी साहित्य। अभी हिन्दी से ज्यादा छत्तीसगढ़ी में प्रकाशित हो रही है। छत्तीसगढ़ में। ये सुखद कहा जा सकता है। एक गड़बड़ी ये है कि पाठक उसके तैयार नहीं हुये है। साहित्यकार तो अपने पुस्तक प्रकाशित करते है, वितरित करते है लेकिन हिन्दी के जो प्रकाशक है, वह systimatic ढंग से उसको वितरन करेंगे, छपाये जायेंगे, वह यहाँ अभी यहाँ शुरु नहीं हुये है। जैसे दिल्ली में है, बम्बई में है। लेकिन साहित्य उपलब्ध है, सन्तोषजनक है।

छत्तीसगढ़ी साहित्य के जनक जो है हम उनको धनी धरमदास को मान सकते है। धनी धरमदास कबीरदास के शिष्य है। उन्होंने कबीरदास के पदों का संकलन तो किया ही, लेकिन छत्तीसगढ़ में आये बल्लभगढ़ से, रिवा स्टेट से आये थे - अपनी गद्दी स्थापित किये यहाँ - तो उन्होंने जो रचनायें की, अधिकांश पद छत्तीसगढ़ी में है। प्राचीन छत्तीसगढ़ी के गीत मिलता है । 

धनी धरमदास के बाद, जब ब्रिटिश शासन काल में आते है, तब सुन्दरलाल शर्मा हिन्दी साहित्य में उन्होंने तो लिक्खि, छत्तीसगढ़ी में 'दानलीला' जो बहुत लोकप्रिय है। उसके बाद बहुत सारे लेखक है, 1958 में, शुकलाल पाण्डे की शेक्पियर का नाटक जो है, छत्तीसगढ़ी अनुवाद कामेडी अफ एररस के रुप में प्रकाशित हुआ। 1937 में गोविन्दराव बिट्ठल की 'नामलीला' लोचनप्रसाद पाण्डे का भुतरा मण्डल और मुकुटधर पाण्डे का मेघदूत छत्तीसगढ़ी में प्रकाशित हुआ, 1936 में जो कवि गिरिवर दास वैष्णव है, छत्तीसगढ़ी सूराज प्रकाशित हुआ था, यहाँ का कांग्रेस अधिवेशन में उसको वितरित किये थे।

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Content Prepared by Ms. Indira Mukherjee 

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