देवनारायण फड़ परम्परा  Devnarayan Phad Tradition

देवनारायण लोक गाथा / काव्य


बगड़ावत देवनारायण गाथा राजस्थान की एक महान लोकगाथा है। जिसका सदियों से राजस्थान के लोक-जीवन में मौखिक प्रचलन रहा है।

लोकगाथा एक विशिष्ठ प्रकार का लोक काव्य होता है। सामान्यत: जिसकी उत्पत्ति किसी प्रेरणादायक अथवा प्रसिद्ध वस्तुगत घटना या जीवन में घटित कार्य-कलाप से होती है। किसी घटना और उसके प्रमुख पात्रो के जीवन, उनकी समस्याएं, उनके प्रेम, क्रोध, संकट, संघर्ष, बलिदान, पराक्रम और मार्मिक भावनाओं के वर्णन से बढ़ते-बढ़ते वह रोचक कथा एक भाव प्रधान गाथा बन जाती है।

ऐसी लोकगाथा का रचियता कोई एक व्यक्ति नहीं होता। वर्णनकारों और श्रोताओं दोनों के हाथों में ढलते-ढलते उस गाथा में अनेक अंश जुड़ते जाते हैं और वह निखरती जाती हैं। इस रुप में लोकगाथा का रचियता लोकमाननीय लोक ही होता है।

लोकगाथा चूंकि सरल और सहज भावों में प्रगटित (प्रकट होना) अपने जमाने की मानवीय घटनाओं और जन भावनाओं को अंकित करने वाला एक सरस साहित्य है इसलिये वह लोकप्रिय होता है। विशेषकर देहाती क्षेत्र में लोगों के सांस्कृतिक जीवन में इसकी गहरी छाप होती है। इसलिये इसमें लोक जीवन की सरल किन्तु गहरी अभिव्यक्ति होती है। यही इसके लोकप्रिय होने का मुख्य कारण है।

ऐसी लोकगाथाओं में वर्णित पात्रों की भावनाएँ एक हद तक उस समाज की प्रचलित मान्यताओं का प्रतीक होती है। पात्रों के द्वन्द और संघर्ष उस जमाने के प्रचलित अन्तर्द्वेन्दों को उभारकर प्रस्तुत करते हैं। प्रेम, वात्सल्य, वीरता एवं बलिदान मनुष्य जाति की सर्वमान्य भावनाएँ हैं, लेकिन जिस विशेष रुप से लोकगाथा के पात्रों के माध्यम से इन्हें प्रदर्शित किया जाता है उनमें ये केवल मात्र वैचारिक मान्यताएं न रहकर वास्तविक जीवन की अनुभुतियाँ बन जाती है। यही कारण है कि लोकगाथा का पात्र अपने जैसा ही इन्सान लगता है जिसमें अच्छाईयां, बुराईयां, कमियां, कमजोरियां सब एक साथ समाई मिलती है।

आम लोगों के सांस्कृतिक जीवन में लगातार प्रचलित होने के कारण और वर्णन-कर्ताओं द्वारा उसे और ज्यादा मार्मिक और आकर्षित करने के प्रयत्नो के कारण लोकगाथाओं में कई बार अतिश्योक्ति का समावेश हो जाता है। उस समय की प्रचलित धार्मिक भावनाओं और अन्धविश्वासों के प्रभाव से लोकगाथाओं के पात्रो में कई बार देवी शक्तियाँ प्रदर्शित की जाती हैं। कई बार इन गाथाओं में विसंगत और परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों का चित्रण भी मिलता है। इनका मौखिक प्रचलन ही इसका एकमात्र कारण है। इन गाथाओं का मूल्यांकन करने वालों को चाहिये कि वे इन कमजोरियों और अतिश्योक्तियों को परखे और उनमें चित्रित मूल जन-भावनाओं, अन्तर्विरोधों, प्रचलित सामाजिक सम्बंधो तथा बन्धनों को ही अपने मूल्याकंन का आधार बनाऐं। इस न से लोक साहित्य और लोकगाथा एक उत्कृष्ट अनुभूति की गहराई तक पहुँचने में सहायक होती है।

बगड़ावत देवनारायण की यह लोकगाथा उस समय के सामाजिक अन्तर्द्वेन्दों और उनमें उपस्थित समस्याओं तथा संघर्ष का एक अत्यन्त रोमांचक, भावपूर्ण और हृदयस्पर्शी दृश्य प्रस्तुत करती है।

 

 
 

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