हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 37


IV/ A-2036

तपसा विजिज्ञास

भारती संसद् 

(An association of Oriental Learning)

विश्वभारती

शान्तिनिकेतनम्
बंगदेशः
८.७.४०

श्रद्धास्पदेषु,
सादर प्रणाम!

कृपा-पत्र मिला। दो महीने तक छुट्ठियाँ रहीं। घर चला गया और वहाँ 'गृहकारज माया जंजाला' में फँस गया। काम कुछ भी नहीं हुआ। पुराण पंडित बड़े दु:ख और कुछ अनुभव के साथ लिख गया था-

'यदि वाञ्छसि मूर्खत्वं ग्रामे वस दिन त्रयम्'

अर्थात्-यदि मूर्खता चाहते हो तो गाँव में तीन दिन जाकर वास करो। ग्राम सुधारकों से क्षमा माँग लेता हूँ। आपसे क्षमा माँगने की कोई ज़रुरत नहीं, क्योंकि आपका दुश्मन भी कुण्डेश्वर की कोठी को गाँव नहीं मानेगा। सो, छुट्टियों के पहले जो नाना भाँति का साहित्य साधना का कार्यक्रम बनाया था, वह जहाँ-का-तहाँ रह गया। इस बार फिर से उत्साह बटोर कर लग गया हूँ। इच्छा है कि बौद्ध महायान सूत्रों का हिन्दी अनुवाद कर डालूँ। पूज्य शास्री मशाय ने प्लैन बना दिया है। वे ही मार्गदर्शक भी होंगे। विद्यालय का कार्य भी शुरु हो गया है। जो कुछ थोड़ा-थोड़ा समय मिलेगा, उसमें वही कर्रूँगा। फिर प्रकाशन आदि की बात बाद में सोच ली जायेगी।

यह जान कर बड़ा आनन्द हुआ कि श्री बुद्धि प्रकाश जी यूनिवर्सिटी में प्रथम आये हैं। भगवान् उन्हें भावी जीवन में और भी सफलता दे। पुत्र पिता के धर्म से बढ़ता है-बाढ़ै पुत्र पिता के धर्मा-ऐसा शास्रकार कह गये हैं। बिलकुल ठीक है।

चन्दोला जी आ गये हैं-अकेले। मुस्कराना कारगर हो जाता मगर बीच ही में योरोपियन लड़ाई ने मज़ा किरकिरा कर दिया। शायद उन्हें भय था कि क्रांस्क्रिपशन में गढ़वाली जवान पहले पकड़े जायेंगे। पर आखिर कब तक। एक पते की बात आपको बताता हूँ। जिस मुहल्ले में हिन्दी भवन आबाद है, उसका पुराना नाम नीचू बंगला है पर Non offical नाम 'बहू-पल्ली' हो गया है। इसमें नव बंधुओं का प्राधान्य है। कुछ क्वाँरे भी
हैं, पर वे शीघ्रता से 'बहूपल्ली' के प्रभाव में आते जा रहे हैं। चन्दोला जी कब तक जल में रह कर मगर से बैर करेंगे? लेकिन चिंता उन लोगों के लिये है! जो अनजान में आकर कभी-कभी इस मुहल्ले के अतिथि हो जाते हैं!! कहीं उन पर न यहाँ की हवा लगे! पं. विष्णुदत्त जी शुक्ला को आज पत्र लिख रहा हूँ। फर्श के लिये तगादा करने के लिए। पं. बसन्तलाल जी चतुर्वेदी को रथी बाबू की ओर से धन्यवाद का पत्र लिखाया था और आफिस की ओर से रसीद और चिट्ठी भी। एक गड़बड़ी अनजान में हुई जिसका कुछ मतलब समझ में नहीं आया। अल्मारी के वे रुपये किसी की स्मृति में दिये गये थे। ऐसा आपने भी कहा था और शर्मा जी ने भी। रसीद में उनके नाम के आगे 'च्रण्e थ्ठ्ठेद्यe' लिखा गया था और चतुर्वेदी जी (पं. बसन्तलाल जी) ने उस रसीद को लौटा दिया था कि इसमें से 'The late' शब्द काट दिया जाय। उनकी इच्छानुसार वह काट दिया गया। पर मन में सब लोग ज़रा उद्विग्न हुए कि क्या जीवित व्यक्ति के लिए हमने गलती से The late लिख दिया था? अगस्त में चूँकि वे रुपये स्मृति में दिये गये थे, इसलिए स्वभावतः ही हम लोगों ने समझा था कि 'स्वर्गीय' व्यक्ति की ही स्मृति में दिये गये हैं। अब भी हम ठीक-ठीक नहीं समझ सके हैं कि वह शब्द लगाना हमारी गलती थी या उन्हें वह शब्द अप्रीतिकर है। भगवान् करे वह हमारी गलती ही हो। इतनी-सी गलती हुई है। वैसे पत्र वगैर बहुतः अच्छी तरह से लिखे गये हैं और वे भी प्रसन्न ही हुए हैं, ऐसा उनके पत्र से समझा जा सकता है। अल्मारी भी बन गई है। इधर सुना है कि कानोडिया जी आदि ने ४०००/- फर्नीचर लाईब्रेरी के लिये देने को कहा है और यह भी लिखा है कि इससे अधिक वे लोग सहायता नहीं कर सकेंगे।
'गुरुवर श्री एण्ड???' तो अब रहे नहीं। पिछले साल इन दिनों जब वे आये थे तो हिन्दी भवन के विषय में इतने चिन्तित थे कि जब मुलाकात होती थी, चाहे राह में, या घर पर या सभा में, सर्वत्र हिन्दी भवन की ही बात करने लगते थे। यहीं रहने का विचार भी कर रहे थे और आज उनकी स्मृति ही रह गई है। हिन्दी भवन शिलान्यास के अवसर पर मैंने दो दोहे बनाये थे जो ताम्र-पत्र पर खोदकर नींव में रखे गये थे। उन दोहों में एक में था कि-

'गुरुवर श्री एण्ड??? ने किया शिलाविन्यास'

पहले मैंने लिखा था 'दीनबंधु एण्ड???' ने पर गुरुदेव और श्री क्षिति बाबू ने कहा कि इस आश्रम में उन्हें 'गुरु' शब्द से संबोधन करना चाहिये। तब मैंने ऊपर का संशोधन किया था। जब मैं उन्हें सुनने गया और बताया कि गुरुदेव ने 'दीनबंधु' की अपेक्षा 'गुरुवर' को अधिक पसंद किया है तो बड़े खुश हुए और बोले I am very glad, this is better than 'दीनबंधु' और फिर जोर से हँस पड़े। वह हँसी बिल्कुल नाभि के पास से निकली थी। इतने सरल, इतने महान् और इतने प्रेमी थे वे! अब केवल उनकी स्मृति है और है उनका अमोघ आशीर्वाद!

आपका 'हम क्या करें?' हमने मित्रों में बाँट दिया है। आपस में हमने कुछ विचार भी किया है और जैसा कि चंदोला जी कहते हैं आपने इतने detail में बातें लिखी हैं कि उन पर जो कुछ विचार किया जा सकता है, वह उसमें आ गया है। इसीलिये मैं उसका परिशिष्ट लिख रहा हूँ। अर्थात् 'हम क्या न करें!' इसकी ज़रुरत है। मैं जिन दो-चार सभाओं में गया हूँ, वहाँ देखा है कि हिन्दी के तरुण साहित्यिक इतनी abstract बहस करते हैं कि सुनने वाले का दिमाग चकरा जाता है। फिर और भी छोटी-मोटी बातें हैं, जिन पर विचार करना है। कल तक ये विचार लिपिबद्ध कर लूँगा ऐसी आशा है। एण्ड??? अंक के लिए क्षिति बाबू लिख देंगे। मैं लिख रहा हूँ। मल्लिक जी भी लिख देंगे। और किससे कहूँ? आप कब तक आ रहे हैं? लिखिये श्री प्रकाशनारायण जी को मेरा प्रणाम कहें।

आपका

हजारी प्रसाद द्विवेदी

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली