हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 86


IV/ A-2088

शान्तिनिकेतन

दिनांक : 17.1.50

पूज्य पंडित जी,

              सादर प्रणाम!

       नववर्ष (अवश्य ही, अंग्रेजी नववर्ष) के आरंभ में ही आपका संदेश वाक्य मिला। मैं उसका भाष्य लिखूँगा। वह मेरे मन के अनुकूल है। पर मैं क्या जानबूझ कर जुटा रहता हूँ। गुरुदेव का वह गान तो आपको याद होगा - भारेर बेगे से चलेछि बंधु ए बोझा आमार नामाओ - हे मित्र मैं बोझ के वेग से ही चल रहा हूँ। मेरा यह बोझा उतार दो। सो, यह बोझ (भार) बन बैठा है। इसमें कोई रस नहीं है, कोई तत्व नहीं है। जो बोझ सहज हो वह ठीक है, जो सहज नहीं वही भार है।

       इधर बहुत दिनों से अनुभव कर रहा हूँ कि मौज में कोई लेख नहीं लिख रहा हूँ। केवल तगादों को पूरा करता चला जा रहा हूँ। कुछ भी ऐसा नहीं लिख रहा हूँ जिससे स्वयं अपनी आत्मा प्रसन्न हो और यह तो हो ही नहीं सकता कि आत्मा प्रसन्न न हो। और कोई काम लायक चीज़ हो जाय। लेकिन इस चक्र से निकलने का भी कोई उपाय नहीं है।

       आशा है, आप स्वस्थ व प्रसन्न हैं। मैं अब स्वस्थ हूँ।

आपका

हजारी प्रसाद द्विवेदी

पुनश्चः सायंकाल तो भ्रमण करने लगा हूँ पर सुबह सर्दी से बचने के अभिप्राय से अभी नहीं निकल पाता।

       आचार्य क्षितिमोहन सेन जी का लेख कल तक जा सकेगा। देर हो गई वह मेरी अस्वस्थता के कारण। बहुत से काम पड़े हुए हैं। सबसे अधिक आवश्यक था विद्यार्थियों का काम। वह अब ठिकाने लग आया है।

पिछला पत्र   ::  अनुक्रम   ::  अगला पत्र


© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।

प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली