हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 88


IV/ A-2138

श्रद्धास्पदेषु,

       प्रणाम!

       कृपापत्र मिला। निराला जी के लेख की "कटिंग" भेज रहा हूँ। पूरा भेजने की क्या आवश्यकता है? आशा है इतने से ही काम चल जायगा।

       करीब एक पक्ष से मेरे मन में एक विचार उठा है। लालताशंकर जी ने कहा था कि आप आने वाले हैं, इसीलिये सोचा था आपसे एक बार पूछकर लिखेंगे मगर आपके आने में देर है। आज आपको उस का सारमर्म विचारार्थ भेज रहे हैं। आप चाहें और पसन्द हो तो इसी अंक में इस बात की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करें। नहीं तो मैं ही विस्तार रुप में लिखूँ। यह पहले ही कह देता हूँ कि दुलारे दोहावली से इसका सीधा संबंध नहीं है यद्यपि वह भी इस विचार का लक्ष्य बन जाती है।

       बात है सम्मति और समालोचना का प्रभेद। अगर कोई आदमी किसी भले आदमी को कोई चीज़ भेंट दे-वह पुस्तक हो या कपड़ा या कोई चीज़-तो शिष्टाचार के नाते उस भले आदमी का कर्त्तव्य होता है कि उस चीज़ की तारीफ़ करे। अगर कोई आदमी किसी चौबे जी को भोजन कराये तो चौबे जी का यही कर्त्तव्य होना चाहिये कि उस भोज्य-सामग्री की प्रशंसा करें और भोजन कराने वाले को दूध पूत के आशीर्वाद से लाद दें। हम इसको ""सम्मति"" कहेंगे। यह बिलकुल व्यक्तिगत चीज़ है, इसको छापकर जनता के सामने रखना शिष्टाचार का अपमान करना है। बुद्धदेव ने अन्तिम जीवन में भिक्षा में मिले हुए सूअर के मांस को भी आदरसे ग्रहण किया था। मगर अगर भीख देनेवाला इस घटना से सूअर मांस की बिक्री बढ़ाता तो वह निश्चय ही निन्दा का पात्र होता। दूसरों को प्रसन्न करने के लिये, मनोरंजन के लिए असत्य भाषण दोष नहीं है क्योंकि उससे समाज का अकल्याण नहीं होता। महाभारत में शर्मि कहा है-

न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति

न स्रीषु राजन्न विवाहकाले।

प्राणात्यये सर्वधनापहारे

पञ्चानृतान्याहुरपातकानि।।

अर्थात - किसी को प्रसन्न करने के लिये कही हुई बात, स्रियों के साथ वार्तालाप, विवाह काल में कहे हुए मनोरंजन के वचन, प्राण-संकट के समय की बात, और जब कि सारा धन लुटा जा रहा हो उस समय कही हुई बातें-इन पाँचो में बोले हुए झुठ में पाप नहीं होता।

       महाभारत के श्लोक का तात्पर्य यह है कि ऐसे समय पर जो झूठ बोले जाते हैं, उनका संबंध व्यक्ति विशेष से होता है, उनसे या तो लाभ होता है, या कम से कम समाज का कोई नुकसान नहीं होता, इसीलिये इनमें पाप भी नहीं होता। सम्मति देते समय शिष्टाचारवश आदमी अपने मन की बात छिपा लेता है। उतना ही करता है जितना सुनने वाले को अच्छी लगे। कभी कभी तो संसार के बड़े मस्तिष्कों को भी सम्मति देते समय धर्म संकट में पड़ते मैंने स्वयं देखा है।

       किन्तु समालोचना अलग चीज़ है। वह पब्लिक को वस्तु के गुण दोष से परिचित कराने के लिये लिखी जाती है। उसका संबंध जनासाधारण से है। वह अगर अनुचित हुई, झुठ हुई तो उससे समाज का अकल्याण हो सकता है। जो लोग सम्मति को जन-साधारण के सामने विज्ञापन के उपस्थित करते हैं वे सामाजिक अपराध करते हैं, शिष्टाचार को खतरे में डालते हैं।

       यही हमारा वक्तव्य है। शान्तिनिकेतन के हमारे मित्रों ने इस विचार पर आपत्ति की है। लालताशंकर जी का कहना है कि सम्मति लिखने वाला अगर जानता हो कि उसकी सम्मति छापी जायगी तो उसका कर्तव्य हो जाताहै कि वह शिष्टाचार की परवा न करके जो कुछ कहना हो साफ़ कहे। हम कहते हैं कि दोष तो उसका है जो सम्मति को-जो एकदम व्यक्तिगत चीज़ है-जनसाधारण के सामने रखता है। शिष्टाचार को न त्यागने वाला आदमी दोषी नहीं है, शिष्टाचार का दुरुपयोग वाला आदमी दोषी है।  

       आप जैसा समझें। अगर आप हमारे विचार से सहमत हों तो संपादकीय में इसकी चर्चा कीजिये। आपकी कलम से यह बात अधिक ज़ोरदार और कर्जिंन्वसिंग होगी।

       श्री दामोदरजी, वर्माजी, जैन जी और अयोध्या प्रसाद जी को मेरा प्रणाम कहिये।

       मौलाना साहब ने लेख भेज दिया था, मिला होगा। सेकसरिया जी ने ५०० रु. भेज दिये। उन्होंने उसे जहाँ कहीं भी खर्च कर देने के लिये लिखा है। शायद अब तक खर्च हो भी गया हो! वह मामला क्या ठंडा पड़ गया?

       शेष कुशल है।

आपका

हजारी प्रसाद दिवेदी

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली