हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 119


IV/ A-2101

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
27.8.1955

श्रध्देय पंडित जी,

आपका ज्ञापन मिला। इसमें आपने एक ही साथ अनेक शुभ समाचार दिये हैं। रामानंद स्मृति ग्रंथ, गणेश शंकर स्मृति ग्रंथ और हरिहरनाथ शास्री स्मृति ग्रंथ के लिए उद्योग हो रहा है और प्राप्ति भी हो रही है। यह बहुत ही उत्साहवर्धक समाचार है और और भी (हम लोगों के लिए) उल्लासजनक खबर यह है कि स्व. पद्म सिंहजी के पत्रों का संग्रह प्रेस में चला गया है। इस पत्र में आपने इतने समाचार दिये हैं कि बधाई न देना अनुचित होगा। नहीं तो आपको बधाई देना आवश्यक नहीं है क्योंकि ये तो आपके स्वभाव के अंग बन गये हैं- "लत"कहिए। आप इन कार्यों के बिना रह नहीं सकते। भगवान आपको दीर्घ और स्वस्थ आयु प्रदान करेंगे क्योंकि ये कार्य तो उन्हें भी इष्ट हैं।

"दोहा"आपने अच्छा बनाया है, (यह और बात है कि छंदशास्र के अनुसार यह दोहा नहीं है!) परंतु मैं आपको गुरुदेव की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ (अनुवाद मेरा ही है) भेंट करना चाहूँगा। आपको देखकर मुझे यह कविता याद आती है। विराट नदी को संबोधन करके कविता लिखी गई है-इसलिए स्रीलिंग की क्रियाएँ हैं तदर्थ क्षमा करेंगे। कविता की कुछ पंक्तियाँ भेज रहा हूँ-

""हे भैरवी, हे वैरागिणी, तुम जो चली उद्देश्यहीन,
यह गति ही तुम्हारी रागिणी नि:शब्द मोहन गान के
केवल दौड़ती हो, दौड़ती हो उद्दाम उद्धत वाम गति से।
ताकती भी नहीं फिर कर; लुटाती जा रही सर्व अपना,
खींच खींच कर उलीच कर शुन्य करती हो निज भाण्डार।
कुछ भी नहीं संचती सजोती हो या कि रख लेती बटोर बटोर।
मन में कहीं शोक न मोह, तुम निर्मम तुम निद्वेर्ंद्व,
-इस आनंद के पथ में लुटाती जा रही पाथेय।
जिस क्षण पूर्ण हो जाता उसी क्षण कुछ नहीं रहता तुम्हारा।
सभी बन जाता निखिल का।
यह स्वयं को लुटा देने का नशा सुविचित्र।
इसी से तुम सदैव पवित्र।""
लम्बी कविता की ये कुछ पंक्तियाँ भेज रहा हूँ इस विशद नदी को यदि मनुष्य अपना आदर्श बना सकता आपने बना लिया है। आशा करता हूँ प्रसन्न हैं। चि. गुफली को शुभाशीर्वाद।

हजारी प्रसाद द्विवेदी

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली