झारखण्ड

संताल समुदाय में मृत्यु संस्कार

पूनम मिश्र


 

संतालों में मृत्यु सम्बन्धी गतिविधियों का संक्षिप्त वर्णन
गोक सहान
जादव पटियाँ
आन्ना
भांडान (अन्तिम क्रिया-क्रम)
रुम बोंगा
कराम पूजा
गुरु कराम पूजा
माझी कराम
जिबात कराम पूजा
चेला कराम पूजा (खेडा कराम पूजा)
माक मोडे कराम पूजा
मोरा कराम पूजा

 

मृत्यु जीवन का अन्त नहीं बल्कि संपूर्णता है। मृत्यु एक शाश्वत यथार्थ है, इसे स्वीकारने में ही भलाई है। सच तो यह है कि जो भी जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। सांस का लेना जीवन है और सांस का छोड़ना मृत्यु। इस तरह से एक मिनट में हम अनेक बार जीते हैं, अनेक बार मरते हैं। एक दिन एक क्षण ऐसा आता है जब व्यक्ति एक बार जो सांस छोड़ देता है तो फिर उसे वापस नहीं लेता। बस यही जीवन की नियति है। यही मानव जीवन का पड़ाव है। संताल जनजाति के लोग भी मृत्यु की सच्चाई को प्रकृति का चक्र मानकर इसे बड़े ही सहजता से स्वीकार कर लेते हैं। मानवशास्रीय विवरण एवं अन्य ग्रन्थों एवं लेखों के अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि संताल अपने लोगों के मृत शरीर को जलाते थे। हां वैसे दूध पीते बच्चे जिनका चांचो छठियार संस्कार नहीं हुआ हो एवं वैसी महिलाएं जिसके पेट में बच्चा पल रहा हो, का दफनाने का प्रचलन इनमें व्याप्त था। आज भी कुछ लोग अपने प्रियजनों के मृत शरीर का दाह संस्कार लगभग हिन्दुओं के समान ही करते हैं, परन्तु अब अधिकांश लोग मृत शरीर को दफनाते भी है। दफनाने के पीछे शायद कारण यह रहा है कि (क) जंगलों की अंधाधुन्ध कटाई से एवं जनसंख्या विस्फोट से जलावन लकड़ी का सरलता तथा सस्ते दामों पर उपलब्ध नहीं होना, (ख) ईसाई मिशनरियों के लोग झारखण्ड के जनजाति बहुल क्षेत्र में तेजी से प्रवेश कर रहे हैं। संताल जनजाति के लोग भी बड़ी संख्या में धर्मान्तरण कर रहे हैं। चूंकि ईसाइयों में मृत शरीर को दफनाने की परम्परा प्राचीन है अत: परिवर्तित संताल भी मृत शरीर को दफनाते हैं। उन्हें देखकर गैर ईसाई संताल भी अपने लोगों के मृत शरीर को दफनाने लगे हैं। (ग) कुछ संतालों में ऐसी भी मान्यता है कि मृत शरीर का दाह संस्कार करने पर उसकी भौतिक संरचना जलकर नष्ट हो जाती है, अत: मृत शरीर का दर्शन स्वप्न में अशरीरी रुप में ही होगा। इसलिए ये लोग मृत शरीर को सुरक्षित रखने के लिए दफनाते हैं और ऐसी मान्यता है कि ""हम लोग मृत शरीर को भली भांति सुरक्षित रख दिये हैं, अत: स्वप्न में मृत व्यक्ति अपने भौतिक संरचना सहित ही दर्शन देगा।''

संताल समुदाय में प्राय: ""सार्वजनिक कब्रिस्तान'' नहीं होता है, अपवाद स्वरुप एक-दो गांवों में ही पाया जाता है। प्रत्येक संताल समुदाय का ""व्यक्तिगत कब्रिस्तान'' होता है तथा जिन व्यक्तियों का नहीं होता है वे नदी नालों के किनारे मृत शरीर को जलाते या दफनाते हैं।

संताल समुदाय में अगर किसी रिश्तेदार की मृत्यु मेजबार के घर पर हो जाती है, तो मृत शरीर को मेजबान भी अपने गांव में ही जला या दफना सकता है लेकिन मृत व्यक्ति के घरवाले सदस्यों की अनुमति लेना अनिवार्य होता  है। यहां गौर करने लायक यह बात है कि अगर मेजबान मृत व्यक्ति को अपने जमीन पर जलाता या दफनाता है तो वह उस जमीन के नाम पर कुछ रकम मृत व्यक्ति के परिवार वालों से ले लेता है, जिसे खर्चा या जमीन का दाम कहते हैं। संताल समुदाय का अभी भी विश्वास है कि मृत्यु का कारण भूत-प्रेत, डायन या दुष्ट आत्माएं ही हैं। संतालों में यह भी नियम है कि मृत शरीर को व्यक्तिगत जमीन या नदी नाले पर ही जलाना या दफनाना जाहिए। मृत शरीर को सिर्फ सार्वजनिक गलियों से ही ले जाया जाता है। यहां तक कि खेतों में फसल लहलहाती रहने पर मृत शरीर को उन खेता खलिहानों से भी नहीं ले जाया जाता है। अधिकतर संताल सार्वजनिक तालाबों या नदी नाले में ही स्नान करतेहैं क्योंकि व्यक्तिगत पोखरों, कुओं पर हाथ-पैर धोना या स्नान करना नियम के खिलाफ है।

एक बात देखने में यह आती है कि संताल समुदाय अगर मृत शरीर को दफनाता भी है तो उसके मुख में अग्नि जरुर देता है। इसी समय मृत शरीर से सिर के थोड़े से केश तथा अंगुलियों के नाखून काटकर रख लिये जाते हैं तथा दफनाने की क्रिया समाप्त होने पर केश तथा नाखुन को नदी नाले में प्रवाहित कर दिया जाता है। संतालों में शरीर को जलाया या दफनाया जाय लेकिन इसके बाद समस्त मृत्यु संस्कार सम्बन्धी क्रियाओं को करना अनिवार्य है। अगर बालक या बालिका का ""चाचो छठियार'' सम्पन्न हो गया है और दुर्भाग्यवश उसकी अकाल मृत्यु हो जाती है तो उसे पैतृक जमीन पर दफनाया अनिवार्य है। जबकि छठियार सम्पन्न नहीं हुए बालक को पैतृक जमीन पर नहीं दफनाया जाता है।

संताल समुदाय महामारी संक्रामक रोगों से पीड़ित मृत व्यक्तियों के मुख में अग्नि नहीं देतै है। उनका ऐसा मानना है कि अग्नि देने से महामारी या संक्रामक रोग सम्पूर्ण गांव में अग्नि की प्रचण्ड पलटों के समान ही फैल जायेगी तथा गांव की सारी आबादी भी इन रोगों के चपेट में आ जायेगी। अत: ऐसे मृत शरीर को अधिकतक दफनाते ही हैं और जलाते हैं तो मुख में अग्नि कभी नहीं देते हैं।

संताल समुदाय मृत्यु संस्कार पर पोचोय (मदिरा) दिल खोलकर सेवन करता है।

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संतालों में मृत्यु सम्बन्धी गतिविधियों का संक्षिप्त वर्णन

 

मृत्यु के शोक से सन्तप्त परिवार के सदस्य दुख से विलाप करते रहते हैं, इस समय उनके पड़ोसी तथा गोतियों के सदस्य भी अपना शोक प्रकट करते हैं तथा शोक में डूबे परिवार को सान्तवना देते हैं।

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गोक सहान

गांव का गोड़ित गांव के लोगों को खबर देता है कि मृत शरीर को जलाने या दफनाने ले जाना है अत: सभी लोग शीघ्र एकत्रित हो। इधर शोकित परिवार की महिलायें मृत शरीर को नहला देती है, सूखे कपड़े से मृत शरीर को पोछकर चेहरे तथा पैर पर तेल लगाती है। उसके पश्चात मृत शरीर को कफन से ढ़क दिया जाता है और पुरुष सदस्य मृत सदस्य मृत शरीर को चारपाई या अर्थी पर लेकर निश्चित स्थान की ओर प्रस्थान करते हैं। अगर मृत शरीर को जलाना है तो लकड़ी का ""सारा'' बनाया जाता है। अगर पिता का मृत शरीर है तो उसका पुत्र उसके मुख में सूके घास को जलाकर आग देता है, तत्पश्चात सम्पूर्ण ""सारा'' को अग्नि देता है। (अगर मृत्यु शरीर को दफनाना है तो भी कब्र के चारों तरफ तीन या पांच बार घुमाया जाता है उसके पश्चात कब्र में रखकर मुख में अग्नि दी जाती है) मृत शरीर के जले हुए अवशेष से पुत्र एक हड्डी को चुनकर अपने मुट्ठी में बन्द कर लेता है, उसके बाद स्नान करके घर की ओर प्रस्थान किया जाता है। इन सभी व्यक्तियों को घर के दरवाजे के बाहर ही हाथ-पैर धोना पड़ता है, फिर वे घर में प्रवेश करते हैं और मदिरा का सेवन करते हैं। पुत्र मुट्ठी में बन्द हड्डी को प्रेमपूर्वक एक मिट्टी के बर्तन में रख देता है जिसे ""जाड़ा वाहा'' कहते हैं।

इसी दौरान शोकित परिवार की महिलायें घर की लिपाई-पुताई गोबर से करती है और अपवित्र समझे जाने बर्तनों को घर से बाहर फेंक देती है। उसके पश्चात वे नदी नाले में स्नान करने चली जाती हैं। जैसे-जैसे यह दुखित सन्देश रिश्तेदारों तथा कुटुम्ब के लोगों को मिलता है वैसे-वैसे एक सप्ताह तक वह शोकित परिवार को सान्तवना देने पहुंचते रहते हैं।

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जादव पटियाँ

इन्हीं दिनों के दौरान शोकित परिवार को ठगने के लिए जादव पटियाँ (एक गैर संताली जाति) आता है। जादव पटियाँ पहले ही मृत व्यक्ति के सम्बन्ध में गहरी जानकारी एकत्रित कर लेता है तथा वह कागज पर उल्टे-सीधे नक्से (तस्वीर) बनाकर शोकित परिवार को मृत व्यक्ति के सम्बन्ध में बताता है कि वे वर्तमान समय में किस स्थिति में है। उनको सुख है या दुख है, उनको क्या-क्या सामान, वस्तुएं चाहिएं आदि-आदि। कभी-कभी इन जादव पटियाँ के जाल में फंसकर शोकित परिवार गाय, बैल, बर्तन इत्यादि तक भी सौंप देते हैं तथा विश्वास करते हैं कि यह सामान मृत व्यक्ति तक ""जादव पटियाँ'' के माध्यम से पहुंच जायेगा और मृत व्यक्ति हमसे प्रसन्न रहेगें। आजकल संताल इन ठगों के जाल में नहीं फंसते हैं तथा इन्हें घर से भगा देते हैं।

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आन्ना

मृत्यु के नवें दिन पर ""आन्ना'' किया जाता है। ""जाड़ा-वाहा'' (अवशेष हड्डी जो मिट्टी के छोटे बर्तन में रखी है) को गांव की सीमा के बाहर पुत्र ले जाता है तथा ""जाड़ा वाहा'' को एक केन्द्र के लकड़ी के दीया (लैम्प) पर रख देता है। उसके पश्चात पुत्र हड्डी को मुट्ठी में बांध लेता है और उपस्थित सभी पुरुष-स्री पत्ते के दोने से जल मुट्ठी पर बारी-बारी गिराते हैं और अन्त में पुत्र बायें हाथ से एक केन्द्र के लकड़ी से दीया तथा बर्तन को फोड़ देता है। पश्चात वे सभी नदी की ओर प्रस्थान करते हैं। महिलायें स्नान के पश्चात अपने-अपने घर वापस लौट आती हैं। पुरुष सदस्य नदी के तट पर ही बालु में वेदी बनाते हैं। मृत व्यक्ति के नाम अरवा चावल, दूध, मिठाई आदि चढ़ाया जाता है उसके पश्चात पुत्र ""जाड़ा वाहा'' को नदी के जल में प्रवाहित कर देता है। तत्पश्चात स्नान करके सभी लौट आते हैं। घर के दरवाजे पर ही अपने पत्नी या अपनी बहन द्वारा पुत्र का पैर धोया जाता है, भगवा कपडे भी बदल लेता है। पुन: घर के आंगन में बेदी बनाकर पूजा की जाती है तथा मृत व्यक्ति को एक मुर्गी अप्रित की जाती है, जिसे ओडाक कहते है। इस क्रिया के पश्चात पोचोय (मदिरा) की भी पूजा की जाती है और सपरिवार सेवन किया जाता है।

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भांडान (अन्तिम क्रिया-क्रम)

आज ही या बाद में भी उस मृत व्यक्ति का ""भांडान'' किया जाता है तथा इसकी पूर्व सूचना सारे रिश्तेदारों, कुटुम्ब को चार-पांच दिन पहले ही भिजवा दी जाती है, जिससे सभी सम्मिलित हो सके। गांव के परिवारों को भी सूचना दी जाती है। इस दिन घर की लिपाई-पुताई की जाती है तथा स्नान के पश्चात भांडान में उपस्थित सभी व्यक्तियों को चूड़ा (मूढी) जलपान के रुप में दिया जाता है।

बीच आंगन में मांडोली (पूजा-स्थल) बनाकर मृत व्यक्ति के नाम से पूजा की जाती है, जिसमें धनी परिवार मृत के नाम पर गाय बली चढ़ाता है, आर्थिक स्थिति कमजोर होने पर सूअर - बकरी की बलि भी चढ़ा सकता है। उपस्थित रिश्तेदार तथा गांव के लोग भी अपनी हैसियत तथा इच्छानुसार मृत के नाम सूअर, बकरी, मुर्गी इत्यादि बलि चढ़ाते हैं। इस दिन मृत व्यक्ति का परिवार ""भोज-भात'' की व्यवस्था करता है। उपस्थित सभी व्यक्तियों को खिलाया-पिलाया जाता है। बलि किये हुए मांस में से कुछ मांस को गांव के गली में पकाया जाता है तथा यह मांस सिर्फ पुरुषों द्वारा ही गली में ही खाया जाता है, लेकिन भांडान करने वाले परिवार के पुरुष सदस्य नहीं खाते हैं। संताल समुदाय का विश्वास है कि ऐसा करने से मृत व्यक्ति का अब घर से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। इस प्रकार मृत व्यक्ति का ""भांडान'' सम्पन्न होता है।

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रुम बोंगा

इन सब क्रियाओं के दौरान ही कभी-कभी वहां उपस्थित पुरुष सदस्यों में से एक या दो झूमने लगते हैं। संतालों का विश्वास है कि इनके अन्दर मृत व्यक्ति की आत्मा प्रवेश करती है। इन दोनों व्यक्तियों के सामने नया सूप तथा चावल रखा जाता है। मृत व्यक्ति के रुप में झूमने वाला व्यक्ति परिवार के सभी सदस्यों से पानी मांगता है। उसके पश्चात वह परिवार के भविष्य के बारे में बतलाता है, सुख-दुख, विपत्तियाँ बतलाता है।

""भांडान'' में खिलाना-पिलाना अर्थात भोज भात छ: महीने या एक साल बाद भी हो सकता है। यह भांडान करने वाले परिवार के आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है।

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कराम पूजा

कोई-कोई संताल परिवार मृत व्यक्ति के नाम कराम पूजा भी करता है, लेकिन यह अनिवार्य नहीं है। कराम पूजा तक सम्पन्न किया जाता है जबकि मृतव्यक्ति के जलाने के स्थान या दफनाने के स्थान या आंगन या छप्पर पर कराम पौधा जन्म लेता है। अगर इस प्रकार का कराम पूजा सम्पन्न किया जा है तो उसे मोरा कराम करते हैं। कराम संतालों के लिए पवित्र पेड़ है। अगर कराम पौधा किसी संताल परिवार के आंगन या मकान के छत पर उगता है तो वह परिवार स्वयं को बहुत ही भाग्यशाली समझता है। उनका विश्वास है कि आने वाला समय धन, वैभव तथा सभी प्रकार की खुशहालियों से भरपूर होगा। इसलिए वह परिवार बड़े ही धूमधाम से कराम पूजा सम्पन्न करवाता है। संताल समुदाय का यह भी विश्वास है कि नियमित रुप से कराम पूजा का आयोजन करते रहने से समुदाय पर महामारियों और प्रकोपों का प्रहार नहीं होता है बल्कि समुदाय में सुख ही सुख होता है। अत: संताल समुदाय के कराम पूजा व्यक्तिगत तथा सामुदायिक दोनों स्तरों पर होती है। कराम पूजा निम्नलिखित प्रकार की होती है :-

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गुरु कराम पूजा

यह व्यक्तिगत तथा सामुदायिक दोनों स्तरों पर ही आयोजित की जा सकती है लेकिन व्यक्तिगत स्तरों पर आयोजित करने में सारा खर्चा इसी व्यक्ति को उठाना पड़ता है, जबकि सामुदायिक स्तर पर सभी परिवार खर्चा उठाते हैं। गुरु कराम पूजा में सम्बन्धित विधिज्ञाता को नियन्त्रित किया जाता है और उसके ही नेतृत्व में पूजा सम्पन्न होती है। इस अवसर पर सभी ग्रामीणों तथा अतिथियों के लिए भोजन की व्यवस्था भी होती है। साथ ही वे पोचोय का आनन्द लेना नहीं भूलते हैं। व्यक्तिगत स्तर पर गुरु कराम पूजा का आयोजन उस व्यक्ति के आंगन में किया जाता है जबकि सामुदायिक स्तर में होने पर ग्राम के मध्य में या ग्राम मांझी स्थान पर होता है। यह पूजा प्राय: रात में सम्पन्न होती है। उसमें दो अविवाहित लड़कों द्वारा पहाड़ से कराम पेड़ की एक शाखा काटकर लायी जाती है और निश्चित स्थान पर गाड़ दिया जाता है तथा पूजा सम्बन्धित सभी गतिविधियां इसी स्थान पर सम्पन्न होती है। पूजा की समाप्ति पर इन्ही लड़कों द्वारा कराम डाल को नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। विधिज्ञाता को एक धोती तथा एक पगड़ी दक्षिणा के रुप में मिलती है।

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माझी कराम

यह पूजा सिर्फ गांव का मांझी ही आयोजित करता है तथा सारा खर्चा भी वही उठाता है। पूजा सम्बन्धित अन्य सभी गतिविधियां गुरु कराम पूजा के समान ही है।

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जिबात कराम पूजा

किसी परिवार के आंगन या मकान की छत पर कराम पौधा उगता है तो यह परिवार यह पूजा आयोजित करता है। इस पौधें को जड़ सहित उखाड़कर पूजा की जाती है उसके पश्चात इसे निश्चित स्थान पर रोप दिया जाता है।

मकान की छत या आंगन में नहीं उगने पर किसी भी स्थान से यह पौधा ज़ड़ सहित उखाड़कर लाया जाता है और पूजा सम्पन्न करने के पश्चात निश्चित स्थान पर रोप दिया जाता है। इस प्रकार के पूजा में सारा खर्चा आयोजित करने वाले व्यक्ति को ही करना पड़ता है।

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चेला कराम पूजा (खेडा कराम पूजा)

अधिकतर यह पूजा चेलों द्वारा आयोजित की जाती है। सभी पूजा सम्बन्धी क्रिया में अन्य कराम पूजा के समान ही होती है। लेकिन यहां नृत्य-संगीत प्रतियोगिता का आयोजन होता है और चेलों के मध्य ही गुरुमंत्र संबंधी प्रतियोगिता का आयोजन होता है और विजयी चेले को एक धोती, एक मुर्गा या खसी से सम्मानित किया जाता है।

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माक मोडे कराम पूजा

 

यह पूजा सामूहिक स्तर पर ही होती है। ग्राम के सभी संताली परिवार सम्मिलित रुप से एक ही स्थान पर इस पूजा का आयोजन करते हैं। यह पूजा फसल उपज होने के पश्चात ही सम्पन्न की जाती है। नृत्य-संगीत प्रतियोगिता, भोजन, मदिरा का भी प्रचुर मात्रा में आयोजन किया जाता है। इस पूजा में सभी ग्रामीण अपने कुटुम्ब, रिश्तेदारों को भी निमन्त्रण भेजते हैं तथा वे सभी प्रसन्नतापूर्वक सम्मिलित होते हैं।

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मोरा कराम पूजा

किसी परिवार के आंगन पर छप्पर पर कराम का पौधा उगता है। पश्चात दुर्भाग्यवश उस परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाती है ते ऐसी अवस्था में उस परिवार को मृत व्यक्ति के अन्तिम संस्कार के साथ-साथ कराम पूजा करना भी आवश्यक है। सभी ग्रामीण, रिश्तेदारों, विधि-ज्ञाताओं, नृत्य-संगीत मंडली के सदस्यों को खिलाना-पिलाना पड़ता हैं अत: खर्चा बहुत अधिक होता है। इसलिये अधिकर संतान अन्तिम संस्कार तथा कराम पूजा एक ही साथ सम्पन्न करते हैं और यह क्रिया ""मोरा कराम पूजा'' कहलाती है।

अगर वह परिवार मृत व्यक्ति के अन्तिम संस्कार के पश्चात अलग कराम पूजा सम्पन्न करवाता है तो ऐसी पूजा ""जिवात कराम पूजा'' कहलाती है। ""जिवात कराम पूजा'' परिवार की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है।

कराम पूजा में कराम पेड़ से डाल काटना, निश्चित स्थान पर रोपना तथा नदी में प्रवाहित करना सिर्फ अविवाहित लड़के या लड़कियों द्वारा ही की जाती है।

 

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