झारखण्ड

तीर्थ के रुप में टांगीनाथ

पूनम मिश्र


टांगीनाथ का स्थान दक्षिणी छोटानागपुर में देवघर (बैद्दनाथ धाम) के समान है। विभिन्न लोग (हिन्दू) चारों दिशाओं से यहाँ आकर पूजा अर्चना करते हैं एवं मनवांछित फल की प्राप्ति के लिए मन्नत आदि माँगते हैं। झारखण्ड के बारवे,मडुआंडार घाघरा, विशुनपुर, लोहरदगा, पलामू, वीरु, रांची, रामगढ, खूंटी, उदयपुर, खूरिया, मारवा, उडीसा के सम्बलपुर, बीरामित्रापुर आदि जगहों से भीलोग यहाँ आते हैं। टांगीनाथ में हिन्दू और आदिवासी दोनों समान श्रद्धा भाव से आते हैं। ज्यादे तीर्थयात्री माघ से लेकर जेठ माह तक इस तीर्थस्थली का दर्शन करने ज्यादे से ज्यादा की तादाद में आते हैं। अषाढ से पूस महिने में कम तीर्थयात्री आते हैं। बरसात के दिनों में तीर्थयात्री लगभग नहीं के बराबर ही आते हैं। अनेक स्थानीय लोकगीतों में टांगीनाथ बाबा का वर्णन मिलता है।वैसे लोकगीत जो डोमकाँच नृत्य के अवसर में गाए जाते हैं,टांगीनाथ बाबा की महिमा गरीबों की गरीबी मिटाने वाले, संतानहीनों को संतान देने वाला, जिसको केवल लडकी है उसे पुत्र देनेवाले, अज्ञानी को ज्ञान देनेवाला के रुप में बखान करते हैं।

टांगीनाथ धाम के साथ और अनेक किंवदनतियाँ तथा घटनाएँ जुडी हैं। जिसका वर्णन यहाँ के स्थानीय लोग तीर्थयात्रियों से बड़े गर्व के साथ करते हैं। एक दिन मैं टांगीनाथ का दर्शन करने वहाँ पहुँचा।मुसलाधार वर्षा के कारण मुझे मझगांव ग्राम में रात्रि विश्राम करने पडा।चार बजे गांव के लोगों ने मुझे बताया कि सन् १९७० ई० में कार्तिक पूर्णिमा के दिन कहीं से भटकते -भटकते एक साधु टांगीनाथ आया। उसकी बढ़ी -बढ़ी दाढ़ी, पके बाल परन्तु ओजस्वी कपाल थे।उसकी वाणी में सरस्वती का वास था। वह लगभग १० दिन तक टांगीनाथ में अपना डेरा जमाये हुए था।साधु खादी का वस्र पहना था। वह सिगरेट पर सिगरेट पिये जा रहा था। उसके पास बहुत अधिक रुपया था। वह जब तक रहा तबतक के लिए एक गाडी और दो गाय भाडे पर ऊँची रकम देकर ले लिया। उसके साथ उसके अपने भक्त, भक्त के भक्त,भक्त के भक्त की पत्नी और दो बच्चे भी आए थे। वह १० दिन एक टेन्ट बनाकर उसमें रहा।साधु प्रतिदिन उगते सूर्य को जल चढाकर लगभग एक घंटा पूजा पाठ करता था। लोगों का विश्वास है कि वह साधु और कोई नहीं बल्कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस थे। वे यहाँ इसी लिए आए थे कि शान्ति से ध्यान किया जाए। हलाँकि अपने सम्बन्ध में उन्होंने कुछ नही बताया। धीरे -धीरे इस बात का प्रचार होने लगा कि साधु कोई अन्य नहीं बल्कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस हैं। फिर क्या था, दूर- दूर से लोग उस साधु को देखने आने लगे।

 

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