असम की विविध कला एवं शिल्‍पकला

प्रस्‍तावना 

अहोम लोगों की भूमि,असम की विपुल सांस्‍कृतिक परंपरा है जो अनेक कलाओं एवं शिल्‍पकलाओं में व्‍यक्‍त होती है। ऐसा कहा जाता है कि इस राज्‍य की प्राकृतिक सुंदरता उनमें प्रतिबिंबित होती है।

नृत्‍य, कला, लकड़ी की कारीगरी, पॉट्री, शीतलपाती अथवा चटाई बनाने की कला कुछेक परिवर्तनों के साथ सदियों से जीवंत बनी हुई है क्‍योंकि यह स्‍थानीय निवासियों के दैनिक अस्तित्‍व के साथ एकीकृत होकर विद्यमान रही है। वस्‍तुत: आधुनिकता के आगमन से जनजातीय लोगों की जीवनशैली में परिवर्तन आया है, फिर भी मूलभूत कलाओं और शिल्‍पकलाओं तथा उनके सृजन की तकनीक में बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है।

लकड़ी की कारीगरी और बढ़ई‍गीरी

लकड़ी की वस्‍तुओं का निर्माण करना असम में एक सामान्‍य उद्योग है। उद्योग का विकास मुख्य कच्‍ची सामग्री, लकड़ी की उपलब्‍धता द्वारा अनुकूल हआ है। असम के जंगल मूल्‍यवान वृक्षों से भरे हुए हैं और इसलिए पूरे राज्‍य में लकड़ी की बहुतायत से उपलब्‍ध है।

असम के मैदानी जिलों में परंपरागत बढ़ई जो ग्रामीण समाज का एक महत्‍वपूर्ण घटक रहे हैं, ‘सूत्रधार’ समुदाय से आते हैं और वेदों में इस जाति का उल्‍लेख है। प्राचीन काल से ही उनके पूर्वज, जिनसे उन पर यह दायित्‍व आया है, लकड़ी से संबंधित कार्य करते रहे हैं। सामान्‍य तौर पर बढ़ई अपनी जीविका घर बनाकर गाडि़यां, हलों, करघों, फर्नीचर, मूर्तियों और नौकाओं का निर्माण करके चलाते हैं। कभी कभार वह लकड़ी के ढ़ांचे जैसे कि दरवाजों, खिड़कियों, तख्‍तों इत्‍यादि का विनिर्माण और मरम्‍मत घर अथवा सेतु के निर्माण के लिए करता है।

फिर भी असम में स्‍थानीय बढ़ई कम हैं। अधिकांश व्‍यवसाय प्रवासियों द्वारा किया जाता है जो आधुनिक अभिरूचियों और जरूरतों के मुताबिक अपने उत्‍पादों को बेहतर रूप दे सकते हैं। अधिकांश स्‍थानीय बढ़ई राज्‍य के अपने साथी बढ़ईयों से पिछड़ रहे हैं।

इतिहास और उत्‍पत्ति: *“काष्‍ठ उत्‍कीर्णन की कला बाण द्वारा सिद्ध की जाती है जो लिखते हैं कि भाष्‍कर से हर्षवर्धन को प्रदत्‍त उपहारों में ‘पैनल वाले उत्‍कीर्ण बक्‍से’ शामिल थे। (श्री पी. सी. चौधरी द्वारा द हिस्‍ट्री आफ सिविलाइजेशन ऑफ द पीपुल आफ असम से उद्धरण, 1959, पृ. 374-375)

तेजपुर के अनुदान से निर्दिष्‍ट होता है कि  ब्रह्मपुत्र में अनेक नौकाओं को सुंदर डिजाइनों से उत्‍कीर्ण किया गया और अलंकारों से सजाया गया। लकड़ी का इस्‍तेमाल प्रतिमाओं को बनाने के लिए किया जाता था जैसा कि आधुनिक कामरूप में क्षेत्री में जगन्‍नाथ की एक प्रतिमा से सिद्ध होता है। लकड़ी की विभिन्‍न वस्‍तुओं के बारे में एक परवर्ती स्रोत फतियाह-ए-इब्रियाह में लकड़ी के बक्‍सों, मेजों, तश्‍तरियों तथा कुर्सियों का उल्‍लेख है जिन्‍हें लकड़ी के एकल टुकड़े से बनाया गया था।

असम के जंगल अपनी बहुमूल्‍य लकडि़यों के लिए प्रसिद्ध थे। पुरालेखों में उनमें से कुछ का उल्‍लेख है अर्थात् वाता (फिकस इंडिका), अश्‍वथ (फिकस रेलिजियोसा), ‘मधुरसवत्‍थ’, ‘सलमाली’, खद्र (एकेसिया कैटचू) इत्‍यादि जैसे अन्‍य लड़कियों के अलावा चंदन की लकड़ी तथा अगरू। इनका इस्‍तेमाल घरेलू और धार्मिक प्रयोजनों, दोनों के लिए किया जाता था। शास्‍त्रीय लेखक असम के एलो तथा कस्‍तूरी का महत्‍वपूर्ण उल्‍लेख करते हैं। हमें कामरूप की चंदन की लकड़ी तथा एलो का संदर्भ पुराणों के समय से मिलता है। कौटिल्‍य ने अपने ‘अर्थशास्‍त्र’ में जोंगक (जोंगा से), डोन्‍गका (डोंगा)-दोनों एलो की काली लकड़ी-ग्रामेरूक (ग्रामेरू), औपक अथवा जापक (जाया) तथा तौरूपा जैसी कुछ सर्वोत्‍तम किस्‍मों का उल्‍लेख किया है, जिनमें से सभी कामरूप से प्राप्‍त होती हैं।

सत्र

आज तक, असम घाटी के करीब प्रत्येेक जिले में देखा जा सकता है कि कुछ ‘नामघर’ अथवा ‘कीर्तनघर’ (एक घर जहां हिंदुओं द्वारा सामूहिक प्रार्थनाएं की जाती हैं) को लकड़ी के आकर्षक उत्कीार्णों से सजाया जाता है। जोरहाट अनुमंडल में कमलाबरी सत्र लकड़ी पर अपनी खूबसूरत नक्कालशियों के लिए विख्याअत है। ‘नामघर’ जाने पर किसी आगंतुक का ध्याशन आकर्षित करने वाली प्रथम वस्तुस इसका ‘सिंहासन’ है जो मुख्यर प्रवेश मार्ग के सामने घर के सुदूरतम छोर पर रखा होता है। पौराणिक जानवर जैसे कि गरूड़, हनुमान, नागर और अनंत भी नामघर के भीतर महत्व पूर्ण स्था न प्राप्तर करते हैं। इन पौराणिक पात्रों के अलावा, काष्ठौ की नक्कारशियां देखी जा सकती हैं जिनमें शेरों, घोड़ों, पुरूषों, पक्षियों, बाघों, बंदरों इत्याहदि को चित्रांकित किया गया है। नामघर के शहतीरों तथा क्रॉस शहतीरों पर कुछ नक्का शियां देखना भी असामान्यस बात नहीं है, ये देवी-देवताओं तथा परंपरागत पुष्पोंय और लताओं की आकृतियों से सामान्यनत: आच्छाोदित होते हैं।

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सिंहासन

असम घाटी में नक्काशी धार्मिक क्षेत्र की वस्तुओं तक ही सीमित नही थी। फर्नीचर की नक्काशीदार वस्तुएँ भी पुराने दिनों में सामान्य थीं जैसे कि पलंग,सल्पिरा,बर्पिरा और करोनी।स्थानीय शिल्पकार नक्काशीदार बेंच,कुर्सियों ,ठगी या बुक-रेस्ट,स्टूल आदि का भी निर्माण कर सकते हैं।काष्ठ कारीगरों में कलात्मक सुन्दरता की बारीक समझ लघु बुनाई उपकरणों जैसे कि मकू,करहोनी,दुरपति,नसोनी आदि में भी देखी जा सकती है जिन्हें सामान्यतः तोते,मोर ,मगर,बन्दर और अन्य पुष्पीय डिजाइन की नक्काशी से अलंकृत किया जाता था। डोलह और पालकी पर मोर,तोते,शेर और मगर की नक्काशीकृत आकृतियाँ अक्सर देखी जाती हैं।नावों को भी पक्षियों ,जानवरों और मछलियों की नक्काशीकृत पुष्पीय डिजाइनों और चित्रों से अलंकृत किया जाता था।लधु टुकड़ों या नक्काशियों में खरम(लकड़ी की सैंडल),गोसा या लैंप-स्टैंड और टहलने की छड़ी में प्रयुक्त नक्काशियां होती थीं।

बकरियां

स्‍थानीय भाषा में लकड़ी के नक्‍काशीकर्ता के लिए समकक्ष शब्‍द ‘खोनिकोर’ होता है। शिवसागर जिले के सदर अनुमंडल में खोनिकोरगांव नामक खोनिकोरों का एक पुराना गांव है। बताया जाता है कि अहोम राजाओं के शासनकाल में उस गांव के खोनिकोरों ने राजाओं को सेवाएं अर्पित की थीं। उन दिनों राजा अहोम  खोनिकरों का अत्‍यधिक संरक्षण करते थे और उन्‍हें और उनकी शिल्‍पकला को सभी संभावित तरीकों से प्रोत्‍साहन प्रदान करते थे।

कोई भी व्‍यक्ति असम में काष्‍ठ कारीगरी की स्‍वदेशीय परंपरा की निरंतरता देख सकता है, हालांकि विगत कुछ सौ वर्षों के दौरान नई तरह की कलाकृतियां बनने लगी हैं, जिनमें से कुछ का संबंध रीति-रिवाजों से है।.

देवी-देवताएं

शिवसागर जिले में स्‍थानीय ग्रामीण बढ़इयों द्वारा कुछ खास किस्‍मों की काष्‍ठ-कारीगरी की जाती है जिनमें से निम्‍नलिखित विशेष रूप से उल्‍लेखनीय हैं। 1. सिंहासन-एक संरचना जिन्‍हें सामान्‍यत: 4 हाथियों, 24 शेरों तथा 7 बाघों द्वारा सहारा दिया गया है, इसे धार्मिक प्रयोजनों के लिए सत्र, नामघर अथवा मंदिर में रखा जाता है। 2. खराई अथवा बुक रेस्‍ट। इसे ठगी के नाम से भी जाना जाता है। 3. कुछ देवी-देवताओं के चित्र तथा मगर, गरूड़, हनुमान इत्‍यादि की आकृतियां। 4. नामघरों और सत्रों के दरवाजों, खिड़कियों तथा शहतीरों परंपरागत पुष्‍पों, लताओं इत्‍यादि की नक्‍काशियां भी देखी जा सकती हैं। ये उत्‍पाद सत्र भकत (वैष्‍णवधर्मावलंबी) के रूप में ज्ञात स्‍थायी निवासियों द्वारा बनाए जाते हैं। काचर जिले में,  पूर्ववर्ती पूर्वी पाकिस्‍तान के प्रवासियों ने कृषि के उपकरणों, कुछ साधारण डिजाइन वाले फर्नीचर जैसे कि मेज, कुर्सियां, खाट इत्‍यादि का निर्माण और मरम्‍मत का कार्य अपनाया है और कभी-कभार सेतुओं की लकड़ी की संरचना तथा भवनों का निर्माण करते हैं। कुछ ग्रामीण शिल्‍पकारों को भी मछली पकड़ने के नौकाओं घाट-नाव, मार-बोट इत्‍यादि के निर्माण के क्षेत्र में प्रवीण पाया जाता है। कुछ बढ़ई धूम्रपान पाइप (हुकानाल)-बदरपुर पुलिस थाने के अंतर्गत खोलाग्राम के गांव में मुख्‍यत:-तथा ‘खरम’ (लकड़ी के सैंडल) घरेलू उपयोग के लिए आवश्‍यक लकड़ी की कुछ वस्‍तुओं के अतिरिक्‍त बनाते हैं।

  1. सुम सुक—ओखली और मूसल—धान का भूसा रखने के लिए जंगल की साधारण लकड़ी से स्‍थानीय बढ़इयों द्वारा इसका निर्माण किया जाता है।
  2. चावथ्‍लेंग—चावल का प्‍लेट—जिले के भीतरी भागों में चावल के प्‍लेट सामान्‍य रूप से साधारण लकड़ी से बनाए जाते हैं ताकि 2 से 4 व्‍यक्ति उसी प्‍लेट से चावल ले सकें। प्‍लेट को सहारा देने के लिए स्‍टैंड भी लकड़ी के उसी टुकड़े से उत्‍कीर्ण किया जाता है।
  3. थिंगयुतलांग—मेज—यह भी लकड़ी से बना होता है तथा बैठने के प्रयोजन हेतु प्रयुक्‍त किया जाता है।
  4. दावखन—टेबुल—यह अच्‍छी किस्‍म की लकड़ी से बना होता है।
  5. पुआनबु—लॉइनलुम सेट—स्‍थानीय बढ़इयों द्वारा विनिर्मित।
  6. हमुई—परंपरागत स्पिनिंग चरखा।
  7. हेरावत—गिनिंग मशीन— लकड़ी के इस साधारण उपकरण का प्रयोग कपास को साफ करने के लिए किया जाता है। 

काष्‍ठ कारीगरी की अन्‍य महत्‍वपूर्ण वस्‍तुओं में सैंडल, नाव इत्‍यादि शामिल थे। लकड़ी के सैंडल को बनाने के लिए प्रयुक्‍त लकड़ी में मुलायम लकड़ी की प्रजातियां शामिल हैं जैसे कि जरैल, पोमा, राता, पोलन इत्‍यादि। लकड़ी के सैंडल बनाने के लिए ग्रामीण शिल्‍पकारों द्वारा बड़ी आरी की सहायता से लकड़ी के कुंदे को टुकड़ों में काटा जाता है। इन टुकड़ों को तब कुल्‍हाड़ी, बसूला, वुडन प्‍लेनर इत्‍यादि की सहायता से विभिन्‍न चौरस आकारों में ढ़ाला जाता है। इन चपटे टुकड़ों पर पेंसिल द्वारा लकड़ी के सांचे में डिजाइन बनाई जाती है जिसे बाद में छेनी से समुचित आकारों में गढ़ दिया जाता है। अंत में, सैंडल के सिरे पर लकड़ी का एक हुक लगाकर इसे पूर्ण कर दिया जाता है। लकड़ी के चपटे सैंडल के मामले में रबड़ की एक पट्टी इसके सिरे पर लगाया जाता है।

बाजार में लकड़ी के विभिन्‍न किस्‍मों को देखा जा सकता है और उनमें से अधिकांश का उत्‍पादन काचर जिले में किया जा रहा है।

लकड़ी के सैंडल को चमड़े अथवा रबड़ के तल्‍लों वाली चप्‍पलों से इस छोटे से व्‍यापार के पतन होने की संभावना से धीरे-धीरे प्रतिस्‍थापित किया जा रहा है क्‍योंकि लोग अधिक शिक्षित और अमीर हो रहे हैं।

साथ ही, नौकाओं की मांग अनिश्चित और कम होती है जिसके निर्माण परिणामस्‍वरूप कम पैमाने पर  होता है। इसके अतिरिक्‍त, बताया जाता है कि बहुत से परिवार नौकाएं बिक्री के लिए नहीं वरन अपने स्‍वयं के इस्‍तेमाल के लिए बनाते हैं। वस्‍तुत: इस उद्योग की वाणिज्यिक संभावना उज्‍ज्‍वल प्रतीत नहीं होती है।

जनजातीय शिल्‍पकार विभिन्‍न तरह की आरी, छेनी, हथौड़े, प्‍लेन एक्‍स, एड, ब्रेस, वाइस, ड्रिल-मशीन, फाइल, औगर, जुड़ी हुई छेनी, स्‍क्रूड्राइवर, सरौता, पैमाना, सांचा, स्‍क्‍वायर, मैलेट, लेवल तथा क्‍लंप का इस्‍तेमाल करते हैं।

दस्‍ती आरी—सामान्‍य प्रयोजन के लिए दस्‍ती आरियों की लंबाई 10² से 28² तक अलग-अलग होती है। ये भिन्‍न-भिन्‍न आकार की होती हैं और उनके उपयोग विशेष के अनुसार भिन्‍न-भिन्‍न आकार के दांत होते हैं। दस्‍ती आरी का उपयोग ग्रेन के आड़े अथवा ग्रेन की दिशा में एक आकार की लकड़ी काटने के लिए किया जाता है।

टेनन सॉ—इनमें ब्‍लेड को कसा हुआ रखने के लिए पृष्‍ठभाग के साथ पीतल अथवा इस्‍पात का स्टिफनर होता है। उनकी लंबाई 8² से 18² तक होती है। एक उपयोगी सामान्‍य आकार वाली आरी में प्रति इंच 12² ब्‍लेड तथा 12 दांत होते हैं, टेनन आरी का अधिकांशत: उपयोग छोटे पदार्थ काटने तथा बेंच पर काम करने के‍ लिए होता है। इस आरी का प्रयोग सामान्‍यतौर पर क्षैतिज दिशा में किया जाता है।

कीहोल आरी—कभी-कभी पैड-आरी भी कहा जाता है। इसके ब्‍लेड की लंबाई का परास करीब 6² से 14² तक होता है। यह कुंजी खांचे के छिद्रों को काटने, आंतरिक कार्य तथा प्राय: सीमित स्‍थानों में प्रयोग हेतु प्राय: अत्‍यंत सहायक होता है।

जैक प्‍लेन—इन प्‍लेनों की लंबाई 14² या 15² होती है तथा उनके पैटर्न के अनुसार उनके कटर की चौड़ाई करीब 2² होती है। ये लकड़ी तथा धातु दोनों में उपलब्‍ध होते हैं। जैक प्‍लेन का इस्‍तेमाल कतरन-कार्य तथा रेगमाल कार्य से पूर्व परिष्‍करण के सिवाय सभी समतलीकरण कार्य के लिए किया जाता है।

स्‍मूथ प्‍लेन—स्‍मूथ प्‍लेन जैक प्‍लेन के ही समान पैटर्न का होता है किंतु इसका आयाम कम होता है। इसका इस्‍तेमाल बारीक परिष्‍करण या छोटे कामों के लिए किया जाता है जहां जैक प्‍लेन अत्‍यधिक बड़ा होता है। खांचो, चैंबर, जड़ाऊ काम करने इत्‍यादि के लिए कुछ विशेष प्‍लेन भी उपलब्‍ध होते हैं।

छेनी (चिजल)—छेनियों की कुछ किस्‍मों का सर्वाधिक समान रूप से प्रयोग किया जाता है जैसे कि फर्मर चिजल, वेभल-एज चिजल, मोर्टिज चिजल, सॉलिड-सॉकेट चिजल।इनमें से सामान्‍य कार्य के लिए सर्वाधिक उपयोगी फर्मर चिजल होता है। इसके 6 उपलब्‍ध विभिन्‍न आकार 1/4², 3/8², 5/8² and 1² है।

मोर्टिज चिजल को साधारण रूप से मजबूत बनाया जाता है ताकि वे लीवर की क्रियाशीलता और भारी आघातों जिनका उन्‍हें सामना करना पड़ता है, का प्रतिरोध कर सके।

 

गेज-इनका इस्‍तेमाल खोखले या गोलाकार वस्‍तुओं को आकार देने के लिए किया जाता है।

 

ब्रेस ऑर बीट—ऑगर बीट और कुछ सेंटर बीट तथा काउंटर सिंक के सेट के साथ ब्रेस की जरूरत ड्रिलींग के लिए होती है। कुछ श्रमिक हैंड ड्रिल या स्‍ट्रेट फ्लूटेड ड्रिल का इस्‍तेमाल करीब 3/8² व्‍यास से नीचे की ओर छिद्र करने के लिए करते हुए पाए जाते हैं।

ज्‍वाइनर सैश क्‍लैंप—इस उपकरण का निर्माण लोहे अथवा किसी अन्‍य धातु से किया जाता है। एक 5 फीट लंबा ज्‍वाइनर क्‍लैंप अधिकांश बढ़ईयों के लिए अत्‍यंत उपयोगी होता है। यह उपकरण बढ़ई को लकडि़यों को सुसहंत रूप से जोड़ने को संभव बनाने में सहायता करता है।

विधि उपकरण—हथौड़ों के बारे में उल्‍लेख करने की आवश्‍यकता नहीं है। एक भारी क्‍लॉ टैमर और एक लाइट बॉल हैमर अधिकांश आवश्‍यकताओं की पूर्ति करेगा। ब्रेडॉल छिद्र करने के लिए अनमोल होता है और एक स्‍पोक शेव से वक्रपृष्‍ठ को परिष्‍कृत रूप दिया जा सकता है। कार्य को व्‍यवस्थित करने के लिए मार्किंग गेज और स्‍क्‍वायर सर्वाधिक अनिवार्य होते हैं। अन्‍य वांछनीय औजार पिंसेस का जोड़ा, लॉंग नोज प्‍लायर्स का जोड़ा एक या दो स्‍क्रू ड्राइवर और एक स्‍क्रेपर होते हैं। एक या दो प्‍लाइज एक कैबिनेट रास्‍प  एक ग्राइंडिंग स्‍टोन एक ऑयल स्‍टोन एक स्प्रिट लेवेल मेलेट और कम्‍पास का मजबूत युग्‍म सर्वाधिक वांछनीय होते हैं। बढ़ई को अपना कार्य प्रभावकारी और साफ-सुथरे ढंग से करने में एक वर्किंग बेंच और वॉइस बहुत अधिक सहायक होंगे।

कारीगर समान रूप से निशान लगाने और माप करने के प्रयोजनार्थ केवल एक फुड रूल (कभी-कभी स्‍थानीय रूप से निर्मित बांस की मापन युक्ति) और एक समतल लकड़ी के मार्किंग गेज का ही इस्‍तेमाल करते थे। अब वे अन्‍य आधुनिक औजारों और उपकरणों का इस्‍तेमाल करने लगे हैं और खेदजनक रूप से हिंदू देवी-देवताओं की नक्‍काशीदार लकड़ी की मूर्तियों को छोड़कर राज्‍य में आयातित अधिक सुंदर और टिकाऊ वस्‍तुओं द्वारा लकड़ी की बहुत सारी वस्‍तुओं को बाजार से धीरे-धीरे बाहर किया जा रहा है।

शीतल पाती (शीतल चटाई)

शीतल पाती का निर्माण पूर्णतया एक घरेलू उद्योग होता है। सामान्‍य रूप से पुरूष बेंत की पट्टियाँ तैयार करते हैं जबकि महिलाएं इधर-उधर के कुछ अपवादों के साथ बुनाई कार्य करती हैं। इस शिल्‍पकला का अनुसरण करने वाले कारीगरों की सर्वाधिक संख्‍या काचर जिले में ही देखी जाती है। पातीकार (चटाई बनाने वाले) अधिकांशत: मुस्लिम समुदाय और साथ ही पूर्वी पाकिस्‍तान के हिंदु शरणार्थियों जो महेश्‍य दास, माली, नाथ और धोबी जातियों से जुड़े हुए हैं, से संबंधित होते हैं। काचर में शीतल पाती  के निर्माण के लिए विख्‍यात गांव कटखल, कालीगंज, करीमपुर, बासीग्राम तथा श्रीदुर्गापुर हैं। पाती का निर्माण मूर्त (क्लिनोजाइन डिकोटोमा), सरकंडे के कुल के पौधे से किया जाता है। ‘खग’ किस्‍म के सरकंडों के विपरीत इसमें कोई जोड़ नहीं होता है। अन्‍य सरकंडों की तरह यह दलदली तथा जलभराव क्षेत्रों में उगता है और यह बंद टंकियों तथा नमीवाले पहाड़ी ढालों पर बहुतायत से मिलता है।

प्रक्रिया: शीतल पानी के विनिर्माण में कई जटिल प्रक्रियाएं निहित होती हैं। इसका सबसे कठिन भाग ‘पानी’ की बुनाई के लिए बेंत की बारीक पटिटयों को तैयार करना है। प्रथमत: अपेक्षित पटिटयों को प्राप्‍त करने के लिए प्रयुक्‍त किए जाने वाले बेंतों को कुछ मात्रा धावन सोडा मिले हुए पानी में धोया जाता है। धोने के बाद इन बेंतों को सुखाने के लिए खुली धूप में रखा जाता है। इसके बाद इन्‍हें बिल-कुक की सहायता से लंबाईवार बराबर-बराबर अर्द्धांशों में विभाजित किया जाता है। इन विभाजित अद्धांशों के हिस्सों को फिर से समान लंबाई और चौड़ाई के चार चीरों में उपविभाजित किया जाता है, और स्लिप से ‘बोका’ (अंदर का नरम भाग) एक ‘चिप’ (चॉपिंग टूल) की मदद से काटा जाता है। इस प्रक्रिया को स्‍थानीय तौर पर ‘आशानी’ (प्‍लेनिंग) के रूप में जाना जाता है। अगला ऑपरेशन जिसे ‘नवखानी’ आकार के रूप में जाना जाता है जिसमें विभाग के सभी टुकड़े अपनी पूरी लंबाई के साथ समान चौड़ाई के आकार के होते हैं। ‘पाती’ की बुनाई आमतौर पर यहाँ और वहाँ थोड़े बदलाव के साथ टवील या चेक पैटर्न में की जाती है। चीरों का रंग स्वदेशी तरीकों से किया जाता है। सफेद रंग पानी में (हाथीदांत) चीरों को उबालकर प्राप्‍त किया जाता है, जिसमें अन्‍य तत्‍व जेसे कि ‘भातर फिन’ (उबले हुए चावल का रस), आम्रपत (हिबिकस सफ्दारिफा) और इमली की पत्तियां मिलाई जाती हैं। काला रंग प्राप्‍त करने के लिए बंडलों में पैक किए गए चीरों को आम की छाल के साथ लपेटा जाता है और लगभग 7 दिनों तक कीचड़ में रखा जाता है। लाल रंग प्राप्‍त करने के लिए गन्ने के छिलकों को ‘मेज़ेंटा’ (एक प्रकार का रासायनिक डाई-पदार्थ) के साथ मिश्रित करके पानी में उबाला जाता है। असम के ‘पातीकरों’ द्वारा निर्मित विभिन्न डिज़ाइन निम्नलिखित हैं (स्‍थानीय नामकरण): 1. फूलपाता (लता के साथ फूल पत्तियां), 2. दलानी, 3. कप्‍पलेट, 4. ताज महल, 5. हवाई जहाज, 6. वृक्ष, 7. पक्षी आदि।