मध्य प्रदेश की गोंड जनजाति

भारत के  वृहत्‍तम आदिवासी समुदाय गोंड की उत्‍पत्ति द्रविड़ों से हुई है और उनका अस्तित्‍व आर्य युग से पहले का माना जा सकता है। गोंड शब्‍द कोंड से आया है जिसका अर्थ द्रविड़ मुहावरे में हरे-भरे पहाड़ों से है। गोंड स्‍वयं को कोई अथवा कोईतुरे कहते थे किंतु कई और लोग उन्‍हें गोंड कहते थे क्‍योंकि वे हरे-भरे पहाड़ों में रहते थे।

गोंड अथवा कोईतुरे दक्षिण में गोदावरी नदी घाटियों से उत्‍तर में विंध्‍य पर्वतों तक विस्‍तृत क्षेत्रों में व्‍याप्‍त एक विजातीय समूह है। मध्‍यप्रदेश में वे सदियों से अमरकंटक पर्वत श्रेणी में फैले हुए एक विजातीय समूह हैं। मध्‍य प्रदेश में वह कई शताब्दियों तक अमरकंटक पर्वत श्रेणी के नर्मदा क्षेत्र में विंध्‍य, सतपुड़ा तथा मांडला के घने जंगलों में निवास करते थे। मध्‍य प्रांत को गोंडवाना कहा जाता था क्‍योंकि वहां गोंड लोगों का आधिपत्‍य था। आईन-ए-अकबरी में उत्‍तर, मध्‍य तथा दक्षिण भागों में स्थित चार पृथक गोंड साम्राज्‍यों का उल्‍लेख किया गया है। समय के साथ उन्‍हें शनै: शनै: अपने साम्राज्‍यों तथा भूभागों से वंचित कर दिया गया और उनका जीवन खतरे में पड़ गया।

वेरियर एल्विन तथा शामराव हिवाले द्वारा अनूदित छत्‍तीसगढ़ के लोक गीतों (1946) में से एक लोकगीत में कहा गया है :

अंग्रेजों के इस साम्राज्‍य में
जीवन जीना कितन मुश्किल है
मवेशी-कर चुकाने के लिए
हमें एक गाय बेचनी होती है
वन-कर चुकाने के लिए
हमें एक बैल बेचना होता है
हमें किस प्रकार अपना भोजन प्राप्त करना होगा?

अपने गीतों के माध्‍यम से गोंड लोगों ने अपनी पीड़ा व्‍यक्‍त की। अपने महोत्‍सवों तथा धार्मिक कृत्‍यों, गीत एवं नृत्‍यों के माध्‍यम से  वे अपनी संस्‍कृति से जुड़े रहे। जब बड़ी संख्‍या में उनके लोगों ने काम की तलाश में नगरों की ओर रूख करना शुरू कर दिया तो ये सांस्‍कृतिक आधार खतरे में पड़ गए।

1980 के दशक में मध्‍य प्रदेश में कुछ ऐसी घटना घटित हो गयी जिससे समय के क्रम में उन्‍हें अपने सांस्‍कृतिक आधारों को सुदृढ़ करने में मदद मिली।

उस समय प्रसिद्ध कलाकार जे. स्‍वामीनाथन भोपाल में भारत भवन के निदेशक थे। वह भारत भवन के रूपांतर स्‍कंध का निर्माण करवा रहे थे जहां जनजातीय तथा शहरी कला को प्रदर्शित किया जाना था। जे. स्‍वामीनाथन ने अपने छात्रों को आदिवासी कलाकारों की तलाश करने के लिए गांवों में भेजा। उनमें से एक ने एक घर की दीवार पर हनुमान का चित्र देखा। जब वह कलाकार, जंगढ सिंह श्‍याम से मिला तो उन्‍हें पोस्‍टर रंगों से कागज पर चित्र बनाने के लिए कहा।

जंगढ सिंह श्‍याम अपनी कला के लिए कागज तथा कैनवास का इस्‍तेमाल करने वाले प्रथम गोंड कलाकार थे। उनकी प्रतिभा को जल्‍दी ही पहचान मिल गई और उनकी कृति को देशभर में प्रदर्शित किया गया। उनके चित्रों से भारत भवन के गुंबदों में से एक गुम्बद को सजाया गया है, उन्‍होंने राज्‍य की विधान सभा की एक दीवार पर विशाल एयरक्राफ्ट बनाया है; तथा नर्मदा की चिकनी मिट्टी से बनी नक्‍काशी को भोपाल के इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मानव संग्रहालय (आईजीआरएमएस) म्‍युजियम में देखा जा सकता है।

जंगढ सिंह श्याम का देहांत उस वक्‍त हुआ जब वह 40 और 50 वर्ष की आयु के बीच थे। वह मिथिला ट्रस्‍ट के साथ तीन महीने के पेंटिंग एसाइनमेंट पर जापान में थे जब उन्‍होंने अपनी खुद की जान ले ली थी। उन्होंने यह कदम क्यों उठाया यह अभी तक एक रहस्य है। किंतु उनका नाम गोंड चित्रकारी की वर्तमान शैली के साथ हमेशा के लिए रहेगा, जिसकी उन्‍होंने शुरूआत की तथा जिसका नाम उनके सम्‍मान में जंगढ कलम कर दिया गया है।