पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे गए आचार्य द्विवेदी के ये पत्र अपने समय के जीवंत दस्तावेज़ हैं, जो न केवल साहित्य के सामान्य पाठकों के लिए रुचिकर होंगे, बल्कि शोधार्थियों और द्विवेदीजी की जीवनी पर काम करनेवालों को भी अपने काम की प्रभूत इन पत्रों में मिलेगी।…Read More
बचपन का नाम बैजनाथ द्विवेदी। श्रावण शुक्ल एकादशी संवत १९६४, (१९०७ ई.) को जन्म। जन्म स्थान आरत दुबे का छपरा, ओझवलिया, बलिया (उत्तर प्रदेश)।
संस्कृत महाविद्यालय, काशी में शिक्षा। १९२९ ई. में संस्कृत साहित्य में शास्री और १९३० में ज्योतिष विषय लेकर शास्राचार्य की उपाधि पाई।
८ नवंबर, १९३० को हिन्दी शिक्षक के रुप में शांतिनिकेतन में कार्यरंभ। वहीं अध्यापन १९३० से १९५० तक। अभिनव भारती ग्रंथमाला का संपादन, कलकत्ता १९४०-४६। विश्वभारती पत्रिका का संपादन, १९४१-४७। हिंदी भवन, विश्वभारती, के संचालक १९४५-५०। लखनऊ विश्वविद्यालय से सम्मानार्थ डॉक्टर आॅफ लिट्रेचर की उपाधि, १९४९। सन् १९५० में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी प्रोफेसर और हिंदी विभागध्यक्ष के पद पर नियुक्ति। विश्वभारती विश्वविद्यालय की एक्जीक्यूटिव कांउसिल के सदस्य, १९५०-५३। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष, १९५२-५३। साहित्य अकादमी दिल्ली की साधारण सभा और प्रबंध-समिति के सदस्य। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, के हस्तलेखों की खोज (१९५२) तथा साहित्य अकादमी से प्रकाशित नेशनल बिब्लियोग्रैफी (१९५४) के निरिक्षक। राजभाषा आयोग के राष्ट्रपति-मनोनीत सदस्य, १९५५ ई.। सन् १९५७ में राष्ट्रपति द्वारा पद्मभूषण उपाधि से सम्मानित। १९६०-६७ के दोरान, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़, में हिंदी प्रोफेसर और विभागध्यक्ष। सन् १९६२ में पश्चिम बंग साहित्य अकादमी द्वारा टैगोर पुरस्कार। १९६७ के बाद पुन: काशी हिंदू विश्वविद्यालय में, जहाँ कुछ समय तक रैक्टर के पद पर भी रहे। १९७३ साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत। जीवन के अंतिम दिनों में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष रहे। १९ मई, १९७९ को देहावसान।
आमुख
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी संस्कृत पंडितों की लम्बी परम्परा के उत्कृष्ट उत्तराधिकारी थे – विशेष रुप से ज्योतिष व गणित के क्षेत्र में। संस्कृत, पाली और प्राकृत में सुशिक्षित आचार्य ने इन प्राचीन भाषाओं को आधुनिक भारतीय भाषाओं से जोड़कर अतीत और वर्तमान के बीच एक महासेतु का कार्य किया है। अपनी एक विशिष्ट भूमिका में उन्हें गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का सान्निध्य मिला, जो किसी आकाशदीप की तरह उन्हें प्रेरित करता रहा है। १९३० से १९५० तक हजारीप्रसाद द्विवेदी शांतिनिकेतन में हिन्दी शिक्षक के रुप में रहे और इसी दौरान उनका निकट का परिचय हुआ बंगला साहित्य के मर्म से, नन्दलाल बोस के सौन्दर्य बोध से, सांस्कृतिक विरासत के अन्वेषक क्षितिमोहन सेन से और गुरुदयाल मलिक के सौम्य पर पैने हास्य से।
द्विवेदी अनेक भाषाओं के पंडित थे। संस्कृत, पाली और प्राकृत के अतिरिक्त अपभ्रंश, हिन्दी, बंगला, गुजराती भाषाओं के भी वे ज्ञाता थे। उत्साही पाठक और विद्वान हाते हुए भी विद्वत्ता उनके व्यक्तित्व का सहज अंग बन गई थी। उन्हीं के शब्दों में पण्डिताई भी एक बोझ है जितनी ही भारी होती है, उतनी ही तेजी से डुबाती है। जब वह जीवन का अंग बन जाती है तो सहज हो जाती है। तब वह बोझ नहीं रहती। (ग्रन्थावली ९.२५)
आचार्य द्विवेदी जहाँ कहीं भी ठहरते, उनके विशाल ज्ञानसागर से स्वस्फूर्त हास्य, विनोद एक गूंजते ठहाके साथ वातावरण में बिखर जाता। वे शान्तिनिकेतन में रहे हों, बनारस या चंडीगढ़ में, शिक्षक के रुप में उनका व्यक्तित्व सदैव विराट रहा। शान्तिनिकेतन में श्रीमती इन्दिरा गांधी उनकी शिष्या रहीं।
एक आचार्य के रुप में, भारतीय रचनात्मक लेखन व समालोचना के क्षेत्र में योगदान असाधारण है। उनकी रचनाओं हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी साहित्य की आदिकाल और मध्यकालीन धर्मसाधना ने हिन्दी साहित्य व समालोचना के इतिहास को नया मोड़ दिया। आज उन्हें हिन्दी साहित्य के अवलोकन का आधारग्रंथ माना जाता है।
शास्रों में पारंगत हजारीप्रसाद द्विवेदी ने संस्कृत के अध्ययन के रुप में साहित्य-शास्र का एक नया मूल्यांकन प्रस्तुत किया। उनकी यह उपलब्धि उन्हें महापण्डित विश्वनाथ की परम्परा के अन्यतम भाष्यकारों में स्थापित कर देती है।
संभवत: अधिक उल्लेखनीय है कबीर के पुनर्मूल्यांकन में आचार्य द्विवेदी का योगदान। केवल हिन्दी साहित्य समालोचना के इतिहास में ही नहीं, वरन् कला समीक्षा के जगत में द्विवेदी का कबीर एक विशिष्ट उपलब्धि है। इसमें द्विवेदी की समीक्षापद्धति ही नहीं, मध्यकालीन भारतीय प्रतिभा से संबंधित निगमन अनन्य व तर्कसंगत है
द्विवेदी सर्वप्रथम एक प्रतिभावान रचनाकार थे । अत्यनत सहजता से ऐतिहासिक कालों में प्रवेश कर वे अपनी सक्षम लेखनी से उस परिवेश को, उस वातावरण को पुनर्जीवित कर देते थे। उदाहरणस्वरुप बाणभट्ट की आत्मकथा को लें या पुनर्नवा चारुचन्द्रलेख अनामदास का पोथा को देखें, इन्हें सामान्य अर्थों में ऐतिहासिक उपन्यासों में नहीं गिना जा सकता, न ही ये कल्पना की उड़ाने भर हैं, बल्कि ऐसे उपन्यास है, जो अनेक धरातलों पर चलते हैं। सुबोध, सुगम, बोलचाल की भाषा में रचे ये उपन्यास भारतीय सांस्कृति के मूल सिद्धान्तों, अवधारणाओं की सही पुनर्सृष्टि करते हैं। उनके लिखे निबन्धों, लेखों की विपुलता और विविधता इतनी है कि उन सब का उल्लेख यहाँ संभव नहीं हो सकता। उनके निधन के दो वर्षों के अन्दर प्रकाशित हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली के ग्यारह खण्ड उनके रचना संसार की समृद्धि का प्रमाण हैं।
अनेक भाषाओं के जागरुक पाठक, अपने समकालीन विद्वानों, लेखकों, चित्रकारो और राष्ट्रवादियों के सहयोगी, ऐसी एक प्रतिष्ठित प्रतिभा का निजी संग्रह दुर्लभ ज्ञान का भण्डार हो सकता है। पन्द्रह हज़ार ग्रंथो के इस संग्रह में पाली व प्राकृत की दुर्लभ कृतियाँ है और आधुनिक भारतीय भाषाओं के रचनात्मक व समालोचनात्मक लेखन का भण्डार। इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के ग्रन्थागार को श्री सुनीति कुमार चटर्जी, ठाकुर जयदेव सिंह और कृष्ण कृपलानी के संग्रहों के साथ-साथ हजारीप्रसाद द्विवेदी के संग्रह की भेंट का भी गौरव प्राप्त है।
प्रस्तुत खण्ड में हजारीप्रसाद द्विवेदी के उन पत्रों को प्रकाशित किया जा रहा है जो उन्होंने स्व. पं. बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे थे। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी के साथ उनका जितना गहरा सम्बन्ध था उतना ही गहरा स्नेह उन पर पं. बनारसीदास चतुर्वेदी का भी था। इन पत्रों को पढ़ने से द्विवेदी के व्यक्तित्व का पूरा चित्र सामने आता है जिसमें उनकी साहित्यिक साधनाओं, अनेक साहित्यिक समस्याओं एवं गतिविधियों का समावेश है। भाषा की सहजता के साथ-साथ प्रकृति प्रेम एवं विनोद वृत्ति का पूरा दृष्टान्त इन पत्रों में मिलता है।
इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र ने, जो जीवन और कला को एक-दुसरे के पूरक के रुप में समाज से सम्बन्धित कलात्मक रचनाओं को जीवन के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने के लिए वचनबद्ध है, अपने विभिन्न कार्यक्रमों में संसार के ऐसे लेखकों, विद्वानों और सृजनात्मक कलाकारों की रचनाओं के पुनर्मुद्रण एवं अनुवाद का कार्यक्रम चुना है जिन्होंने शाश्वत स्रोतों की खोज की है और जिन्होंने अलग-अलग प्रकार की परम्पराओं, सभ्यताओं एवं संस्कृतियों को आमने-सामने रखकर उनके बीच संचार सेतु बनाने का प्रयास किया। ये ही वे अग्रणी मार्ग-अन्वेषक थे जिन्होंने अभिव्यक्ति और प्रक्रिया के पीछे जीवन की एकता तथा सम्पूर्णता की ओर ध्यान आकर्षित किया। इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के प्रस्तुत कार्यक्रम के अन्तर्गत दो खण्ड पहले ही अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुके हैं जिसमें आनन्द कुमारस्वामी तथा रोमाँ रोलाँ जैसे
महानुभावों के चुने हुए पत्रों का क्रमश: संकलन है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र इस कार्यक्रम का तीसरा प्रकाशन हैं। इन पत्रों को दो भागों मे प्रकाशित किया जा रहा है। प्रस्तुत पहले भाग में वह पत्र संकलित हैं जो उन्होंने पं. बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे थे। दूसरे भाग में अन्य ऐसे पत्र शामिल होंगे जो उन्होंने अपने मित्रों एवं सम्बन्धियों को लिखे थे। इस कार्य की सफलता में हमें द्विवेदी के सुपुत्र डा. मुकुंद द्विवेदी का सहयोग मिला है जिन्होंने इन पत्रों को इकट्ठा किया और इनके सम्पादन का कार्य किया। इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र उनके इस सहयोग के लिए डा. मुकुंद द्विवेदी के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है। साथ ही राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली के प्रति भी अपना धन्यवाद प्रकट करता है जिन्होंने अपने संग्रह में से कुछ पत्रों की प्रतिलिपियाँ परामर्श के लिये दे दी।
कपिला वात्स्यायन
भूमिका
पत्र-साहित्य संभवत: हिन्दी में सबसे कम उपलब्ध साहित्य है। पत्रों का जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। पत्रों के द्वारा ही दूरस्थ व्यक्ति से विस्तार से अपनी बात कही जाती है। आज के युग में भी व्यक्तिगत पत्रों का महत्व यथावत् है। इन पत्रों में व्यक्ति औपचारिकता छोड़कर अपने आपको खुलकर अभिव्यक्त करता है अपने सुख-दुख को, अपनी परेशानियों को बिना किसी लाग-लपेट के व्यक्त करता है। पर इस संदर्भ में विचारणीय बात यह है कि ये पत्र किसे लिखे गए हैं और पत्र-लेखक के साथ उस व्यक्ति का कैसा संबंध है। संबंधो की धनिष्ठता पत्रों को सहज खुलापन प्रदान करती है। किसी रचनाशील साहित्यकार पत्रों की बात कुछ और ही होती है। साहित्यकार का पूरा व्यक्तित्व निश्छल और सहज रुप में पत्रों में उभरकर सामने आता है। साहित्यकार के व्यक्तिगत पत्र उसके व्यक्तित्व को ही नहीं अपितु उसकी साहित्यिक सर्जनात्मकता को भी उजागर करने में सहायक होते हैं। पत्रों की संवेदना, वार्तालाप की संवेदना से अधिक गहन और तीक्ष्ण होती है। बातचीत के दौरान दो पक्षों की वार्ता में बीच-बीच में व्यवधान भी पड़ता है। पत्र-लेखन मे व्यवधान आड़े नहीं आता है। यहां पर पत्र-लेखक का सारा ध्यान पत्र की तरफ रहता है, अतएव पत्र में जो मुक्त अभिव्यक्ति होती है वह अन्यत्र दुर्लभ है। औपचारिक पत्रों में स्वभाविकता बड़ी मुश्किल से ही आ पाती है। औपचारिक पत्रों में पत्र-लेखक की अपनी सीमा होती है, इन पत्रों में पत्र-लेखक सहज नहीं हो पाता है। व्यक्तिगत पत्र इससे मुक्त होते हैं और उनमें एक खुलापन दिखाई देता है। और यह खुलापन भी उम्र के साथ धीरे-धीरे कम होता जाता है। नवयुवक पत्र-लेखक एवं प्रौढ़ पत्र-लेखक की मानसिक भावभूमि में अंतर दिखाई देता है। किसी भी नवयुवक के पत्रों और किसी प्रौढ़ या वृद्ध व्यक्ति के पत्रों की तुलना करके यह बात देखी जा सकती है। ज्यों-ज्यों व्यक्ति की उम्र बढ़ती है, उसके पत्रों की भाषा एवं भावों में भी प्रौढ़ता दिखाई देने लगती है। प्रौढ़ व्यक्ति के पत्रों में अधिक संयम का परिचय मिलता है। जिस प्रकार आत्मकथा लिखते समय लेखक अपनी कमजोरियों को, अपने जीवन के गोपनीय तथ्यों को, अपने अहं को कहीं-न-कहीं छिपा लेता है, कुछ वैसी ही स्थिति प्रौढ़ पत्र-लेखक की भी होती है। स्व. आचार्य द्विवेदी के कुछ पत्र इसके अपवाद हैं।
इस प्रथम खंड में स्व. पं. बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे गए पत्र ही संकलित हैं। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी आचार्य द्विवेदी के गुरु, मार्गदर्शक एवं मित्र थे। चतुर्वेदीजी पर आचार्य द्विवेदी का अगाध विश्वास था। अपनी सारी परेशानियां, अपनी खुशियां, सारी समस्याएं वे उनके सामने व्यक्त कर देते थे। चतुर्वेदीजी का भी आचार्य द्विवेदी पर अत्यंत स्नेह था। उन्होंने समय-समय पर द्विवेदीजी की बहुत सहायता की थी। इसके लिए द्विवेदीजी सदैव चतुर्वेदीजी के कृतज्ञ रहे। उनके पत्रों में यह तथ्य स्पष्ट झलकता है। अपने प्रारम्भिक जीवन की आर्थिक दुरवस्था का उन्होंने उन्नीस सितम्बर उन्नीस सौ पैंतालीस के पत्र में अत्यंत सजीव वर्णन किया है- प्रिंसिपल ध्रुव वाली धटना, मैं आपको सुना देता हूं। परंतु इसे छापिए नहीं। ध्रुवजी अब स्वर्गीय हो गए हैं। और मेरे साथ जो घटना हो गई है शायद आकस्मिक ही थी, स्वभाव से वे दयालु थे। बात यों हुई कि मैं संस्कृत कालेज में पढ़ता था। इतना आप ध्यान रखें कि हिन्दू विश्वविद्यालय का संस्कृत कालेज न होता तो मैं शायद कुछ भी पढ़ नहीं सकता था। मैंने इधर-उधर से सीखकर थोड़ी अंग्रेजी पढ़ी और एडमिशन की परीक्षा में बैठा। प्रथम श्रेणी में पास हो गया। मेरे घर की आर्थिक अवस्था की बात न कहना ही ठीक है। मुझे याद आता है कि पिताजी ने बड़ी कठिनाई के बाद गांव के एक व्यक्ति से ४० रु. उधार लिये थे। यह मेरी इण्टरमीडिएट की भर्ती करायी की प्रथम बलि थी। मैं इसके बाद केवल क्लास में बैठता और फीस नहीं देता। मेरे पास ओढ़ने के लिए कपड़े भी नहीं थे। मुझे किसी से मांगने की कला नहीं आती थी। इसी पत्र में द्विवेदीजी लिखते हैं- जीवन में टर्किंनग पाईंट की बात आपने पूछी है। मेरे जीवन की सबसे बड़ी घटना शांतिनिकेतन में गुरुवर१का दर्शन पाना है। न जाने किस पुण्य-फल से मुझे यह सौभाग्य मिला था। दर्शन पा सकना ही परम पुण्य का फल है परंतु मुझे तो स्नेह मिला था। बाद मे गुरुवर२ के दर्शन मिले। आहा! भगीरथी की निर्मल जलधारा के समान उस प्रेमिक महापुरुष का सहाचर्य कितना आह्लादकर था, इस बात तो वही जान सकता है जिसने उस रस का कभी अनुभव किया हो। महान व्यक्ति वही होता है जो दूसरों की महानता को स्वीकार करे और उनके अवदान के प्रति कृतज्ञ रहे। आचार्य द्विवेदी के पत्रों में इस प्रकार के स्वर स्थान-स्थान पर प्रतिबिम्बित हैं। अपने साथ उपकार करनेवालों के प्रति वे आजन्म ॠणी रहे। उनके कृतज्ञता-ज्ञापन के दृष्टांत पत्रों में स्थान-स्थान पर दिखाई देते हैं-कल लखनऊ विश्वविद्यालय ने आॅनरेरी डी. लिट. की उपाधि दी। बार-बार इच्छा हो रही थी कि आपके चरणों में सिर रखूं। आपका ही प्रसाद है। आपसे लेखक-जीवन के प्रारंभ में ही जो शिक्षा मिली थी वह मेरे जीवन की सबसे बड़ी निधि रही दै मैं आज अपने कई गुरुजनों को इस अवसर पर नहीं पा रहा हूँ। मन ठण्डा उदास है। पर सौभाग्यवश आपको प्रणाम -निवेदन कर सकता हूँ। मेरा सादर प्रणाम ग्रहण करें और भविष्य में मुझे आशीर्वाद पाने वालों में सबसे आगे स्मरण करें।
ंगा। द्विवेदीजी का प्रकृति के प्रति प्रेम भी पत्रों में यत्र-तत्र उभरकर सामने आया है। प्रथम बंबई-प्रवास के समय चतुर्वेदीजी को लिखे पत्र में इसका सुंदर उदाहरण मिलता है- समुद्र तो मैंने पहली बार देखा है और वह भी एक ऐसे तूफान के बाद जिसका वेग ७५ मील प्रति घण्टे था। रास्ते में जंगल, पहाड़, नदी देखते हुए हम लोग नवीन जीवन का अनुभव कर रहे हैं। मेरा दृढ़ विश्वास हो गया है कि मैदान में रहनेवालों को नई स्फूर्ति पाने के लिए इन पहाड़ो, जंगलों और नदी-नालों को तथा समुद्र को जरुर देखना चाहिए। बिना इनके देखे हम जीवनी शक्ति की अखण्ड धारा का अनुभव नहीं कर सकते। कितना विराट है हमारा देश, कितना मनोरम, कितना विचित्र इसके लिए प्राण देना कोई बड़ी बात नहीं है। अब तो मैंने निश्चय कर लिया है कि हिमालय देखने जरुर जा बिना प्रकृति के इस सौंदर्य और तेज को देखे जीवन एकांगी और एकधृष्ट हो जाता है। मैदान के रहनेवालों की रीति मनोवृत्ति अगर दूर करना है तो उन्हें सीधे जंगल में ले आइये जहां कठोर पत्थर को तोड़कर कोमल तृण उगे हैं। (१९.१०.१९४० ई.)
इसी प्रकार पत्रों में हास-परिहास एवं सूक्ष्म व्यंग बिखरे पड़े हैं। चतुर्वेदीजी द्विवेदीजी के श्रध्देय तो थे ही, पर उनके साथ हास-परिहास करने से वे नहीं चूकते थे। २३.११.४२ के पत्र में वे अपने आप पर व्यंग के माध्यम से कई लोगों को इस परिधि में ले आते हैं- अब ८ नवंबर की बात सुनिए। कहते हैं आदमी १२ वर्ष मास्टरी करने के बाद गधा हो जाता है। अमेरिका में सुना है ऐसे आदमी की गवाही अदालतें नामंजूर कर देती है। पिछले ८ नवंबर को मैं १२ वर्ष का अध्यापक-जीवन समाप्त कर गया। उस पवित्र तिथि को आपको प्रणाम करना था, पर एक साल की सम्पादकी ने बारह वर्ष की मास्टरी को ऐसा पछाड़ा कि समय नहीं मिल सका। अब मेरा पक्का विश्वास है कि एक वर्ष का सम्पादक १२ वर्ष मास्टर की अपेक्षा उक्त पदोन्नति का अधिक अधिकारी है। परंतु आप एक साल के सम्पादक को वह पद दीजिए या बारह वर्ष के मास्टर – दुहूं हाथ मन मादक मोरे।
पं. बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे गए पत्र एक तरफ आचार्य द्विवेदी के जीवन के दस्तावेज हैं तो दूसरी तरफ उनके साहित्य-संधर्ष के प्रतिबिम्ब हैं। इन पत्रों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि आचार्य द्विवेदी के साहित्य-साधना को समझने में सहायक होते हैं। द्विवेदीजी का पूरा व्यक्तित्व इन पत्रों में खुलकर पाठकों के सामने आता है। उस समय की अनेक साहित्यिक समस्याओं और गतिविधियों का भी उल्लेख इन पत्रों में है। बंगाल में हिन्दी की स्थिति एवं गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के आश्रम का अत्यंत सजीव चित्र इन पत्रों में उभरकर सामने आता है। भाषा की स्वाभाविकता एवं इन पत्रों में निहित व्यंग भी दर्शनीय है। यह दावा करना कठीन होगा कि चतुर्वेदीजी को लिखे गए सभी पत्र इसमें सम्मिलित कर लिए गए हैं। पर यह प्रयास अवश्य रहा है कि अधिकाअधिक पत्रों का संकलन इसमें हो पाए। इसके बाद जो पत्र उपलब्ध होंगे उन्हें अगले संस्करण में जोड़ लिया जाएगा।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र की शैक्षिक निदेशक डा. कपिला वात्स्यायन, इसके प्रकाशन के पीछे मूल प्ररेणा रही हैं। यदि बार-बार इसके शीध्र प्रकाशन के लिए वे मुझे स्मरण नहीं दिलातीं तो शायद इसका प्रकाशन इतना शीध्र नहीं हो पाता। उनके लिए न तो धन्यवाद और न ही आभार शब्द पर्याप्त हैं, अत: इसके प्रकाशन के अवसर पर कपिलाजी को मैं प्रणाम करता हूँ।
ंगा, इन शब्दों के साथ आचार्य द्विवेदी के पत्रों के इस संकलन को आपके हाथों में सौंपते हुए मुझे प्रसन्नता हो रही है। इसका दूसरा खण्ड भी शीध्र ही आपको सौंप पा ऐसा मेरा विश्वास है। दूसरे खण्ड में अन्य मित्रों, साहित्यकारों एवं परिवार के सदस्यों को लिखे गए पत्र होंगे। मुझे पूरा विश्वास है कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को समझने में ये पत्र सहायक होंगे।
मुकुन्द द्विवेदी
१. गुरुदेव श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर
२. गुरुवर श्री सी.एफ. एंड्रुज़