सार्थक परियोजना : सार्थक प्रयास इन्दिरा
गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र द्वारा संचालित कॉयल ने परियोजना ""हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लिए सांस्कृतिक सम्पदा की डिजिटल निधि का निर्माण'' - एक अनुभव |
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इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र एक वि स्तर की मान्यता प्राप्त शैक्षणिक संस्था है। कॉयल-नेट परियोजना ""हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लिए सांस्कृतिक सम्पदा का डिजिटल निधि का निर्माण'' का इस संस्था की संरचना से विशेष सम्बन्ध है। इस परियोजना के अनुभव के सम्बन्ध में कुछ भी लिखने से पूर्व संस्था की संरचना, इसके उद्देश्य, विभिन्न विभाग, क्रिया-कलाप आदि का वर्णन अनिवार्य है। इसलिए इस लेख की शुरुआत संस्था के संदर्भ में करने का प्रयास किया गया है। भारत
की प्रथम महिला यशस्वनी प्रधानमंत्री
श्रीमती इन्दिरा गांधी की स्मृति में
स्थापित इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला
केन्द्र की कल्पना एक ऐसे विलक्षण शैक्षणिक-सह-कलात्मक
संस्थान के रुप में की गई है जिसमें
सभी कलाओं के अध्ययन एवं अनुभव का
सर्वोत्तम समावेश हो और कला का
प्रत्येक रुप अपना एक अलग अस्तित्व रखते
हुए भी पारस्परिक अन्योन्याश्रय की
स्थिति में, प्रकृति, सामाजिक संरचना
और ब्रह्मांड व्यवस्था के साथ पारस्परिक
रुप से संबद्ध हो। कलाओं
के विषय में यह दृष्टिकोण जो मानव-संस्कृति
के व्यापक परिवेश के साथ अखण्ड रुप
से जुड़ा है और इसके लिये आवश्यक
भी है, श्रीमती इन्दिरा गांधी की इस
मान्यता पर आधारित है कि कलाओं की
भूमिका मनुष्य के लिये व्यक्तिगत रुप
में तथा एक सामाजिक प्राणी के रुप में
उनके अंतरंग गुणों को विकसित करने
के लिये आवश्यक है। यह दृष्टिकोण
सम्पूर्ण वि को एक समझने की (विश्वबंधुत्व)
एवं वि की अखण्डता की भावना - वसुधैव
कुटुम्बकम - में समाविष्ट है जो
भारतीय परम्परा में सर्वत्र मुखरित
है और जिस पर राष्ट्रपिता महात्मा
गांधी तथा गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर
जैसे आधुनिक भारतीय मनीषियों ने
भी बल दिया है। इस
संस्थान में कलाओं के क्षेत्र को बहुत
व्यापक रुप में देखा गया है जिसमें
मुख्य रुप से शामिल है : लिखित तथा
मौखिक रुप में उपलब्ध सृजनात्मक एवं
समीक्षात्मक साहित्य, वास्तुकला, मूर्तिकला,
चित्रकला और लेखाचित्रकला से लेकर
सामान्य भौतिक संस्कृति, फोटोग्राफी
और फिल्म जैसी दृश्य कलाएं, अपने अधिक
से अधिक व्यापक अर्थों में संगीत, नृत्य,
नाट्य जैसी प्रदर्शनात्मक कलाएं और
मेलों, उत्सवों तथा जीवन शैली में
उपलब्ध वह सब कुछ जो किसी भी दृष्टि
से कलात्मक कहा जा सकता हो। प्रारंभ
में इस केन्द्र ने अपना ध्यान भारत पर
ही केन्द्रित रखा था, लेकिन अभी विगत
चार-पाँच वर्षों से केन्द्र ने अपना क्षेत्र
अन्य सभ्यताओं तथा संस्कृतियों तक
विस्तार किया है। अनुसंधान, प्रकाशन,
प्रशिक्षण, सृजनात्मक कार्यकलाप तथा प्रदर्शन
के विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से
केन्द्र कलाओं को प्राकृतिक तथा मानवीय
परिवेश के संदर्भ में प्रस्तुत करने
का भागीरथी प्रयास अपने स्थापना के
समय अर्थात् १९८७ से ही कर रहा है। डॉ.
कपिला वात्स्यायन के आश्चर्यजनक उत्साह
एवं वैदुश्यपूर्ण नेतृत्व में थोड़े
ही समय में इस कला केन्द्र ने कला एवं
संस्कृति के अनेक महत्वपूर्ण बिन्दुओं
को प्रकाशित एवं विकसित किया है,
जिससे समस्त कला एवं विद्या के क्षेत्र के
लोग कृत-कृत हैं। अपने समस्त कार्य
में संस्थान का आधारभूत दृष्टिकोण
बहुविषयक तथा अंतर्विषयक दोनों
प्रकार का रहा है। संस्थान के प्रमुख
उद्देश्य निम्नलिखित हैं : (क)
कलाओं, विशेषकर लिखित, मौखिक और
दृश्य स्रोत सामग्री के प्रमुख संसाधन
केन्द्र के रुप में कार्य करना; (ख)
सुव्यवस्थित रुप से वैज्ञानिक अध्ययनों
और सजीव प्रदर्शनों का आयोजन करने
के लिये कोड संग्रह के साथ-साथ जनजातीय
और लोक कला प्रभाग स्थापित करना; (ग)
कला, मानविकी और सामान्य सांस्कृतिक
धरोहर से सम्बन्धित संदर्भ ग्रन्थों,
शब्दावलियों, शब्दकोशों, विश्वकोशों
के अनुसंधान और प्रकाशन के कार्यक्रम
हाथ में लेना; (घ)
प्रदर्शन, प्रदर्शनियों, बहुमाध्यमिक
प्रस्तुतियों, सम्मेलनों, संगोष्ठियों
तथा कार्यशालाओं के माध्यम से
विविध परम्परागत तथा समकालीन कलाओं
के क्षेत्र में तथा उनके बीच परस्पर सृजनात्मक
एवं समीक्षात्मक संवाद विचार-विमर्श
के लिये एक मंच उपलब्ध कराना; (च) दर्शन, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी सम्बन्धी वर्तमान विचारों और कलाओं के बीच संवाद को बढ़ावा देना ताकि बौद्धिक समझ-बूझ के उस अन्तर को दूर किया जा सके जो अक्सर एक तरफ आधुनिक विज्ञानों और दूसरी तरफ कला तथा संस्कृति, जिसमें परम्परागत कला-कौशल तथा ज्ञान शामिल है, के बीच उत्पन्न हो जाता है; (छ)
भारतीय प्रकृति के अनुरुप अनुसंधान
कार्यक्रमों तथा कला प्रशासन के लिये
मॉडल तैयार करना; (ज)
विविध सामाजिक स्तरों, समुदायों
और क्षेत्रों के बीच पारस्परिक क्रियाओं
के जटिल ताने-बाने के रचनात्मक तथा
गतिशील तत्वों को स्पष्ट करना; (झ)
भारत और वि के अन्य भागों के बीच
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सम्बन्धों
के प्रति जागरुकता और संवेदनशीलता
को बढ़ावा देना; (ट)
कला और संस्कृति के अन्य राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय केन्द्रों के साथ संचार
साधनों का विकास करना और कला,
मानविकी और सांस्कृतिक धरोहर
के सम्बन्ध में अनुसंधान कार्य करने
और उनको मान्यता प्रदान करने के लिये
भारतीय तथा विदेशी विश्वविद्यालय
और अन्य शिक्षा संस्थाओं के साथ सम्बन्ध
स्थापित करना।
इन्दिरा गांधी
राष्ट्रीय कला केन्द्र की संकल्पनात्मक
योजना में वर्णित उद्देश्यों को पूरा
करने के लिए संस्थान अपने पांच संकायों
के माध्यम से कार्य करता है जो संरचनात्मक
दृष्टि से स्वायत्त होते हुए भी कार्यक्रमों
के आयाजनों के मामले में परस्पर जुड़े
हुए हैं। इन पांच संकायों के सम्बन्ध
में भी जान लेना जरुरी है। कला निधि : कला निधि संकाय में (क) मानविकी विषयों तथा कलाओं में अनुसन्धान के लिए प्रमुख संसाधन केन्द्र के रुप में कार्य करने के लिए बहुविध संग्रहों से सुसज्जित सांस्कृतिक संदर्भ पुस्तकालय है जिसे संबल प्रदान करने के लिये (ख) कलाओं, मानविकी विषयों तथा सांस्कृतिक परम्पराओं (धरोहर) पर एक कम्प्यूटरीकृत राष्ट्रीय सूचना प्रणाली एवं डेटा बैंक और (ग) सांस्कृतिक अभिलेखागार तथा कलाकारों / विद्वानों के बहुविध व्यक्तिगत संग्रह और क्षेत्र अध्ययन की व्यवस्था है। कला कोश : कला कोश संकाय आधारभूत अनुसंधान कार्य करता है। यह ऐसे दीर्घकालिक कार्यक्रम आरम्भ करता है, जिनमें (क) कला और शिल्प की आधारभूत संकल्पनाओं का एक कोश तथा बुनियादी तकनीकी शब्दों का संग्रह और अंतर्विषयक शब्दावलियाँ, (कलातत्वकोश) (ख) भारतीय कलाओं के आधारभूत ग्रंथों की श्रृंखला (कलामूलशास्र), (ग) भारतीय कलाओं के विषय में समीक्षात्मक कृतियों के पुनर्मुद्रण की श्रृंखला (कला समालोचन) और (घ) भारतीय कलाओं का एक बहुखंडीय विश्वकोश सम्मिलित है। जनपद सम्पदा : जनपद-सम्पदा संकाय, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, (क) लोक तथा जनजातीय कलाओं और शिल्पों से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण सामग्री का संग्रह तथा प्रलेखन करता है, (ख) बहुविध संचार माध्यमों के जरिए प्रस्तुतियाँ करता है, (ग) जनजातीय समुदायों की बहुविषयक जीवन शैलियों के अध्ययन के लिए व्यवस्था करता है जिससे कि समग्र भारतीय सांस्कृतिक दृश्य प्रपंच और पर्यावरणात्मक, पारिस्थितिक, कृषि विषयक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा राजनितिक आयामों के ताने-बाने के वैकल्पिक मॉडल तैयार किए जा सके, इनके अलावा, (घ) उसने एक बाल रंगशाला स्थापित की है, (ङ्) एक संरक्षण प्रयोगशाला स्थापित करेगा, तथा (च) भारतीय धरोहर से सम्बन्धित क्रिया-कलाप विद्यार्थियों के लिए विगत दो वर्षों से शुरु किया है। कला दर्शन : कला दर्शन संकाय एक महत्वपूर्ण संकाय है। यह कला एवं संस्कृति के एकीकृत विषयों तथा संकल्पनाओं पर अंतर्विषयात्मक संगोष्ठियों एवं प्रदर्शनियों के लिये एक मंच की व्यवस्था करता है। सूत्रधार : जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है सूत्रधार सभी संकायों का आधार है। यह अन्य सभी संकायों को प्रशासनिक, प्रबन्धकीय और संगठनात्मक सहायता तथा सेवाएं प्रदान करता है। संस्थान के शैक्षणिक प्रभाग अर्थात् कला निधि तथा कोश अपना ध्यान प्रमुख रुप से बहुविध प्राथमिक एवं गौण सामग्री के संग्रह पर लगाते हैं, आधारभूत संकल्पनाओं की खोज करते हैं, रुप के सिद्धान्तों का पता लगाते हैं और पारिभाषिक शब्दावलियों को स्पष्ट करते हैं। वे यह कार्य सिद्धान्त, पाठ (शास्र), बौद्धिक चर्चा (विमर्श) और निर्वचन (मार्ग) स्तर पर करते हैं। जनपद सम्पदा और कला दर्शन संकाय लोग, देश तथा जन के स्तर पर अभिव्यक्ति, प्रक्रिया, जीवन कार्य तथा जीवन शैली और मौखिक परम्पराओं पर ध्यान देते हैं। चारों प्रभागों के कार्यक्रम सम्मिलित रुप से कलाओं को उनके जीवन तथा अन्य विषय सम्बन्धी मूल संदर्भों में प्रस्तुत करते हैं। संस्थान के प्रत्येक संकाय में अनुसंधान करने, कार्यक्रम बनाने और अन्तिम निष्कर्ष निकालने की रीतियां एक जैसी हैं। हर प्रभाग का कार्य दूसरे प्रभागों के कार्यक्रमों का पूरक होता है। संस्थान के सम्बन्ध में जानकारी देने का हमारा उद्देश्य यह है कि किस तरह यह संस्था कला का समग्रता के साथ अध्ययन एवं प्रदर्शन पर सभी लोगों का ध्यान - एक महान विद्वान या वि प्रसिद्ध कलाकार से लेकर एक स्कूली बच्चा तक - आकर्षित करती है। अभी कुछ वर्षों से संस्थान के शैक्षणिक कार्यक्रम से जुड़े लोग इस बात का अनुभव कर रहे हैं कि एक विशाल जनसंख्या हिन्दी भाषा के माध्यम से शिक्षा ग्रहण कर रही है। इन लोगों के लिए अंग्रेजी एक विदेशी भाषा है। ये लोग शिक्षा के क्षेत्र में प्रवीण हैं तथा हिन्दी में अध्ययन सामग्री देखना चाहते हैं। विज्ञान के विकास से इन्हें परहेज नहीं है, अपितु ये तो विकास के सहभागी बनना चाहते हैं किन्तु इनकी वेदना यह है कि पश्चिमी सभ्यता एवं इस सभ्यता से प्रभावित अंग्रेजी संस्कृति के लोग विज्ञान को केवल अंग्रेजी या उसी समुदाय की भाषा में कैद कर रखना चाहते हैं तथा इन्हें इनकी मातृवाणी या अन्य भाषा जिसे ये सहजता से समझ सकते हैं, में नहीं बताना चाहतें हैं। आलम यह है कि हिन्दी भाषी एवं अन्य क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग करने वाले को ये लोग निम्न एवं अशिक्षित मान कर चलते हैं। सच तो यह है कि क्षेत्रीय, हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषा बोलने वाले लोग विज्ञान के विकास में एवं आधुनिक संसाधनों को स्वीकार करते हुए कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने में अंग्रेजी भाषी लोगों से कहीं भी पीछे नहीं है। हालांकि दूरदर्शन के कुछ चैनल यथा ""डिस्कवरी'', ""नेशनल ज्योग्राफिक'', ""कार्टून नेटवर्क'' एवं कुछ समाचार पत्र वालों ने अपने कार्यक्रमों को हिन्दी भाषा में देना प्रांरभ किया है और लोग इस तरफ आकर्षित हुए हैं। इन लोगों ने इसका अनुभव किया कि कार्यक्रम हिन्दी में देने से देखने वालों की संख्या बढ़ी है। दुर्भाग्य से सांस्कृतिक धरोहरों की विस्तृत जानकारी हिन्दी एवं क्षेत्रीय भाषा में प्रचुरता से कम्प्यूटर विशेषतौर से नेट एवं वेब के उपभोक्ताओं के लिए उपलब्ध नहीं है। इस संस्था के विद्वान एवं अधिकारीगण इस बात को लेकर काफी चिन्तित थे। इसी बीच संस्था के विद्वानों ने एक परियोजना का प्रारुप तैयार किया। परियोजना का नाम था ""हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लिए सांस्कृतिक सम्पदा की डिजिटल निधि का निर्माण।'' इसका उद्देश्य यह था कि हिन्दी भाषी लोगों के लिए मूल हिन्दी प्रदेश - मूलत: राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड तथा बिहार के लिए सांस्कृतिक धरोहर के विपुल भण्डार को वैज्ञानिक प्रमाणिकता के साथ सजाया एवं संवारा जाय जिसे स्कूली छात्र, स्कूली शिक्षक, कॉलेज के विद्यार्थी, पर्यटक, सामान्य नागरिक से लेकर संस्कृति एवं मानव विज्ञान, समाज विज्ञान, इतिहास, कला इतिहास आदि के विद्वान शोधार्थी भी लाभ उठा सकें और उन्हें यह अनुभूति हो कि वे भी विकास के सहभागी हैं, कला - संस्कृति की जानकारी में वे भी किसी मामले में अंग्रेजी वाले लोगों से पीछे नहीं है। इस परियोजना का महत्व इसलिये भी है कि इन हिन्दी राज्यों को बीमारु क्षेत्र के रुप में अशिक्षित, निर्धनता, बेकारी, महामारी, अकाल, आदि के लिए समस्त देश में जाना जाता है। एक सत्य यह भी है कि यह क्षेत्र कला और संस्कृति का विपुल भण्डार भी है। कला और संस्कृति के बारे में सोचने के लिए किसे समय है? हमें नहीं भूलना चाहिए कि विद्यापति, मीरा, सूर, कबीर, चन्द्रबरदाई, अशोक, चन्द्रगुप्त मौर्य, रसखान आदि इसी धरती पर अवतरित हुए। कला का हरेक पक्ष इस क्षेत्र के कलाकारों से परिष्कृत है। परियोजना के प्रारुप को भारत सरकार के सूचना और तकनीकि मंत्रालय में आर्थिक सहयोग के लिए प्रस्तुत किया गया। मंत्रालय के विद्वानों ने परियोजना के प्रारुप को जांचा, परखा एवं इसे आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए स्वीकार कर लिया। अब समस्त सूचना को डिजीटाइज कैसे किया जाए - इस बात के लिए संस्था के विद्वानों ने सोचना प्रारंभ किया। निर्णय यह लिया गया कि सदस्य सचिव एवं शैक्षणिक निदेशक के निर्देशन में संस्था के दो विद्वानों डॉ. मौलि कौशल एवं डॉ. कैलाश कुमार मिश्र इस परियोजना को सह-अन्वेषक के रुप में आगे बढ़ाएंगे। निर्णय यह लिया गया कि इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र कॉयल-नेट की परियोजना के तहत १०,००० पृष्ठ (लिखित), फोटोग्राफ, ग्राफिक, स्लाइड्स, विडियों, आॅडियों आदि से संवारकर प्रस्तुत करेगा जिसे देखकर देखने वाले को ऐसा आभास हो कि उसने सचमुच में हिन्दी भाषी राज्यों के सम्बन्ध में कला, संस्कृति के समस्त पक्षों को समझ लिया है। सजाने के दृष्टिकोण से परियोजना को चार खण्डों में विभाजित किया गया : (क) सांस्कृतिक धरोहर खण्ड; (ख) लोक साहित्य खण्ड; (ग) लोक प्रसिद्ध ग्रामीणकथा खण्ड; (घ) प्रसिद्ध कवि एवं लेखकों की रचना खण्ड। सांस्कृतिक धरोहर खण्ड में लोक नाटक (एवं नाटिका), कठपुतली नृत्य, लोक तथा शास्रीय नृत्य और संगीत, अनुष्ठान, उत्सव, मेला, आदि के साथ-साथ मंदिर, पूजा घर, पूजा स्थान एवं तीर्थ स्थान, कलात्मक रचनाशीलता (धर्मिता) जैसे पेर्जिंन्टग, बुनकरी, हस्त-कला, जरदोजी (बेलबूटा) आभूषण कला, कथा-वाचना, वास्तु-कला, नदियाँ, जंगल, प्राकृतिक छटा एवं अन्य ऐसे गुण जो विशेष सांस्कृतिक क्षेत्र अपने-आप में संजोये हुए हैं। इस खण्ड में प्राकृतिक जड़ी-बूटी, लोक क्रीड़ा, लोक कहावतें, फबतियाँ, मुहावरे, बुझौअल, लोगों के द्वारा कृषि कार्य से सम्बन्धित एवं पानी, बरसात, अकाल, अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदि के सम्बन्ध में भी लोक-विज्ञान के ज्ञान के आधार पर भविष्यवाणियाँ करना आदि भी सम्मिलित है। लोक साहित्य खण्ड हिन्दी की सहयोगी बोलियाँ एवं भाषाओं में रचित साहित्य (लोक शास्र, पहेली, कवित्त आदि भी) का विवरण प्रस्तुत करती है। इसमें जिन बोलियों एवं भाषाओं को सम्मिलित किया गया है उनमें प्रमुख हैं अवधी, मगही, मैथिली, ब्रज, भोजपुरी, संताली, छत्तीसगढ़ी, बाघेली, मारवाड़ी एवं अन्य राजस्थानी उपभाषा (बोली)। परम्परागत एवं प्रसिद्ध लोक एवं ग्रामीण काव्य, महाकाव्य, आख्यायन खण्ड के अन्तर्गत पंचतंत्र , हितोपदेश , जातक-कथा , सिंहासन बत्तीसी , आदि को सम्मिलित किया गया है। मौखिक महाकाव्य में आल्हा-उदल, राजा-सलहेश, दीना-भद्री और देवनारायण आदि को सम्मिलित किया गया है। सास्वत कवियों एवं लेखकों की रचना खण्ड में विश्वप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे विद्यापति, सूरदास, रसखान, तुलसीदास, कबीर, मीराबाई, रहीम, गालिब, जायसी, चन्द्रवरदाई, केशवदास की रचनाओं को सम्मिलित किया गया है। समकालीन साहित्यकारों के सम्बन्ध में भी यह खण्ड सूचना देता है। समकालीन साहित्यकारों में प्रेमचन्द, फनीश्वरनाथ "रेणु', भारतेन्दु, सुभद्रा कुमारी चौहान एवं नागार्जुन सम्मिलित है। डाटा प्रबन्धन को ज्ञानवर्धक, आकर्षक एवं सभी वर्ग के लोगों के लिए सहज बनाने के लिए कला केन्द्र के विद्वानों ने बहुत परिश्रम किया। शैक्षणिक निदेशक एवं सदस्य सचिव प्रो. इन्द्रनाथ चौधुरी हिन्दी के विश्व स्तर के विद्वान तो हैं हीं, संस्कृत एवं नाट्य शास्र के भी प्रखर ज्ञाता हैं। कला के अधिकांश क्षेत्रों में इनका ज्ञान एवं पकड़ असाधारण तथा प्रशंसनीय है। प्रो. चौधुरी अपने व्यस्त शैक्षणिक एवं प्रशासनिक कार्यक्रम के बावजूद डा. कैलाश मिश्र को समय देकर परियोजना के सही सम्प्रेषण में बीज का कार्य करते रहे हैं। प्रो. चौधुरी चाहते हैं कि डाटा प्रबन्धन ऐसा हो जिसे देखकर ही संस्था के व्यक्तित्व का परिचय नेट देख रहे लोगों को सहज ही मिल जाए। प्रो. चौधुरी के प्रयास के कारण संस्थान के दो वरिष्ठ विद्वान प्रोफेसर, कला कोश संकाय के विभागाध्यक्ष प्रो. गया चरण त्रिपाठी एवं जनपद सम्पदा संकाय के विभागाध्यक्ष प्रो. रणजीत कुमार भट्टाचार्य भी अपने ज्ञान एवं वैदुष्य से इस परियोजना के सह-अन्वेषक को हमेशा ही प्रेरित करते रहते हैं। प्रो. त्रिपाठी संस्कृत के उत्कृष्ट विद्वान हैं। हिन्दी में भी इन्हें महारत हासिल है। इनके जिह्मवा पर सरस्वती वास करती है। कला केन्द्र के लोग इनको चलता-फिरता संस्कृत का विश्वकोष मानते हैं। प्रो. भट्टाचार्य प्रकाण्ड मानवशास्री हैं। एंथ्रोपोलोजीकल सर्वे आॅफ इण्डिया के निर्देशक रह चुके हैं। जनजातीय संस्कृति एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों के सम्बन्ध में इनका जवाब नहीं है। अन्तत: दिसम्बर २००२ को दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया, जिसमें दिल्ली एवं दिल्ली के आस-पास के विश्वविद्यालयों, शैक्षणिक संस्थानों, शोध संस्थानों से नए उत्साही शोधार्थी को विषय के संचयन एवं प्रबंधन की रुपरेखा तैयार करने के लिए बुलाया गया। कार्यशाला में संस्कृत, हिन्दी, कला-इतिहास, प्रागैतिहास, इतिहास, बौध दर्शन, मानव-विज्ञान, समाजशास्र, पाण्डुलिपि विज्ञान, विरासत अध्ययन, संग्रहालय विज्ञान, पत्रकारिता आदि विषय के लोगों को अपना विचार प्रकट करने का अवसर दिया गया जिससे डाटा प्रबन्धन का निर्देशिका का निर्माण सभी क्षेत्रों के लिए किया जा सके। जनवरी के दूसरे सप्ताह में डॉ. कैलाश कुमार मिश्र ने प्रो. इन्द्रनाथ चौधुरी एवं प्रो. एन.आर. शेट्टी महोदय के शैक्षणिक सहयोग से एक सामान्य निर्देशिका का निर्माण सफलतापूर्वक किया। निर्देशिका के निर्माण में कार्यशाला में आए विद्वानों के विचार का महत्वपूर्ण योगदान था। कार्यशाला में आए युवा शोधार्थियों में से सात लोगों का चुनाव विभिन्न सांस्कृतिक खण्डों से सूचना एकत्रित करने एवं उन्हें सर्वमान्य प्रतिमान पर सजाने के लिए किया गया। निर्देशिका की संरचना को मंत्रालय के लोगों से लेकर सभी कॉयल-नेट सदस्यों ने सराहा है। निर्देशिका को कुछ इस प्रकार तैयार किया गया था :- GUIDELINES ( निर्देशिका) १.
लोक परम्परा (क) धरा और उसकी
संपति (ख) विश्वास, धारणा,
प्रागैतिहासिक तथ्य, इतिहास इत्यादि। (ग) मेले और
उत्सव (कृपया उत्सवों का एक वार्षिक वृत
तैयार करने के बाद ही कार्य प्रारम्भ
करें)
(घ) मानव के
संस्कार चक्र
मानव जीवन के जन्म से लेकर मृत्यु
तक के संस्कारों के सम्बन्ध में विस्तृत
जानकारी।
(घ १) जन्म के पहले और जन्म के बाद
के संस्कार (१.)
छठिहार (२.)
नामकरण संस्कार (३.)
मुण्डन संस्कार (४.)
कर्णबेधन संस्कार (५.)
उपनयण संस्कार (६.)
विवाह संस्कार (६.१)
लड़के के विवाह से जुड़े संस्कार। (६.२)
लड़कियों के विवाह से जुड़े संस्कार। (६.३)
विवाह के पूर्व के संस्कार। (६.४)
विवाह के समय के संस्कार। (६.५)
विवाह सम्पन्न हो जाने के बाद के संस्कार।
(घ २) मृत्यु संस्कार (च) लोकगीत (१)
विभिन्न संस्कारों से सम्बन्धित लोकगीत (२)
भक्तिपरक या धार्मिक लोकगीत (३)
प्रेम, भावना और देशभक्ति से
सम्बन्धित लोकगीत (४)
वेदना के गीत (५)
ज्ञान से सम्बन्धित लोकगीत (६)
अन्य गीत। (छ)
लोक-कथा (लोक-गाथा)
लोक-गाथा को भी विभिन्न भागों
में बांटकर उनका विशद विवरण दिया
जा सकता है। कुछ प्रभागों का जिक्र नीचे
किया जा रहा है। (१)
अनुस्ठानिक संस्कार में कहे एवं गाए
जाने वाली लोकगाथाएं (२)
नैतिक और शैक्षणिक मूल्यों का बखान
करने वाली लोकगाथाएं (३)
धार्मिक, महाकाव्यों (धर्म ग्रन्थों),
और नैतिक मूल्यों का बखान करने
वाली लोकगाथाएं (४)
अन्य प्रकार की लोकगाथाएं (ज)
तीर्थ क्षेत्र (एवं उनका विस्तृत विवरण) (झ)
कृषि से सम्बन्धित क्रिया-कलाप
(ख)
पोशाक (१)
पुरुष, महिला एवं बच्चों की पोशाक (२)
अनुष्ठानिक वस्र (३)
विधवा एवं पुजारियों के वस्र (४)
वस्र में समय के साथ परिवर्तन (थ)
आभूषण (१)
पुरुष के आभूषण (बच्चे एवं जवान) (२)
महिलाओं के आभूषण (बच्चों, जवान
एवं विधवा के आभूषण) महिला
एवं पुरुषों के आभूषणों का चक्र भी
निम्नलिखित ढ़ंग से तैयार किया जा
सकता है। (ॠ)
महिलाओं
के आभूषण
(ए)
पुरुष
के आभूषण
(द)
भोजन और भोज्य सामग्री : (१)
सामान्य भोजन (२)
उत्सव
विशेष में प्रयुक्त होने वाले भोजन (३)
औषधि
युक्त भोजन (४)
अनुष्ठान
इत्यादि के भोजन आदि। (ध)
ऐसे महिला और पुरुष जो अपनी कृति
के द्वारा जाने जाते हैं। (न)
कला और हस्तकला :
पेर्जिंन्टग, संगीत के वाद्य यंत्र, शास्रीय
संगीत, संगीत के घराना, सुई धागे
से जुड़ी कला, बांस के कला, लोक-नाटक,
लोक-कठपुतली और कठपुतली के कलाकार
आदि। २.
काव्यात्मक और गद्यात्मक सम्पदा (१)
क्षेत्र विशेष के विद्वानों द्वारा
हिन्दी साहित्य में पद्य एवं गद्य की रचना। (२)
क्षेत्रिय
भाषा एवं बोलियों में साहित्य सर्जना। ३.
पुरातात्विक सम्पदा (१)
पुरातत्व (२)
मूर्तिकला (३)
पेर्जिंन्टग (४)
पृथ्वी
की प्राकृतिक छटा (५)
इतिहास ४.
प्राकृतिक सम्पदा (१)
नदियां (२)
पहाड़ (३)
प्राकृतिक
छटा (४)
पार्क,
चिड़ियाघर, जलाशय, जल-प्रपात, राष्ट्रीय
उद्यान आदि। (५)
कोई
अन्य राष्ट्रीय पर्यटन स्थान, क्षेत्र आदि। ५.
विविधा (१)
परम्परागत ज्ञान (२)
अन्य सर्वप्रथम हमने कला केन्द्र के चार प्रकाशित ग्रन्थ (क) हजारी प्रसाद द्विवेदी के पत्र; (ख) राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी द्वारा लिखित ""धरती और बीज''; (ग) नर्मदा प्रसाद गुप्त की रचना ""बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति का इतिहास'' तथा (घ) निर्मल कुमार बसु द्वारा लिखित ""परिव्राजक की डायरी'' को डालना प्रारंभ किया। कला केन्द्र के विद्वानों ने भी अपना लेख आदि देना प्रारंभ किया। श्री वीरेन्द्र बांगरु ने मथुरा की संस्कृति पर एक लेख तथा डॉ. कैलाश कुमार मिश्र ने काशी, मिथिला तथा झारखण्ड आदि पर अनेको लेख दिए। हाल में भारत सरकार द्वारा वाराणसी में आयोजित कॉयल-नेट सदस्यों की संगोष्ठी-सह-कार्यशाला (५ एवं ६ मई, २००३) को संस्था के तकनीकि से जुड़े लोगों ने श्रीमती नीलम गौतम के नेतृत्व में अपने वेब-साईट के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी दी। संस्था के प्रयासों की प्रशंसा की गई। यह भी सुझाव आया कि चित्र, आॅडियों तथा वीडियों की मात्रा में बढ़ोतरी की जाय, जिससे लोग इसके प्रति अधिक से अधिक आकर्षित हों। अभी तक लगभग २३०० पृष्ठ के अलावा चित्र, पेर्जिंन्टग, लोकगीत आदि के आॅडियो, वीडियो, निर्देशिका के प्रारुप आदि से परियोजना को सु-सज्जित कर दिया गया है, जो प्रथम वर्ष के हिसाब से अधिक ही है। संकलित सूचना को संस्था के कम्प्यूटर से जुड़े विशेषज्ञों ने अधिकाधिक स्रोंतो (Multiple Links ) से जोड़ने का विलक्षण कार्य किया है। फलत: अब यह वेब साईट आकर्षक, ज्ञानवर्धक एवं वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरी उतरी है। अप्रैल २००३ से परियोजना सही दिशा में तीव्र गति से चल रही है। अब लगभग सभी क्षेत्रों के लोक-कला से सम्बन्धित लेख एवं चित्र मिल रहे हैं। विद्यापति, मीरा और कबीर पर कार्य चल रहा है। मिथिला (बिहार), काशी, ब्रज, आगरा, मथुरा, कौरवाकी प्रदेश (उत्तर प्रदेश, दिल्ली); संथाल परगना, उत्तरी छोटानागपुर एवं दक्षिणी छोटानागपुर (झारखण्ड); मारवाड, मेवाड, पुष्कर, जयपुर, थार (राजस्थान); कुमाऊ, गढ़वाल (उत्तराखण्ड) में कार्य तीव्र गति से चल रहे हैं। आशा है एक वर्ष तक (अर्थात मई २००४ तक) कला केन्द्र इस परियोजना को सफलतापूर्वक एक निश्चित दिशा प्रदान कर देगा। इस परियोजना के कार्यान्वयन में कला केन्द्र के कम्प्यूटर तकनीकि के लोग श्रीमती नीलम गौतम के निर्देशन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका मल्टी-मिडिया के द्वारा कर रहे हैं। यह सभी लोगों के सहयोग का ही फल है कि परियोजना थोड़े ही समय में सही दिशा में अबाध रुप से चल रही है।
डॉ. कैलाश कुमार
मिश्र सह-अन्वेषक, कॉयल-नेट,
इन्दिरा गांधी
राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली
E-mail kailashkmishra@hotmail.com
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