अतीत
का अद्यतन अस्तित्व-मथुरा वीरेन्द्र बंगरु |
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मथुरा नगरी
जो कि भगवान कृष्ण, महावीर और
बुद्ध जैसे महापुरुषों से अनन्य संबंध
रखती है, इसका एक लंबा, बहुआयामी
और बहुरंगा इतिहास है। मथुरा
हिन्दू, जैन और बौद्ध अनुयायिओं का
तीर्थ स्थल है। यहां कला की विविध
विधाएं और धर्मोपदेश फव्वारें से
निसृत बुदबुदों के समान, भारतीय
संस्कृति में विलीन होते देखे जाते
हैं। मथुरा जो कि अब एक छोटा शहर
है ओर भगवान कृष्ण की जन्मभूमि के
रुप में प्रसिद्ध है, किसी समय में एक अविस्मरणीय
व्यवसायिक केन्द्र और दक्षिण और उत्तर
पथ का संपात स्थल है। मथुरा वासियों
के लिए व्यापार ही मुख्य व्यवसाय था।
कारवां आते-जाते हुए कुछ समय
यहां रुकते थे। अब
नक्शे पर एक
बड़े व्यापारिक केन्द्र के रुप में और
भव्य भवनों और मंदिरों के निर्माण
के कारण यह नगर अपना एक विशेष स्थान
रखता है। कुषाण शासक इसके महत्व
से परिचित थे कि यह एक प्रसिद्ध तीर्थ
स्थान और महत्वपूर्ण व्यावसायिक केन्द्र
है। अत: उन्होंने अपना विजयध्वज
वहीं फहराया और इसको राजनीतिक
गितिविधियों का केन्द्र बना दिया। कुषाणों
ने इसको वैभवशाली भवनों और
मंदिरों से सुसज्जित करके और अन्य
जन-सुविधाओं से इसका महत्व बढ़ाया।
इसके प्रत्यक्ष साक्षी वे प्राचीन खंडहर
और वह कलात्मक कार्य हैं जो आज भी
मथुरा राजकीय संग्रहालय में संग्रहित
है। मथुरा
संसार
के प्राचीन नगरों में से एक है। यह यमुना
के उत्तरी तट पर दिल्ली से १४५ किलो मीटर
और आगरा से ५८ किलो मीटर दूर
है। इसके नाम के
विषय में अनेकों प्रकार से व्याख्या की
जाती है। कुछ लोग इस शब्द की उत्पत्ति
मधु यानि शहद से मानते हैं तो कुछ
लोग दैत्यराज मधु के नाम से।
भाषा विज्ञान के अनुसार ये सभी व्याख्याएं
सत्यापित नहीं है। साहित्यिक संदर्भ
में यह स्थान अनेकों नामों से चर्चित
है जैसे- मधुबन, मधुपत्तन, मधुपुरी। इस व्यापारिक
नगर के लिए यमुना जल-परिवाहक का
कार्य करती है। जैनियों के धार्मिक ग्रन्थ
वृहद कल्प सूत्र में इस विषय में
विस्तृत जानकारी मिलती है। गरुड़ पुराण
के द्वारा इसे मोक्ष दायिनी की प्रतिष्ठा
प्राप्त है। पुराण के अनुसार इसकी स्थापना
भगवान श्रीराम के अनुज शत्रुघ्न के द्वारा
की गई थी। महाभारत काल तक यह
एक प्रसिद्ध और भव्य नगर हो गया था।
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में यह शूरसेन
गणराज्य की राजधानी बनी। शूरसेन
१६ स्वतंत्र प्रभुसत्ता सम्पन्न गणराज्यों में
से एक था। क्योंकि यह एक प्रगतिशील और
सम्पन्न गणराज्य था, इसलिए विदेशी आक्रमणकारियों
का प्रमुख लक्ष्य बना रहा। यह नगर चार
बार पूर्णतया ध्वस्त और लूटा गया।
लूटपाट के पश्चात विदेशी आक्रमणकारियों
ने इस स्थान को पूर्णतया नष्ट और नारकीय
बना कर छोड़ दिया। यह नगर हर बार
उजाड़े जाने के बाद और अधिक उन्नति प्राप्त
करता रहा क्योंकि यहां के नागरिक
उत्साही, कृष्ण-भक्त और मथुरा की भूमि
और उस पर आस्था रखने वाले थे। मथुरा
कला शैली का आरम्भ मौर्य काल से
हुआ जिनके कि प्रत्यक्ष प्रमाण टेराकोटा
और पाषाण मूर्ति शिल्प के रुप में प्राप्त
होते हैं। मौर्य काल में यक्ष उपासना
प्रचलित थी जिस के प्रमाण टेराकोटा
और पाषाण मूर्तियों में स्पष्ट देखे
जा सकते हैं। मथुरा संग्रहालय में
यक्षों की भव्य मूर्तियां पायी जाती
हैं। पारखम से प्राप्त अद्वितीय यक्ष मूर्ति
तात्कालीन मूर्ति कला की श्रेष्ठता या
उत्कर्षता दर्शाती है। कालान्तर में इस
शैली के द्वारा ही वैष्णव, बौद्ध और
जैन मूर्तियों का निर्माण भी किया
गया। कुषाण
काल में मथुरा एक प्रगतिशील और व्यापारिक
दृष्टि से महत्वपूर्ण नगर था। उस समय
यह भारत का एक प्रमुख और सबसे बड़ा
व्यावसायिक केन्द्र या बाजार था। सभी
महत्वपूर्ण रास्ते मथुरा से ही गुजरते
थे। कुषाण जो विदेशी थे और
यहां आकर उन्होंने उत्तर भारतीय मैदानों,
इलाकों पर अपना अधिपत्य जमा लिया।
कालान्तर में उन्हें यह अनुभव हुआ कि
यदि वे यहां शांति और उन्नति के साथ
शासन करना चाहते हैं तो उन्हें
यहां के स्थानीय समर्थन और विश्वास
को जीतना होगा। जिस को ध्यान में
रखते हुए उन्होंने हिन्दू देवी-देवताओं
की मूर्तियों का निर्माण कराया और
भारतीय संस्कृति में घुल-मिल जाने
का प्रयास किया। उन्होंने
अपनी
श्रेष्ठता का डंका पीटने के लिए और प्रजा
के साथ अधिक आत्मीयता दर्शाने के लिए
कुषाण राजाओं की भव्य मूर्तियां बनवायी।
मथुरा से १५ किलो मीटर दूर मट्ट
में यमुना के बायें तट पर विमकादिफ,
कनिष्क और हूविस्क की प्रतिमाएं उत्खनन
में प्राप्त हुयी हैं। विमकादिफ की मूर्ति
पर खुदी इबारत के अनुसार वह स्थान
देवकुल कहा जाता था। ये मूर्तियां
मथुरा शैली की मूर्तियों से भिन्न
हैं और तात्कालिक शासकों के प्रमाण
स्वरुप इनका निर्माण किया गया है।
इनमें से प्रथम प्रतिमा विमकादिफ की
ही है। म में इसके आस-पास अन्य
कोई भी अवशेष नहीं पाये जाते। दिवकुल
अपने तरह का पहला ही संग्रहालय कहा
जा सकता है। मथुरा
कला शैली
जिसको अनेक शाह घरानों का आश्रय प्राप्त
था, ने भारत को प्लास्टिक कला के क्षेत्र
में विशेष योगदान दिया। प्रसिद्ध इतिहास
वेता डॉ० आर. सी. शर्मा के अनुसार
मथुरा में ही सर्वप्रथम बुद्ध की प्रतिमा
का निर्माण हुआ। यहां बुद्ध की प्रतिमा
के चारों ओर के फ्रेम का निर्माण किया
गया और उसी शैली के अनुसार प्रतिमा
बनायी गयी। एक अन्य मत के अनुसार प्रथम
मूर्ति का निर्माण गांधार क्षेत्र में हुआ,
जिस पर कि ग्रीक और रोमन मूर्ति शैली
का प्रभाव स्पष्ट देखा जाता है। डॉ० शर्मा
के अनुसार मूर्ति शिल्प कला सर्वप्रथम
मथुरा में आरम्भ हुयी क्योंकि
वहां यक्ष प्रतिमाएं बनाने की परम्परा
पहले से प्रचलित थी और बौद्ध प्रतिमाओं
में भी हमें वही विशेषताएं प्राप्त
होती है। कलात्मक शैली के आधार पर
पुरानी बौद्ध प्रतिमाएं प्रथम सदी की
कही जाती है।
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नगर के मध्य में कंकालितिमा स्थित हैं जिसका अर्धव्यास लगभग १/२ किलो मीटर है। कनिंघम ने १८५७ के उत्खनन में इस टीले को प्राप्त किया। यहां पर अनेक जैन मूर्तियां पायी गयी। इस स्थान पर प्राप्त एक शिला लेख के अनुसार यहां एक जैन स्तूप था। यहां प्राप्त जैन मूर्तियों को ३ वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
सन् १९७५ में श्री एम. सी. जोशी के द्वारा उत्खनन के समय यहां पर कुषाण कालीन तालाब पाया गया। इस तालाब में पकी हुयी ईंटें लगी है। यहां से प्राप्त एक शिलालेख के अनुसार इसका समय कनिष्क पंचम कहा गया है। अनेक मूर्तियां द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर द्वितीय शताब्दी ईस्वी तक पायी गयी हैं। इनमें से अधिकतर लखनऊ राज्य संग्रहालय में और कुछ मथुरा संग्रहालय में रखी गयी हैं। मथुरा जैन दर्शन का भी एक केन्द्र था। हालांकि इसे शासकीय आश्रय प्राप्त नहीं था परन्तु फिर भी यह बौद्ध और सनातन दर्शनों के साथ-साथ फलता-फूलता रहा और धना और सम्पन्न व्यापारियों के द्वारा जो इस दर्शन के अनुयायी थे सहायता प्राप्त करता रहा। जैनियों के लिए मथुरा एक अत्यधिक पवित्र स्थल है क्योंकि यहां २३वें तीर्थकर नेमीनाथ का जन्म हुआ था जो कि भगवान कृष्ण के भाई कहे जाते थे। भगवान महावीर भी इस जगह आये। भगवान बुद्ध ने भी यहां यात्रा की। उनके उद्गार इस स्थान के विषय में अच्छे नहीं थे। बौद्ध साहित्य में ललित विस्तार में बुद्ध के द्वारा इस संदर्भ में कहा गया है जहां यक्ष बिना किसी रोक-टोक के घूमते हैं। अवगुणों का बखान करते हुए जिनने आगे कहा है कि यहां सड़कों पर अत्याधिक आवारा कुत्ते घूमते हैं जो भिक्षाटन के समय कठिनाई उत्पन्न करते हैं। छठीं शताब्दी में बौद्ध धर्म एक महत्वपूर्ण संप्रदाय हो गया और मथुरा बौद्ध दर्शन और शिक्षा का प्रमुख केन्द्र बन गया। क्योंकि इसको कुषाण शासकों का आश्रय प्राप्त था। ७वीं शताब्दी तक इस नगर से बुद्ध धर्म का लोप हो गया। शुंग और कुषाण काल मथुरा के इतिहास में स्वर्णिम काल कहे जाते हैं। इस काल में यह विख्यात सार्वभौम नगर और एक अव्यधिक व्यरत व्यापारिक स्थल हो गया। मौर्य काल में भी यह एक महत्वपूर्ण स्थान था। कुषाण काल में इसने अपना शासकीय और राजनितिक महत्व खो दिया। तत्पश्चात् यह उस स्थिति को अभी तक प्राप्त नहीं कर सका। मथुरा जो कि किसी समय में एक उन्नतिशील कला का केन्द्र था। बार-बार आक्रमणकारियों के विध्वंसी हाथों में पड़ने के कारण नष्ट होता रहा। और प्रत्येक बार अतीत के ध्वस्त अवशेषों पर नये रुप में उभर कर आया। अतीत का अन्वेषण तथ्यों को उजागर करता है जो कि इतिहास को एक रुप देने के लिए ठोस साक्षय है। मथुरा और उसके आस-पास के क्षेत्र में किये गये उत्खन्न कार्य १००० वर्षों के लम्बें अंतराल के विकास मात्र को दर्शाते हैं। परन्तु यहां उत्खन्न की प्रक्रिया से कोई बहुत अधिक महत्वपूर्ण तथ्य हाथ नहीं आ सके सिवाय कलात्मक अवशेषों के जो कि मेरे विचार से उत्खननकर्ता को मुख्य खोज होनी चाहिए थी। अन्य चीजों पर ध्यान ही नहीं दिया गया जो कि उत्खनन विवरण से स्पष्ट हो जाता है। गोविन्द नगर, मट्ट, कतरामून और कलाली किला में की गई खुदाईयों से यह ज्ञात होता है कि यह सब कलात्मक कलाकृतियों के संग्रहार्थ ही किया गया, न कि लक्ष्य की पूर्ति के लिए प्रक्रिया को सही ढंग से अपनाया गया। (टेराकोटा) मूर्तियों, सिक्कों और पाषाण प्रतिमाओं के अतिरिक्त हमें किसी कविता इत्यादि अन्य वस्तु का उल्लेख प्राप्त नहीं होता, जो कि जनसाधारण की सामान्य दिनचर्या के अभिन्न अंग हैं। राजाओं और राजकीय लोगों के बारे में कहानी गढ लेना तो बहुत आसान है क्योंकि इनके कुछ चिन्ह् पाये जाते हैं परन्तु वे व्यक्ति जिन्होंने पत्थरों पर मूर्तियां उकेरी, के विषय में जानने का कोई प्रयास नहीं किया गया। नि:सन्देह ये कार्य राजाओं और राज्य के आश्रय में ही होता रहा परन्तु विचार, दक्षता और कला वर्षों के लगन और अनुभव के ही परिणाम थे। प्राप्त वस्तुओं को उनके परिवेश से निकालकर संग्रहालयों में सजा देना मात्र ही उद्देश्य की पूर्ति नहीं है। उन्हें उसी अवस्था और स्थान में संरक्षित करने और स्थानीय संग्रहालय बनाने की आवश्यकता है। कलाकृतियों के बारे में प्राथमिक सूचना प्राप्त हो सके और जो उनके संदर्भ व परिवेश से संबधित हों, इस ओर ध्यान दिया जाना भी अत्याआवश्यक है। क्योंकि संग्रहालय गतिविधियां मात्र चारदीवारी तक ही सीमित होकर रह गयी हैं जो कि अपने उद्देश्य पूर्ति में सफल नहीं है। जर्मन पुरातत्ववेता प्रो० एच. हार्टेल द्वारा सोंक में किये गये उत्खनन कार्य से प्रथम सहस्राब्दी ई०पू० से १९वीं शती ई० तक की एक सांस्कृतिक कड़ी का उद्घाटन होता है। हालांकि अभी उत्खनन रिपोर्ट आना शेष है। इस स्थल की कलात्मक संपदा मथुरा संग्रहालय में जमा की गई है और शेष को बोरों में बन्द करके सोंक के पुरातत्व विभाग की आर्कलौजिकल हट नामक स्थान पर रख दिया गया है। जिस तरीके से इन्हें जमा किय गया उससे संबंधित अधिकारियों की लापरवाही का पता लगता है। सोंक उत्खनन जिसके द्वारा मंदिर स्थापत्य कला की प्राचीनतम उदाहरण प्रकाश में आये अब प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर रहा है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का कहना है कि वह प्राप्त वस्तुओं की मौलिकता सीमेंट और कंकरीट से मरम्मत कार्य करके बनाये रखेगा, जो कि उसकी अलौकिक सौंदर्य को दर्शायेगें। एक ईंटों से निर्मित अवशेष अब क्रमिक हसोन्मुखी है। इसी प्रकार कंकालीतिला में कुषाण कालीन तालाब अब कूडा-करकट और जनसाधारण के लिए सुलभ शौचालय के रुप में प्रयोग किया जा रहा है। और आश्चर्य की बात तो यह है कि इसके परिसर में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का दफ्तर भी खुला है। गोविन्द नगर, कतरामून म के स्थान जो कि कलात्मक संपदा से सम्पन्न है अधिकारियों द्वारा उपेक्षित ही छोड़ दिये गये। उपरोक्त तुर्टियों की ओर शीघ्रातिशीघ्र ध्यान देने की आवश्यकता है अन्यथा हमारे पास अपनी भावी पीढ़ी को अपने वैभवपूर्ण अतीत के विषय में बताने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहेगा। मथुरा कलात्मक शैली जो कि अन्य शैलियों पर अपना एक विशिष्ट प्रभाव रखती है वह धार्मिक दृष्टि से भी सनातन, बौद्ध और जनसंप्रदायों के धार्मिक सिंदान्तों को भी प्रर्याप्त रुप से प्रचारित और प्रसारित करती है। मथुरा जैसा स्थान जिसका कि एक शानदार इतिहास है विविध क्षेत्रों में जैसे कि कला, मूर्तिकला और संस्कृति का एक स्पष्ट साक्ष्य है, को प्राथमिकता दिया जाना अत्यधिक आवश्यक है क्योंकि यहां पुराने रीति-रिवाज आज भी विद्यमान हैं जहां की मूर्ति कला का मूर्त शिल्प और अद्वितीय सम्मिश्रण पर्यटकों को अंत: पूत और भाव-विभार कर देता है। ब्रज की संस्कृति जो कि सम्पूर्ण प्रायद्वीपिय मात्र में रची-बसी है वास्तविकता में उसके अनुकूल प्रतिष्ठा और संरक्षण यहां के ऐतिहासिकता अवशेषों को प्राप्त होना ही चाहिए जो कि आज हमारे सम्मुख राज-प्रासाद, किला और प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष जिनके आधार पर कि हम भावी पीढ़ी के सामने अपने अतीत के महान और वैभवशाली होने का डंका पीट सकते हैं
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