धरती
और बीज एक विश्वविद्या |
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धरती और बीज का अध्ययन एक
विश्वविद्या का अध्ययन है, क्योंकि धरती
और बीज का सम्पूर्ण प्रकृति और जीवन
से वैसा ही संबंध है, जैसा जलाशय
की एक लहर का दूसरी लहर से। कालचक्र
की गति के साथ दिन होता हैं, हवा चलती
हैं, नदियाँ बहती हैं, बादल बरसते
हैं ॠतुएँ बदलती हैं और इन्हीं के साथ
धरती में बीज उगता है। बीज से फल
और फल से बीज बनना ही बीज की गति
नहीं है, बीज की गति प्राणों में है, जीवन
में है। पशु,पक्षी,कृषि,सरीसृप और
मनुष्य सभी के जीवन में बीजकी अनिवार्य
गति है। मानव जीवन की भौतिक प्रणाली
(आवास, भोजन तथा जीवन-उपस्कर) में
ही नहीं, उसकी संवेदना और विश्वासों
में उसके सौंदर्यबोध तथा रीतिरिवाजों-अनुष्ठानों
में और उसकी चिन्तन-प्रक्रिया में भी धरती
और सहामित हैं। बीज से वृक्ष होने
की प्रक्रिया से जुड़े हुऐ वे हजारों
शब्द, जो जीवन के विविध संदर्भो को
व्यक्त करते हैं, हमारे सांस्कृतिक-इतिहास
की पूरी कहानी सुना सकते हैं क्योंकि
मनुष्य का जन्म वृक्षों के ही आश्रय में
हुआ था। धरती पर उगते हुए बीज को
तभी से देख रहा है, जब से उसने धरती
पी जन्म लिया था। धरती का बीज उगना
इन अर्थों में साधरण धटना है कि उसे
सभी ने देखा है और बार-बार देखा
है परन्तु उसकी असाधारणता भी यही
है कि उसे सभी ने देखा है, लोक ने
भी देखा है, शास्र ने भी देखा है, पंडित
ने भी देखा है मूढ़ ने भी देखा है, धनी
ने भी देखा है और निर्धन ने भी देखा
है। किसी ने पास से देखा है तो किसी
ने दूर से देखा है, किसी ने प्रत्यक्ष रुप
से देखा है तो किसी ने प्ररोक्षरुप
रुप से देखा है और इस निरन्तर देखने
के कारण ज्ञान की निरन्तर वृद्धि हुई
है। मनुष्य ने जब धरती और बीज के
संबंध मे सोचा तब सारा ब्रह्मांड उसकी
दृष्टि में था और जब उसने वि की उत्पति
और विकास के संबंध मे सोचा तब
धरती और बीज के बिबं उसकी आंखों
में थे। जब उसने प्रकृति के संबंध में
सोचा, तब जीवन के बिंब उसके पास
थे और इसी प्रकार जब जीवन के संबंध
में सोचा तब प्रकृति के बिंब उसके पास
थे। इस प्रकार निरन्तर प्रक्रिया में मनुष्य
के चिन्तन और ज्ञान का विकास हुआ। बीज
और वृक्ष संबंधी
बिंब सम्पूर्ण भारतीय साहित्य, दर्शन
और कला में व्यापक रुप से विधमान
है। योगवासिष्ठ मे देह वृक्ष, संसार
वृक्ष और ध्यान-समाधि वृक्ष का वर्णन
है, रामचरितमानस में भी संसार
वृक्ष का वर्णन है। अथर्ववेद में जीवात्मा
और परमात्मा के स्वरुप की विवेचना
पीपल की डाल पर बैठे दो पक्षियों
के रुप में की गयी है और गीता मे प्रकृति
और पुरुष की व्याख्या क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ
के रुप में हुई है। उपनिषदों ने
वि की उत्पत्ति हिरण्यगर्भ से बतायी
है, यथा सृष्टि के प्रारंभ में सर्वत्र
अंधकार था, उस समय एक विशाल अंड प्रकट
हुआ था जो संपूर्ण प्रजाओं का अविनाशी
बीज था। पुराणों में सृष्टि के रचयिता
ब्रह्मा स्वयं कमल से उत्पन्न होते हैं। बीज सृष्टि का रहस्य है। उसमें
एक से अनेक होने का संकल्प है तथा उसकी
प्रक्रिया में प्रजनन का निरन्तरता है।
यह वही संकलप है, जिसके संबंध
मे उपनिषद कहते हैं, वे अपने अंग से
ही अपने वंश का विस्तार कर लेते
हैं। यहाँ एक महत्वपूर्ण तथ्य उल्लेखनीय
है कि प्रकृति की गतियाँ परस्पर पूरक
हैं। पक्षी पीपल, वट आदि का फल खाता
है और बिना पचा हुआ बीज बीट के
रुप ने जम जाता है। बिसखपरा के पत्ते
और खत्तुआकी फली गाय भैंस खाती
हैं तथा उनके गोबर के साथ वे बीज
एक जगह से चल कर दूसरी जगह पहुचँ
जाते हैं और बिखर जाते है। सेमल
और आक के रुई वाले बीज हवा में
उड़कर कोसों दूर पहुचँ कर अपना वंश-विस्तार
करते हैं। बीज की विविधता का संबंध
मिट्टी की विविधता से और मिट्टी
की विविधता का संबंध पानी की
विविधता से है और इस बात से भी
है कि वहाँ पानी और धरती का संबंध
कैसा है पानी धरती को प्रभावित करता
है और धरती पानी को प्रभावित करती
है तथा दोनों मिल कर बीज को प्रभावित
करते हैं तथा धरती-पानी के संबंध
को मेघ प्रभावित करता है, मेघ को
वायु प्रभावित करती है, वायु को
ॠतु प्रभावित करती है और ॠतु को
सूरज प्रभावित करता है। सूरज कालचक्र
से नियन्त्रित है। धरती मेघ जल से
ही तृप्त होती है इसलिए लोक मनीषा
ने मेघ-जल को ॠतुदान के रुप मे देखा
है और माना है कि मेध और धरती
के बीच पति-पत्नी का संबंध है। बिना
ॠतु के न बीज अंकुरित हो सकता
है और न ही वृक्ष फल दे सकता है।
सूर्य के ताप से जमीन में बीज बढ़ता
है तथा फल और फसल पकती है। इस
प्रकार एक प्राकृतिक घटना का दूसरी प्राकृतिक
घटना के साथ गहरा तारतम्य है कि
लोकमानस ने उसकी पृष्ठभूमि में अज्ञात
सत्ता का आभास पाया है। जिस प्रकार दिन रात से अलग
सही हैं, जाड़ा गर्मी से अलग नहीं है,
आज कल से अलग नहीं है, उसी प्रकार मनुष्य
का जीवन धरती और बीज से अलग नहीं
है और पशु पक्षियों का जीवन मानव
जीवन से अलग नहीं है बीज और फल
मनुष्य का भोजन है, वही अन्न है। अन्न
ही प्राण है और उसी से रस, मांस और
वीर्य बनता है,जिससे मनुष्य अपने
वंश का विस्तार करता है। मानव सभ्यता
का संपूर्ण ठाठ भोजन पर ही आधारित
है, अन्न और उसके उत्पादन पर आधारित
है। सामाजिक-आर्थिक संबंधो का आधार
वही भोजन है। भोजन प्रकृति से
मिलता है,इसलिये प्रकृति से मनुष्य
के संबंध का आधार भी भोजन है। जब
भोजन का स्वरुप बदलता है तब प्रकृति
से मनुष्य का संबंध भी बदल जाता
है और उसी के साथ मनुष्य के जीवन
के प्रति दृष्टिकोण तथा आस्था-विश्वास
भी बदल जाते हैं। यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय
है कि मनुष्य और प्रकृति के संबंधो
का माध्यम प्रौधोगिक है और यदि प्रौधोगिकी
में भी परिवर्तन होगा तो संपूर्ण
परिवेश उससे प्रभावित होगा क्योंकि
एक परिवर्तन दूसरे परिवर्तन को जन्म
देता है, जैसे जलाशय में एक लहर
दूसरी लहर को जन्म देती है। इस
प्रकार परिवर्तन की प्रक्रिया भी नित्य
और निरन्तर है। धरती और बीज के
अध्ययन से परिवर्तन की इस प्रक्रिया को
भी लक्षित किया जा सकता है। मनुष्य के मन पर भी उसके
परिवेश का जो चित्र अंकित होता
है, वह उसकी समग्र अभिव्यक्ति संपदा
(शब्द, उपमा, प्रतीक, कहावत,
मुहावरों आदि) में बिबिंत होता
है और भाषा की संरचना में इन
बिंबों की अनिवार्य भूमिका होती
है। उदाहरण के लिये वृक्ष से पत्ता गिरा।
पत् धातु का अर्थ है गिरना, अत: गिरने
के कारण पत्र संज्ञा बनी। पत्र शब्द से पत्ता,
पत्ती, पन्ही, पात, पतिया शब्द निष्पन्न
हुए। पुराने जमाने में पत्रों पर सन्देश
भी लिखे जाते थे, इसलिये पत्र शब्द
का एक नया अर्थ विकसित हुआ चिट्ठी।
सभ्यता के विकास की गति में पत्र
शब्द और आगे बढ़ा तो प्रपत्र, परिपत्र,
पत्रिका, पत्रा, समाचारपत्र, प्रमाणपत्र, नियुक्तिपत्र,
शपथपत्र और अधिकारपत्र जैसे शब्द नये
संदर्भों के साथ प्रस्तुत होते चले गए
और इसी के साथ ताम्रपत्र, स्वर्णपत्र,
रजतपत्र तथा लोहे की पत्ती आदि बने।
चूँकि पुराने जमाने में पत्तों के बर्तन
भी बनाये जाते थे, इसलिये पत्र से
ही पात्र शब्द बना। पत्तल शब्द भी उसी कुनबे
का है। बाद में पात्र शब्द स्वर्णपात्र, रजतपात्र
के रुप मे. विकसित हुआ। पात्र में आधारत्व
गुण होता है, इसलिये और आगे चल
कर कुपात्र, सुपात्र तथा पात्रता जैसे
बने। ढाक के तीन पात, पत्ता खटकना, पत्ता
सींचना, पल्लवग्राही ज्ञान, पत्तातक न
हिलना, पीले पत्ते की तरह निर्जीव
होना, पीपल के पत्ते की तरह कांपना
और इमली की पत्ती पर मौज करना
इत्यादि मुहावरों में पत्तों के कुलगोत्रो
की कहानी है। ऐसी ही कहानी तिल
शब्द के परिवार की है। जहाँ बांस
का वृक्ष लग जाता है, वहां ऐक से अनेक
वृक्ष अपने आप पैदा होते चले जाते
है बांस को काटा जाता है पर काटने
से वह और अधिक उलहता है। इस वृद्धि
को देख कर ही लोक मानस ने अपनी
संतति-परंपरा के लिये वंश शब्द
ग्रहण किया। उसके बाद इस अभिप्राय से
जुङ्े वंशवृक्ष, वंशानुगत, वंशज, आनुवंशिकता
जैसे शब्दों का विकास हुआ। फलना,
फुलना, खिलना, हरी होना, कुम्हलाना,
गदराना मँगराना, पकना, उगना, महकना,
सूखना और छितरना आदि वानस्पतिक
प्रक्रिया हैं और इन सभी क्रियाओं का
प्रयोग मानवी-संदर्भों में भी प्रचलित
है। बीज, अंकुर, ऐखुआ, जङ्, मूल, शाखा,
दाना, सींक, काँटा, तिनका, फाँस, ठूँठ,
स्कंध, पर्व, कांड, खेत जैसे हजारों
वानस्पतिक शब्द लोकजीवन में अनन्य
संदर्भों में कहे-सुने जाते हैं। जिस प्रकार भाषा के विकास
में बिंबों की महत्त्वपूर्ण भूमिका
है, उसी प्रकार चिन्तन-प्रणाली का विकास
भी बिंबों के माध्यमसे होता है। पर्वत
की ऊँचाई पर वृक्षों को सींचने वाला
कौन है, पर लोकविश्वास में यह
राम का प्रताप ही है कि वे वृक्ष
हरे-भरे दिखाई देते हैं। जब सारे
वृक्ष-वनस्पति गर्मी के कारण झुलस जाते
है,उस भयंकर लू और ताप में आक-जवास
फलते और फूलते हैं। एक ही कूँड में
दो सरकंडे उपजे। किसान ने उनमें से
एक सरकंडे को अपने छप्पर में लगाया
और दूसरे सरकंडे को छीलकर कलम
बना दी, एक कूँड में
दो सरकंडे अपने-अपने भाग। एक छील कें
कलम बनायी एक छाई छप्पर छान। बीज
और वृक्ष के संबंध को
देखकर ही लोकमानस ने सूक्ष्म से
स्थूल की गति को पहचाना तथा कारण
और कार्य के संबंध की जाना। धरती
और बीज के बिंब ने उसे सृष्टि की उत्पत्ति
और विकास की पहेली का उत्तर दिया।
मनुष्य की उत्पत्ति भी बीज से ही होती
है, बाप शब्द बपन् (बोना) धातु से
निष्पन्न है। बीज
और फल के संबंध को
देखकर ही लोकमानस ने जहाँ जीवन
की निरन्तरता देखी, वहीं उसके आधार
पर उसने कर्मफल के सिद्धान्त की रचना
की, बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ ते
खाय। लोकजीवन ने जाना है कि ऐक
ही जल मिट्टी और बीज के संयोग
से नीम मे कडवा और आम, ईख तथा
अंगूर में मीठा बन जाता है, मिर्च में
वही तीस हो जाता है। वनस्पति की प्रकृति
को देख कर ही उसने आनुवंशिकता के
तत्त्व को पहचाना, नीम न मीठे होंय,
सींच गुड़छी ते अथवा बूढ़ी होकर भी
इमली खटाई नहीं छोड़ती। लोक-परंपरा
में शरीर को वृक्ष के रुप में देखा गया
है, तो लता को पुरुष पर आश्रित
रहने वाली स्री के रुप में। मनुष्य का
जीवन फूल की तरह है, जो धूप पड़ते
ही कुम्हला जाता है। जीवन में सुख
के साथ दुख लगा हुआ है, जो फूलता
है वह कुम्हलाता भी है। एक दिन
फल लगते हैं और एक दिन पतझड़ भी
होता है। यह संसार काँटो की झाड़ी
है। संसार के संबंध उसी प्रकार के
है, जैसे वृक्ष पर पत्ते उगते हैं, झड़ते
हैं और हवा उन्हें दूर उड़ा ले जाती
है। इस प्रकार लोकमानस की पूरी
चिन्तन-प्रक्रिया वानस्पतिक बिंबों से ओत-प्रोत
है। पीपल,तुलसी,वट जैसे वृक्ष
देव-वृक्ष हैं और लोक-जीवन में उनकी
पूजा-मान्यता प्रचलित है। वृक्ष पूजा का
पूरा विधि-विधान है और उसके अध्ययन
से जातीय स्मृतियों को पढ़ा जा सकता
है। इस प्रकार लोकपरंपरा में धरती और बीज का अध्ययन करते हुए हम देखते हैं कि एक ओर मानव की संपूर्ण सभ्यता का उदय और विकास धरती और बीज की प्रक्रिया संपूर्ण प्रकृति से जुड़ा है, वहीं दूसरी ओर धरती-बीज की प्रक्रिया संपूर्ण प्रकृति की गति से जुड़ी हुई है, मानव-बुद्धि ने प्रौद्योगिकी का विकास करके अनंत प्रकृति के बीच उसी प्रकार के एक कृत्रिम परिवेश का निर्माण किया है, जिस प्रकार मकड़ी अपने जाला बुनती है या बया घोंसला बनाती है। अन्तत: यह कृत्रिम परिवेश भी प्रकृति का ही रचना है, क्योंकि मनुष्य की वे प्रकृत्तियां (भूख, रक्षा, रति, जिज्ञासा, सिसृश्रा आदि) जो इसकी रचना करती है, मूल रुप से प्राकृतिक हैं। स्वंय मनुष्य उसी प्रकार प्रकृति की रचना है, जिस प्रकार वृक्ष-वनस्पति। राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी |