द्वेताद्वेत
वेदान्त सिद्धान्त
सातकड़ि मुखोपाध्याय |
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।। श्री:।। याऽऽदिक्षान्तविनिर्मिताङ्गविभवा
यस्या: प्रसन्नेक्षण- प्रान्तालोकनवत्र्मग: कविवर:
संजायते तत्क्षणात् । या वीणा वरपुस्तकाक्षविलसद्दोर्भिश्वाचतुर्भिर्युता सा वाणी हृदये मुखे वसतु
मे सर्वार्थसन्दर्शिनी ।।१।। विश्वं दपंणदृश्यमाननगरीतुल्यं
निजान्तर्गतं पश्यन्नात्मनि मायया
बहिरिवोद्भूतं यथा निद्रया । य: साक्षीकुरुते प्रबोधसमये
स्वात्मानमेवाद्वयं तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम
इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।२।। श्रीमद्वयासपयोनिधिर्निधिरसौ
सत्सूक्तिर्पा ।। स्फुरन्-मुक्तानामनवद्यहृद्यविपुलप्रद्योतिविद्यामणि:। शान्ति: क्षान्तिधृती दयेति
सरितामेकान्तविश्रान्तिभू- र्भूयान्न: सततं मुनीन्द्रमकरश्रेणीश्रय:
श्रेयसे ।।३।
यास
की रचनाओं की परंपरा भारतीय संस्कृति
के लोकपक्ष एवं दोनों को समृद्ध करती
आयी। वस्तुत: भारतीय चिन्तन व्यास
की रचनायों से सब से अधिक समृद्ध
हुआ है । बादरायण व्यास का ब्रह्मसूत्र
और उस में प्रतिपादित वेदान्त दर्शन
आज भी भारतीय चिन्तन एवं जीवन को
नियन्त्रित करता है। वेदान्त सिर्फ एक
उच्चकोटिका दर्शन ही नहीं वह एक सशक्त
एवं जीवन्त जीवनदर्शन भी है। सारा
भारतीय चिन्तन वेदान्त व्याख्याओं से
ओतप्रोत रुप में प्रभावित है। वेदान्त
दर्शन की व्याख्याओं से कई एक धार्मिक
एवं दार्शनिक संप्रदाय पुष्ट तथा प्रतिष्ठित
हुए है। उन संप्रदायों मे द्वेैताद्वेैत वेदान्त
संप्रदाय एक महत्त्वपूर्ण रखता है। द्वेैताद्वेैत
वेदान्त संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य के
रुप में श्रीमत् निम्बार्काचार्य माने
जाते है। आचार्य के निम्बादित्य एवं नियमानन्द
नाम सुने जाते है। श्रीमत् निम्बार्काचार्य
के द्वारा विरचित ब्रह्मसूत्रभाष्य का नाम
है। वेदान्तपारिजात सौरभ। इनका
सिद्धान्त द्वेैताद्वेैत और भेदाभेद कहलाता
है। वेदान्तपारिजातसौरभ अत्यन्त संक्षिप्त
ग्रन्थ है। किन्तु आचार्यके शिष्य श्रीनिवासाचार्य
रचित भाष्य वेदान्तकौस्तुभ अधिक
विस्तृत है। इन दोनों को मिला कर
हम इस दर्शन संप्रदाय के दार्शनिक
सिद्धान्तों का एक पूरा चित्र पाते है। श्रीनिम्बार्काचार्य
प्रवर्तित संप्रदाय एक वैष्णव सम्प्रदाय
है। श्रीकृष्ण एवं श्रीराधा इस संप्रदाय
के उपास्य हैं। रागानुगा भक्ति इस संप्रदाय
का साधन है। निम्बार्क
के द्वारा प्रवर्तित संप्रदाय के कई नाम
हैं, जैसे सन सम्प्रदाय, सनक संप्रदाय,
चतु:-सन संप्रदाय या हंस संप्रदाय।
परंपरा मे कहा जाता है। कि ब्रह्मा के
मानस पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन एवं
सनत्कुमार इस संप्रदाय के मूल आचार्य
हैं। स्वयं श्रीभगवान् ने हंस का रुप
लेकर उन चार ॠषियों को तत्त्व का उपदेश
किया था-- इस लिए इस संप्रदाय को
हंस संप्रदाय भी कहते हैं। हंस रुप
लेकर पृथ्वी पर अवतीर्ण भगवान् नारायण
से श्रीनिम्बार्काचार्य तक गुरुपरंपरा
विष्णुयामल तन्त्र में इस प्रकार वर्णित
है -- नारायणमुखाम्बुजान्मन्त्रस्त्वष्टादशक्षर:। आविर्भूत: कुमारैस्तु गृहीत्वा
नारदाय वै ।। उपदिष्ट: स्वशिष्याय निम्बार्काय
च तेन तु। अर्थात्
हंस रुपी नारायण के शिष्य सनक, सनन्दन,
सनातन एवं सनत्कुमार, उनके शिष्य
हैं देवर्षि नारद एवं नारद के
शिष्य श्रीनिम्बार्काचार्य। इसके अतिरिक्त
श्री निम्बार्काचार्य की गुरुपरंपरा,
भविष्य, पद्म, वामन आदि पुराणों
में वर्णित है। स्वयं श्रीनिम्बार्क, ब्रह्मसूत्र १म अध्याय ३य पाद के ८वें सूत्र के भाष्य में अपनी गुरुपरंपरा के संबंध में कहते है परमाचार्यै: श्रीकुमारैरस्मद्गुरवे श्रीमन्नारदाय उपदिष्टो भूमात्वेव विजिज्ञासितव्य इति।। खेद
का विषय यह है कि हम ऐतिहासिक
दृष्टि से निम्बार्काचार्य के आविर्भावकाल,
जन्मस्थान आदि के विषय में अधिक नहीं
जानते हैं। आचार्य के अनुगामी उन्हें
बहु प्राचीन मानते हैं। किन्तु रामकृष्ण
भण्डारकर, राजेन्द्रलाल मित्र, डॉ० रमा
चौधरी आदि विद्वान एवं विदुषी उन्हें
रामानुज, म एवं वल्लभाचार्य के
बाद अवतीर्ण मानते हैं। विपरीत पक्ष
में जॉर्ज ग्रियरसन एवं मोनियर
विलियम्स का कहना है कि वैष्नव सम्प्रदायों
में निम्बार्क संप्रदाय ही प्राचीनतम
है। प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० अमरप्रसाद भट्टाचार्य
का मत है।कि श्री निम्बार्काचार्य एवं
उनके साक्षात् शिष्य श्री निवासाचार्य
बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के बाद एवं
अद्वेैताचार्य भगवान् शंकराचार्य के
पूर्व आविर्भूत हुए थे। उस हिसाब से
उनका आविर्भाव ईस्वी ६वीं एवं ७वीं सदी
के बीच होना चाहिए। संप्रदाय के अनुसार
श्रीनिम्बार्काचार्य भगवान् विष्णु के
सुदर्शन चक्र के अवतार थे। उनकी माता
की नाम जयन्ती और पिता का नाम अरुण
ॠषि था। उनके जन्मस्थान के संबंध में
भी मतभेद है। वेदान्तरत्नमञ्जूषा के
अनुसार आचार्य का जन्म आन्ध्र या तैलिंग
देश में गोदावरी नदी के तट पर सुर्दशनआश्रम
या अरुणआश्रम में हुआ। आचार्यचरित ग्रन्थ
के अनुसार आचार्य का जन्म यमुना नदी
के किनारे वृन्दावन में हुआ। औदुम्बरसंहिता
कहती है कि उनका जन्म गोवर्धन के निकट
निम्बग्राम में हुआ था। सुनिश्विाचत
प्रणाम के अभाव से हम निश्विाचतरुप से
हम कुछ कह नहीं सकते। किन्तु आन्ध्र प्रदेश
में उनका जनम हुआ यही मत अधिक जाँचता
है संप्रदाय के अनुसार उनका जन्म कार्तिक
पूर्णिमा में हुआ था। अब
हम श्रीमत् निम्बार्काचार्य के द्वारा
प्रवर्तित द्वेैताद्वेैत वेदान्त के मूल सिद्धान्तों
का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे। इस
चर्चा का आधार है -- आचार्य का संक्षिप्त
ब्रह्मसूत्र भाष्य वेदान्त-पारिजात सौरभ
एवं उनके शिष्य श्रीनिवासाचार्य का
विस्तृत भाष्य वेदान्त कौस्तुभ। ब्रह्मसूत्र
की व्याख्यापरंपरा में निम्बार्क सम्प्रदाय
के सिद्धान्त को द्वेैताद्वेैत कहते हैं
यह सिद्धान्त एक प्रकार का भेदाभादवाद
ही है। इस
सिद्धान्त के अनुसार षडङ्गवेद एवं धर्ममीमांसा
यानी पूर्वमीमांसा के अध्ययन के उपरान्त,
गुरुभक्त, वैराग्यवान्, भगवत्कृपाकाङ्क्षी
मुमुक्षु वेदान्त श्रवण के अधिकारी
होते हैं (द्रष्टव्य ब्रह्मसूत्र १-१-१ पर
भाष्य)। निम्बार्क
के सिद्धान्त अनेक विषयों पर रामानुज
के सिद्धान्तों से मिलते जुलते हैं। निम्बार्क
मत त्रित्ववादी है। इन की तत्त्व-समीक्षा
में ब्रह्म, चित् एवं अचित् इन तीन तत्त्वों
का चर्चा आती है। निम्बार्क
के सिद्धान्त में ब्रह्म कृष्ण नाम से उल्लिखित
होते हैं। इस मत में ब्रह्म सजातीय एवं
विजातीय भेद से रहित होने पर
भी स्वगत भेदवान् है -- अर्थात् जीव
जगत् उसका स्वगत भेद है। इसीलिए ब्रह्म
निर्विशेष नहीं है बल्कि सविशेष
है, वह निर्गुण नहीं बल्कि सगुण है।
वह भीषण एवं मधुर दोनों गुणों का
आकर या आधार है। सर्वशक्तिमत्त्व, शासकत्व
आदि उसके भीषणगुण हैं और सौन्दर्य,
आनन्द, करुणा आदि उसके मधुर गुण हैं।
ब्रह्म निष्क्रिय अर्थात् क्रियाहीन नहीं
है -- क्योंकि वह जगत् का स्त्रष्टा, पालक
एवं संहारक है। वह जगत् का निमित्त
कारण एवं उपादान कारण भी है -- इसलिए
सारा जीव जगत् उसीका परिणाम है।
इन सभी सिद्धान्तों में निम्बार्क मत
रामानुज मत के अनुरुप है। चित
का अर्थ है चेतन पदार्थ अर्थात जीव। जीव
के ये स्वरुप बताये गये हैं -- जीव ज्ञानस्वरुप
एवं ज्ञाता, कर्ता, भोक्ता, अणुपरिणाम,
संख्या में अनेक, अनन्त, एवं प्रकार भेद
से बद्ध मुक्त दोनों हो सकते हैं। निम्बार्क
के मतानुसार अचित् या जड़ तीन प्रकार
के होते हैं- प्राकृत, अप्राकृत, एवं काल।
प्रकृति से महदादि क्रम से संसार की
सृष्टि होती है। प्रकृति से उत्पन्न होने
के कारण महदादि उनसे उत्पन्न दृश्यमान
संसार प्राकृत कहलाता है। अचित् में
अप्राकृत एक प्रकार शुद्धतत्त्व है -- यह अप्राकृत
अचित्, ब्रह्म तथा मुक्तात्माओं के दिव्य शरीरों
के और ब्रह्मलोक में पाये जाने वाले
द्रव्यों के उपादान कारण है। काल अचित्
होने पर भी अंशविहीन एवं विभु अर्थात्
सर्वव्यापी अपरिणामी है अर्थात् उसका
विभाग नहीं किया जा सकता एवं वह
अपरिणामी एवं अविनाशी है। यहाँ तक
निम्बार्क एवं रामानुज मत में विशेष
भिन्नता नहीं है। अब
प्रश्न उठता है ब्रह्म के साथ जीव समुदाय
का क्या संबंध है और यहीं उक्त दोनों
सम्प्रदायों में मतभेद होता है। निम्बार्क
के अनुसार ब्रह्म एवं जीवजगत् स्वरुप
में भिन्नाभिन्न हैं। बात कुछ कठिन
सी लगी। भिन्नाभिन्न का अर्थ है भिन्न भी
है अभिन्न भी। ब्रह्म कारण है तो जीवजगत्
है कार्य, ब्रह्म शक्तिमान, जीवजगत् शक्ति,
ब्रह्म अंशी तो जीव जगत् अंशमात्र है। अब
कार्य एवं कारण, शक्तिमान एवं शक्ति, अंशी
एवं अंश परस्पर अभिन्न भी है- भिन्न भी।
एक उदाहरण यह है - - मृत्पिण्ड अर्थात
मिट्टी से एक घट बना हुआ है। मिट्टी
कारण है और घट कार्य। घट मिट्टी
का बना हुआ है। इसलिए उपादन की दृष्टि
से दोनों अभिन्न है- एक ही है। किन्तु धट
का एक भिन्न स्वरुप है-- जो मिट्टी में
नहीं है। घट लाओ कहने पर कोई
मिट्टी नहीं लाता। अत: धट एवं मिट्टी
स्वरुप से परस्पर भिन्न भी है अभिन्न
भी। ये दोनों धर्म से भी भिन्नाभिन्न
हैं मिट्टी के धट की एक विशिष्ट आकृति
है जो उसका धर्म है -- उसका कार्य
है पानी लाना। मिट्टी का न तो वह
धर्म या आकृति है और न वह कार्य।
फिर भी दोनों अभिन्न भी है क्योंकि
मिट्टी का जो धर्म हैं- वह दोनों
में भी विद्यमान है। मिट्टी एक ही पदार्थ
होने से घट से अभिन्न तो हुआ किन्तु
उससे धट के अतिरिक्त द्रव्य भी बनता
है अत: वह धट से भिन्न भी है । इसी
प्रकार ब्रह्म एवं जीवजगत् स्वरुप से एवं
धर्म सें भिन्नाभिन्न हैं। ब्रह्म कारण है और
जीव एवं जगत् उसी का कार्य है। अत:
कार्यकारण रुप में, स्वरुप में ब्रह्म एवं
जीवजगत् अभिन्न है। फिर भी ब्रह्म का ब्रह्मत्व,
जीव का जीवत्व एवं जगत् का जगत्त्व परस्पर
भिन्न हैं -- एक नहीं है। ब्रह्म तो ब्रह्म ही
है वह जीव या जगत् नहीं है। उसी
प्रकार ब्रह्म एवं जीवजगत् धर्म से भी
भिन्न एवं अभिन्न हैं। जीव एवं जगत् ब्रह्म
की तरह सत्य एवं नित्य हैं। जीव ब्रह्म की
तरह चेतन एवं आनन्दमय है। किन्तु ब्रह्म
के सभी गुण जीव या जगत् में नहीं
है। जीव सृष्टिकर्ता नहीं होते, उसमें
विभुत्व अर्थात् सर्वव्यापित्व या अविनाशित्व
नहीं है। जीवों के अनेक गुण जैसे अनुत्व
(क्षुद्रत्व), सकाम कर्म, फलभोग और जगत्
के जड़त्व ब्रह्म में नहीं होते। अत: ब्रह्म
एवं जीव-जगत् परस्पर भिन्न भी हैं। अत:
इस दर्शन के अनुसार भेद एवं अभेद,
भिन्नता एवं अभिन्नता, समान रुप से सत्य,
नित्य, स्वाभाविक एवं अविरुद्ध है। इसीलिए
निम्बार्क के सिद्धान्त को स्वाभाविक
भेदाभेदवाद कहा जाता है। रामानुज
के विशिष्टाद्वेैत से इस सिद्धान्त का अन्तर
यह है कि रामानुज के अनुसार भेद
एवं अभेद दोनों के सत्य होने के बावजूद
भी दोनों सामानरुप से सत्य नहीं
है- - भेद की अपेक्षा अभेद ही अधिक सत्य
है। जीवजगत् ब्रह्म से धर्मत: भिन्न
होने पर भी स्वरुपत: अभिन्न है। मुक्ति या मोक्ष निम्बार्क
के सिद्धान्त के अनुसार मुक्ति या मोक्ष
के दो अङ्ग हैं - - ब्रह्मस्वरुप लाभ एवं
आत्मस्वरुप लाभ। मुमुक्षु अर्थात् मुक्ति
पाने की इच्छा रखने वाले, जब अपनी
साधना से अधिकारी बनते हैं तो ब्रह्म
की कृपा से उनके प्रारब्ध कर्म को छोड़
कर अन्यान्य सभी कर्मों के फल नि:शेष
रुप से नष्ट हो जाते हैं- - मानों जल
जाते हैं। प्रारब्ध कर्म के फल नष्ट नहीं
होते हैं,उनके फलस्वरुप जब तक शरीर
रहता है मुमुक्षु को संसार में
ही रहना पड़ता है। शरीरपात होने
के उपरान्त वह देवयान मार्ग से ब्रह्मलोक
पहुँचते हैं एवं ब्रह्म का साक्षात्कार करते
हैं अत: निम्बार्क जीवन्मुक्ति स्वीकार
नहीं करते हैं। यहाँ ब्रह्मस्वरुप लाभ
का अर्थ यह नहीं है कि ब्रह्म के साथ एक
या अभिन्न हो जाना, बल्कि ब्रह्मसायुज्य
लाभ अर्थात् स्वरुपत: एवं धर्मत:
ब्रह्म के सदृश, ब्रह्म जैसा होना है। दूसरी
बात यह कि जीव आत्मस्वरुप को भी प्राप्त
करता है। मुक्ति में ही जीवत्व का संपूर्ण
विकास होता है। मुक्ति में जीव आत्मस्वरुप
का विनाश नहीं होता है बल्कि उसके
यथार्थ स्वरुप का एवं गुणों का चरम
उत्कर्ष होता है। मुक्ति की अवस्था में जीव
के अपने स्वरुप एवं धर्म के सम्पूर्ण
विकास होते हैं इसलिए वह ब्रह्म के
तुल्य होते हैं स्वयं ब्रह्म नहीं। छन्दोग्य
श्रुति कहती है कि धर्मत: आत्मा क्षुधा,
तृष्णा, जरा, शोक और पाप से रहित
एवं सत्यकाम एवं सत्यसंकल्प होती
है। निम्बार्क के अनुसार मुक्ति की अवस्था
में ही आत्मा को ही इन गुणों की उपलब्धि
होती है, सामान्य अवस्था में नहीं। मुक्ति
के पूर्व की स्थिति में जीव के ज्ञातृत्व,
कर्तृव्य एवं भोक्तृत्व तो रहते हैं
किन्तु बड़े ही सीमितरुप से रहते
हैं शरीर एवं मन की शक्ति अल्प होने
के कारण ज्ञान रहते हुए भी जीव अल्पज्ञ
एवं भ्रान्त होता है, कर्ता होने पर
भी सत्यसंकल्प एवं कामाचार (जो भी
इच्छा हो करें) नहीं होता और भोक्ता
होने पर भी संपूर्णतया आनन्दमय
नहीं हो सकता है। किन्तु मुक्ति की अवस्था
में जीव ब्रह्म ही की तरह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्
एवं आनन्दमय होता है। ब्रह्म ही की तरह
शुद्ध चेतन स्वरुप एवं कल्याण गुणों से
युक्त होता है। ब्रह्म से मात्र भेद इतना
ही रहता है कि वह ब्रह्म की तरह
विभु अर्थात् सर्वयापी नहीं होता एवं
सृष्टि की शक्ति नहीं रखता। मुक्त जीव
भी अणु, सृष्टिशक्ति हीन एवं ब्रह्म के अधीन
रहता हैं। साधनापक्ष
में निम्बार्क निष्काम कर्म पर बहुत
अधिक महत्त्व देतें हैं बिना किसी कामना
से शास्र के अनुसार वर्णाश्रम धर्म के
ठीक ठीक पालन से चित्त की शुद्धि होती
है एवं चित्त-शुद्धि ज्ञान की उत्पत्ति का कारण
बनती है। निम्बार्क चार साधनों का उल्लेख
करते हैं, वे हैं ज्ञान, भक्ति और ध्यान
प्रपत्ति एवं गुरुपसत्ति। १. ब्रह्मज्ञान तथा आत्मज्ञान,
मुक्ति का उपाय है। ज्ञान के लिए संन्यास
लेना अनिवार्य नहीं है, सदाचारी गृहस्थ
भी ज्ञानलाभ कर सकता है। २. ज्ञान की तरह
ध्यान भी साक्षात् रुप से मोक्ष का उपाय
है गंभीर भगवत्प्रीति ही भक्ति है। भक्ति
दो प्रकार की है- - परा एवं अपरा। भक्ति
के सिद्धान्त में निम्बार्क एवं रामानुज
में अधिक मतभेद नहीं है। रामानुज
की भक्ति श्रद्धामूलक है अर्थात् ऐश्वर्यप्रधान
और निम्बार्क की भक्ति प्रीतिमूलक
है अर्थात् माधुर्यप्रधान है। ज्ञानमूलक
भक्ति परा एवं कर्ममूलक भक्ति अपरा कहलाती
है। ३. ब्रह्म के प्रति संपूर्ण आत्मसमपंण
को प्रपत्ति कहते हैं। ४. गुरु के प्रति आत्म
समपंण को गुरुपसत्ति कहते हैं। अगर
मुमुक्षु गुरु के प्रति आत्मसमपंण करते
हैं तो गुरु ही शिष्य को ब्रह्म के पास
के पहुँचाते हैं। गुरुपसत्ति साक्षात्
रुपसे मुक्ति का उपाय है। ज्ञान एवं ध्यान
के लिए उच्चवर्ण के साधक ही अधिकारी
हैं किन्तु प्रपत्ति एवं गुरुपसत्ति के लिए
सभी वर्ण अधिकारी हैं।
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