जनपद
सम्पदा
प्रोफेसर बैद्यनाथ सरस्वती |
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नमस्कार । आज ३० जुलाई, १९९५ हमारे लिए शुभ दिन है, खुशियों का दिन । आपके लिए भी यह खुशी का दिन है क्योंकि आप हमसे प्रथक् नहीं हैं । आज जनपद सम्पदा का जन्म दिन है, अर्थात आत्म समीक्षा का दिन । एक वर्ष पूर्व, आज ही के दिन, और इसी स्थान पर मैनें आपसे इसके उदेश्यों एवं अध्ययन प्रणालियों की चर्चा की थी । आज मैं आपको इसके विविध कार्यों से परिचित कराना चाहूँगा । जनपद सम्पदा में अनुसंधान के दो प्रभाग हैं । एक है क्षेत्रसम्पदा और दूसरा लोकपरम्परा । ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । क्षेत्रसम्पदा का कार्य अपेक्षाकृत अधिक जटिल है । इसमें दो दीर्घकालीन योजनाएं चल रही हैं - ब्रज और बृहदीश्वर के जीवन्त मन्दिर संस्कृति का अध्ययन । मन्दिर को अध्ययन की इकाई इसलिए माना गया, क्योंकि यहाँ शास्र और प्रयोग एक दूसरे से मिलते हैं । अजायबघर से सर्वथा विपरीत, इन क्षेत्रों में हमारी सांस्कृतिक सम्पदा जीवन्त और सुरक्षित भी है । इन दोनो परियोजनाओं में हमनें अब तक जो कार्य किये हैं उनमें उल्लेखनीय हैं सन्दर्भिका, मन्दिर वास्तुशास्र का चित्रांकन, कला एवं पूजा पद्धति का अध्ययन, मन्दिर से सम्बन्धित पुरालेखों का संग्रह आदि । लोकपरम्परा का कार्य विविधपूर्ण है । इसमें मौखिक संस्कृति, लोकदर्शन, एवं प्रयोग की प्रधानता है । इसकी अब तक पाँच कड़ी बन पाई हैं । पहली कड़ी है मौखिक संस्कृति की मूल अवधारणा । इसमें बीज को प्रमुख विषय बनाया गया है । इसके उल्लेखनीय कार्य हैं - ब्रज क्षेत्र के कृषकों की बीज और धरती की अवधारणा, संथाल जनजाति में बीज और गर्भ की अवधारणा । इस सन्धर्भ में यह कहना अपेक्षित है कि शास्रीय परम्परा में बीज बिन्दु और शून्य-गणित भारतीय विश्वबोध का महत्वपूर्ण रुपक है । इसी शृंखला में हिमाचल प्रदेश की गद्दी जाति की दिक् और काल की अवधारणा का अध्ययन चल रहा है । इन अवधारणाओं को ढूंढते हुए कई सुखद परिणाम मिले हैं । आशा है इस कार्य में विश्व मानव विज्ञान एवं समाजशास्र में भारतीय दृष्टि को महत्वपूर्ण स्थान मिलेगा । दूसरी कड़ी है प्राकृतिक पर्यावरण । इसके उल्लेखनीय कार्य हैं - हिन्द महासागर के मछुआरे, लक्षद्वीप के निवासी, राजस्थान की मरुभूमि के गाँव, गढ़वाल हिमालय के यायावार पशुपालक, कर्नाटक के उष्णकटिबन्धीय वन । हिमालय के गढ़वाल और कुमाऊँ क्षेत्र, संथाल परगना और महाराष्ट्र के वन प्रदेश का परिस्थितिकीय अध्ययन का कार्य चल रहा है । इसके अतिरिक्त कर्नाटक के विश्वकर्मा, और बंगाल के संथाल जनजाति में पंचमहाभूत की अवधारणा पर कार्य हो चुका है । तीसरी कड़ी है समुदाय विशेष का गहन अध्ययन । इसके लिए हमने बिहार, बंगाल और उड़ीसा की संथाल जनजाति को चुना है । इनके जिन पक्षों को अध्ययन का विषय बनाया गया है उनमें उल्लेखनीय है - संगीत, औषधी, पशुपक्षियों की ध्वनि, लिपी एवं भाषा, ध्वनि प्रतीक, बांस का वनस्पति शास्र और बदलाव आन्दोलन । चौथी कड़ी है लोकजीवन का व्यापक स्वरुप । इसके विविध विषय हैं - लद्दाख के यायावार बुनकर, मणिपुर एवं उड़ीसा की सामरिक कला, मंदाकिनी घाटी में धार्मिक नृत्य, मणिपुर के मैतेई की धार्मिक चित्रकला, नागालैण्ड का जनजातीय औषधि ज्ञान, गढ़वाल के लोक-नाट्य, गढ़वाली लोक सौन्दर्य का भाषाशास्रीय अध्ययन, महाराष्ट्र के पशुपालकों में प्रस्तर की वीरप्रतिमायें, बंगाल के जादूपाट और उसके गीत, धान और केले की बंग संस्कृति, उड़ीसा की भुइयाँ जनजाति की जीवन शैली, और केरल, मध्य-प्रदेश एवं कुमाऊँ हिमालय की प्राचीन गुफाकला । पाँचवी कड़ी है शिक्षा और संस्कृति । इस वर्ष यूनेस्को परियोजना के अन्तर्गत बालशिक्षा में नये प्रयोग का अध्ययन किया जा रहा है । परन्तु प्रारम्भ से ही बालजगत् कार्यक्रम में हम कठपुतली कला के माध्यम से बालशिक्षा का प्रयोगात्मक कार्य करते आ रहे हैं । इस वर्ष गाँधी जी के १२५ वें जन्मवर्ष के अवसर पर हमने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में गाँधी - बापूजी के जीवन चरित्र को कठपुतली कला के माध्यम से प्रचारित - प्रसारित करने का कार्यक्रम बनाया है । स्मरण रहे कि इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र ने गाँधीजी के जीवन चरित्र को कठपुतली कला से जोड़ने का जो ऐतिहासिक काम किया है यह अपने आप में एक अभिनव प्रयास है । जनपद संपदा के अनुसंधान कार्य की समीक्षा करते समय यह कहना उचित और आवश्यक है कि इस कार्य में हमारे विभागीय शोधकर्ताओं के अतिरिक्त देश और विदेश के अनेक विद्वानों का योगदान है । बाहर के विद्वानों को जनपद सम्पदा के कार्यों से जोड़ने में हमारा उद्देश्य उनसे तथ्यों का संग्रह कराने तक सीमित नहीं है, उन्हें इस नवीन दृष्टि एवं पद्धति में प्रशिक्षित करना भी हमारा चरम लक्ष्य है । हमें इस बात की प्रसन्नता है कि कलाकोश और जनपद सम्पदा में जो कुछ भी इन चन्द वर्षों में काम हुआ है इससे देश और विदेश के विद्वान् यह अनुभव करने लगे हैं कि भारत की विद्या और मानवशास्र में एक नवीन विचारधारा की जननी आचार्या कपिला जी हैं । हमारी समस्त मूल अवधारणाएँ और पद्धतियाँ उन्ही की प्रेरणा है । हम लोग उन अवधारणाओं के भाष्यकार मात्र हैं । इस तथ्य को मैं गंभीरता से रेखांकित करना चाहता हूँ, क्योंकि हमारे बाद जो लोग इस विचारधारा को आगे बढ़ायेंगें उनके लिए यह ऐतिहासिक सत्य जानना आवश्यक होगा । जनपद सम्पदा में अध्ययन के कई उपांग हैं । एक है लोक-वस्तुओं का संग्रह । प्रारम्भ से ही हम इस तरह के संग्रह का कार्य करते आ रहे हैं । इस वर्ष मणिपुर के वाद्ययंत्र, नागाओं की कलात्मक वस्तुएँ एवं चित्र, बंगाल तथा महाराष्ट्र के मुखौटों का तथा मणिपुर और गुजरात के शोधकारी की वस्तुओं का संग्रह किया गया हैं । इनकी हम समय-समय पर प्रदर्शनी लगाते रहते हैं । अभी-अभी हमने कलादर्शन के सहयोग से रबारी की कशीदाकारी की प्रदर्शनी लगाई थी । इससे कुछ पहले स्वनाम धन्य संतोखबा की इन्दिरा प्रदर्शनी चीरक चित्र को बाल भवन में लगाया गया था । दूसरा उपांग है फिल्म एवं वीडियो प्रलेखन मणिपुर के लाइहरोबा उत्सव, गारो जनजाति का बांग्ला पर्व, नीलगिरी के टोडा, बंगाल के बाउल, और केरल के मंदिरों के वाद्ययंत्र इस प्रलेखन की महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं । तीसरा उपांग है परिसंवाद एवं अध्ययन गोष्ठी । हम समय-समय पर स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय आयोजन करते रहते हैं । इस वर्ष आदि-श्रव्य कार्यक्रम के अन्तर्गत ध्वनि और यूनेस्को कार्यक्रम के अन्तर्गत अन्तर्जात सांस्कृतिक विकास पर अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन गोष्ठी हुई है । अगले चार महीने में दो और अंतर्राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन होने जा रहा है। एक आदि-दृश्य कार्यक्रम के अन्तर्गत और दूसरे यूनेस्को कार्यक्रम में इस वर्ष शास्राचार एवं लोकाचार शीर्षक से एक पारिवारिक परिसंवादमाला प्रारंभ की गई है । इसका प्रधान उद्देश्य है कलाकोश एवं जनपद सम्पदा के अन्वेषकों में विचारों के परस्पर आदान-प्रदान को प्रोत्साहित करना । इस विद्या से अन्त:शास्रीय एवं शास्रोपरि अध्ययन की नई प्रणाली विकसित होगी । आशा और विश्वास है कि हमारे मित्र सहयोगियों की इस प्रयोगात्मक परिसंवाद के प्रति उत्साह बना रहेगा । प्रकाशन किसी भी अनुसंधान की अपरिहार्य नियति है । पिछले वर्ष खेद प्रकट करते हुए मैने कहा था कि प्रारम्भ से अब तक सिर्फ तीन ही पुस्तकें प्रकाशित हो पाई हैं । परन्तु आज बड़े हर्ष के साथ कह रहा हूँ कि जनपद सम्पदा ने इस एक वर्ष के अन्दर आठ पुस्तकें प्रकाशित की हैं, और सात पुस्तकें प्रकाशन के अंतिम चरण में हैं । इसी बीच विहंगम के चार अंक भी प्रकाशित हुए हैं और अगला अंक मुद्रण के लिए भेज दिया गया है । प्रकाशन का कार्य बुद्धिजीवियों के लिए सहज नहीं हैं । इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र कई दृष्टियों से अनोखा है । इस दृष्टि से भी अनोखा है कि इस उच्च अध्ययन संस्थान की आचार्या, प्रकाशन कार्य का संचालन करती हैं । वे केन्द्र द्वारा प्रकाशित सभी पुस्तकों की रुपरेखा तथा आवरण के रुप-रंग का चुनाव भी दक्षतापूर्वक करती हैं । उनकी ही प्रेरणा से इस अल्प समय में अप्रत्याशित प्रकाशन कार्य हो चुका है । प्रकाशन में मानचित्रों और आवरण की साज-सज्जा को आकर्षक बनाने में श्री देशपाण्डे जी की कला और कर्तव्यनिष्ठा का मैं बहुत आदर करता हूँ । किसी विद्यासंस्थान के उत्कर्ष की एक पहचान यह भी है कि उसमें कार्यरत शोधकर्ताओं को दूसरे विद्वान् कितना समादर देते हैं । जनपद सम्पदा के शोधकर्ताओं को राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग लेने के लिए निमन्त्रण मिलता रहता है । इस वर्ष हम लोगों ने बारसिलोना, जैगरेव, नौर्वे, इलाहबाद, दिल्ली और मैसूर के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लिया । जैसा आप जानते हैं, इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में संस्कृति और विकास के लिए एक यूनेस्को चेयर की स्थापना हुई है । यह एशिया एवं एशिया प्रशान्त में अपने विषय का एक मात्र चेयर है । इस चेयर की स्थापना हमारे केन्द्र की अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता का एक और साक्ष्य है । जनपदसम्पदा के सभी सदस्यों को इस विशेष दायित्व के कार्य से जुड़ने में प्रसन्नता है । हमारे सहयोगी इसके लिए समर्पित हैं । आत्मसमीक्षा के अन्त मैं यह कहना चाहता हूँ कि यह वर्ष, जनपद सम्पदा के लिए अथक श्रम का वर्ष रहा है, विशेषकर हमारे युवा अन्वेषकों के लिए, जो अपना निर्दिष्ट अनुसंधान तो करते ही हैं, साथ-साथ व्यवस्था का कार्य भी देखते हैं । प्रकाशन कार्य में उनका बहुत बड़ा सहयोग रहा है । इन श्रम के दिनों में आदरणीय कपिलाजी के कुशल मार्गदर्शन एवं निरन्तर प्रोत्साहन से हम लोगों का मनोबल बना रहा है । सम्माननीय विद्वान् श्री जोशी जी से हम लोगों की विद्या सम्बन्धी चर्चा होती रहती है । उनके सम्पर्क में आना ही परम सौभाग्य की बात है । मेरी प्रेरणा के एक और स्रोत हैं - अन्तस्तम प्रिय मित्र भासी की, और मेरे शिष्ट, सुशील, तेजस्वी युवा अन्वेषकगण जो जनपद सम्पदा के गौरव हैं । इस केन्द्र के संस्थापकों, विशेषकर अपनी आचार्या के प्रति पुन: आभार प्रकट करना प्रथम कर्त्तव्य है, क्योंकि इनकी ही संगठनात्मक दूरदर्शिता एवं वैचारिक विशालता के कारण हमारी ऐसी वर्तमान स्थिति बनी है । सूत्रधार, कलानिधि, कलादर्शन और कलाकोश तथा जनपद सम्पदा के प्रबन्धकों के निरन्तर सहयोग से हम विद्या का कार्य कर पा रहे हैं । मैं इन सभी मित्रों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ ।
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