बिहार |
Bihar |
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बिहार एक सांस्कृतिक परिचय डॉ. कैलाश कुमार मिश्र |
भोजपुरः नाम, अर्थ और सांस्कृतिक गौरव भोजपुर, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, भोजपुरी भाषा बोलने वाला सांस्कृतिक क्षेत्र है। विहार के अलावे पूर्वी उत्तर-प्रदेश का कुछ क्षेत्र भी इस सांसकृतिक पॉकेट का अभिन्न हिस्सा है। भोजपुर के सांस्कृतिक उर्वर भूमि में बुद्ध, महावीर, कबीर जैसे जननायकों का जन्म हुआ बुद्ध और कबीरदास जैसे क्रान्तिकारियों ने लोक-जीवन की संवेदना को पहचानकर सामाजिक और धार्मिक रुढियों के विरुद्ध अपने विद्रोह का स्वर लोक-भाषा किंवा जनवाणी के माध्यम से मुखरित किया है। एक ओर जहां मगध में रक्तरंजित राजाओं के बाद राजाओं का इतिहास है वहीं भोजपुर अपने लोक-जीवन और चरित के लिए विख्यात है; मिथिला का नाम ज्ञान, त्याग और शिक्षा के लिए जाना जाता है। बिहार शायद एक अनोखा राज्य है जो अपने अलग-अलग सांस्कृतिक भू-भागों में अलग-अलग सांस्कृतिक धरोहरों के लिए विख्यात है। भोजपुरी क्षेत्र निष्कर्षतः लोक-संस्कृति प्रधान रहा है। यहाँ तक कालान्तर में प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम (1857 के विद्रोह ) के अमर सेनानी वीर बाबू कुँवर सिंह भी हमारे सम्मुख एक लोक-नायक के रुप में आते ही आते हैं। भोजपुर क्षेत्र की सीमा को विद्वानों ने उत्तर में हिमालय पर्वतमाला की तराई, दक्षिण मध्यप्रान्त का जसपुर राज्य, पूर्व में मुजफ्फपुर की उत्तरी-पश्चिमी भाग और पश्चिम में बस्ती तक के विस्तार को माना है। इस प्रकार इसका क्षेत्रफल लगभग पच्चास वर्गमील है। जब सन् 1857 में स्वतन्त्रता आंदोलन का प्रथम लहर का सूत्रपात हुआ उस समय समस्त भोजपुर क्षेत्र में बाबू कुँवर सिंह तथा इनकी लड़ाई की धूम मची हुई थी। बुन्देलखनड में रानी लक्ष्मीबाई स्री शक्ति का आश्चर्यजनक प्रदर्शन कर रही थी, वहीं भोजपुर में अस्सी के उम्र में प्रवेश करने के बावजूद बाबू कुँवर सिंह ने अंग्रेजो को यह जता दिया कि अगर दृढ़ निश्चय हो तो अस्सी वर्ष में भी समस्त शरीर में खून खौलने लगता है; दुश्मनों के छक्के छुड़ाए जा सकते है। इस सम्बन्ध में भोजपुरी लोकगीत के फाग का उल्लेख अनिवार्य है:
अर्थात् इस फाग के अनुसार भोजपुर ने विचित्र प्रकारे से होली मनाई। यहाँ पर रंग की जगह गोली और बारुद है तथा तोपें पिचकारी का काम दे रही हैं। समस्त भोजपुर में होली मची हुई है। कुँवर सिंह दोनों भाई होली खेल रहे हैं। भोजपुर नामकरण भी अपने-आप में एक गुत्थी है; जिसका सहज समाधान असंभव लगता है। शाहाबाद गजेटियर (एल० एस० एस० वो माले), अब्राहम ग्रियर्सन (लिंग्विस्टिक सर्वे आॅफ इण्डिया, - जी० ए० ग्रियर्सन, भाग 5 ), तथा दुर्गाशंकर सिंह ( भोजपुर के कवि और काव्य ) के मतानुसार मालवा के राजा भोजदेव ने इस क्षेत्र को जीता और उन्होंने भोजपुर की स्थापना अपने नाम पर की। शायद उन्हीं के नाम पर इस सांस्कृतिक भू-भाग (पॉकेट) को भोजपुर कहा गया। पृथ्वीसिंह मेहता अपनी पुस्तक, बिहार एक ऐतिहासिक दिग्दर्शन में एक अलग मान्यता का प्रतिपादन करते हैं। पृथ्वीसिंह मेहता महोदय के अनुसार गुर्जर प्रतिहार मिहिर भोज ने अपने नाम से भोजपुर किले की स्थापना की। मालवा का भोज महमूद गजनवी का समकालीन था और बिहारे से उसका कोई सम्बन्ध न था। उदयनारायण तिवारी ( भोजपुरी भाषा और साहित्य ) तथा कृष्णदेव उपाध्याय ( भोजपुरी लोक साहित्य का अध्ययन ) मानते हैं कि मालवा के उज्जैन भोजों के नाम पर इस क्षेत्र का नाम भोजपुर कहलाया, किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर नहीं। प्राचीन काल में इन्हीं लोगों ने इस क्षेत्र पर अधिकार करके यहाँ शासन आरम्भ किया था। ए० बनर्जी शास्री महोदय का कथन है (प्रोसीडिंग्स एण्ड ट्रांजेक्शन्स आफ दि सिक्टींप आल इण्डिया ओरियन्टल कांफ्रेस, पटना, 1930 ) कि भोजपुर का नामकरण मालवा के राजा भोज के नाम पर नहीं हुआ है, जैसा कि शाहाबाद गजेटियर में उल्लेख है, बल्कि महर्षि विश्वामित्र के यजमान भोजों के आधार पर भोजपुर कहलाया। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर इसमें कौन से मत अधिक प्रभावकारी व तथ्यपरक है? निष्कर्ष पर पहुँचने के पूर्व इन सभी मतों का विचार-विश्लेषण करना समीचीन होगा। आजकल भोजपुर नाम पुरन का भोजपुर (पुराना भोजपुर) और नवका भोजपुर (नया भोजपुर) नामक समीप बसे हुए दोनों गाँवों के लिए प्रयुक्त होता है। शाहाबाद गजेटियर में प्राप्त विवरण के अनुसार भोजपुर एक गाँव है, जो बक्सर सबडिवीजन में, डुमराँव से दो मील उत्तर में बसा है। सन् 1921 ई० इसकी जनसंख्या 3605 थी। इस गाँव का नाम मालवा के राजा भोज के नाम पर पड़ा है। कहा जाता है कि राजा भोज ने राजपुतों के गिरोह के साथ इस जिले पर आक्रमण किया था और यहाँ के आदिवासी चेरों को हटाकर अपने अधीन किया था। यहाँ राजा भोज के प्राचीन महलों के भग्नावशेष आज भी वर्तमान है। इस गाँव के नाम से भोजपुर परगने का भी नामकरण हुआ है। दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह का कथन है कि इन दोनों भोजपुर (नया भोजपुर और पुराना भोजपुर) गाँवो को बसाने वाले डुमराँव राजवंश के पूर्वज परमार राज जो मालवा से दो विभिन्न समय में इस प्रदेश में आये थे। प्रथम वार तो धार (मालवा) के विद्वान् राजा भोजदेव ( 1005 - 1055 ई० ) ने इस प्रदेश पर अपना राज्य कायम करके पुराने भोज पुर को बसाया और इसे इधर के प्रदेशों की राजधानी बनाया। यहाँ भोजदेव के बनवाये मन्दिर, महल, रंगस्थल, सरोवर, महाराज विक्रमादित्य का महल, 'सिंहासन बत्तीसी' सम्बन्धी सिंहासन के गड़े रहने का स्थान, विक्रमादित्य के नवरत्त्नों के सभा-भवन आदि के सांकेकित स्थान बड़े-बूढ़ों द्वारा बताये जाते हैं। देखने में गाँव के उत्तर-पूर्व और पश्चिम दिशा भी वर्तमान है। दुर्गाशंकर प्रसाद सिंहलिखते है कि "देखने में गाँव के उत्तर पूर्व और पश्चिम दिशा में दूर तक बहुत से टीले, सरोवर के समान गड्ढ़े आदि के चिह्म दिखाई पड़ते है।" वास्तव में मुसलमानों के बसे हुए 'भोजपुर' के भग्नावशेष को भ्रम से शाहाबाद गजेटियर के विद्वान् लेखक ने राजा भोज के प्राचीन महलों का अवशेष समझ लिया है। बिहार एक ऐतिहासिक दिग्दर्शन के विद्वान लेखक पृथ्वीसिंह मेहता का मत है कि कन्नोज के प्रतिहार मिहिर भोज ने भोजपुर बसाया था। 'भोजपुर राजा भोज का बसाया है, यह बात जनता में आजतक प्रचलित है, लेकिन कन्नोज के सम्राट मिहिर भोज को भूल जाने के कारण लोग आज धार (मालवा) के राजा भोज को उसका संस्थापक मान बैठे हैं। मालवा का राजा भोज महमूद गजनवी का समकालीन था और बिहार से उसका कोई सम्बन्ध न था।' गुप्त राजवंश के अंत के साथ बिहार-बंगाल की राजसंस्था एकदम चौपट हो गई। सारा प्रदेश छोटे-छोटे सरदारों में बँट गया। इस दशा से ऊबकर बिहार बंगाल की प्रजा ने इस मछलियों की सी दशा का अंत करने के लिए (लगभग 743 ई०) श्री गोपाल के हाथ में राजलक्ष्मी सौंप दी। इधर उत्तरी भारत में के लगभग 836 ई० रामचन्द्र का बेटा भोज मिहिर गद्दी पर बैठा। भोज के गद्दी पर बैठते ही स्थिति बदल गयी। "देवपाल को हराकर उसने शीध्र ही कन्नौज वापस ले लिया और भिन्नमाल की जगह कन्नौज को ही अपना राजधानी बनाया। हिमालय में काश्मीर की सीमा तक का प्रदेश जीतकर ने अपने राज्य में शामिल कर लिया और अपनी पश्चिमी सीमा वहाँ से मुलतान के अरब राज्य तक पहुँचा दी। पूरब में मिहिर भोज के राज्य की सीमा बिहार तक थी। राजा देवपाल ने उसने पश्चिमी बिहार (प्राचीन मल्ल देश) छीन लिया।" मिहिर भोज के ग्वालियर प्रशस्ति (इपिग्राफिका इंडिका-भाग 12 , पृ० 156 ) से यह स्पष्ट होता है कि इसने धर्मपाल के पुत्र देवपाल को हराया था, इसके उत्तराधिकारी विग्रहपाल और नारायण पाल को नहीं जैसा कि मजुमदार (दि हिस्ट्री आॅफ दी गुर्जर प्रतिहारस - बी० एन० पुरी, पृ० 63 ) मानते हैं। साथ ही सारन जिले के दिवा-दुवौली ( इण्डियन एंटिक्वेरी - भाग 12 , पृष्ठ 112 ) नामक गाँव से पाये गये ताम्रपत्र से भी यह बात सिद्ध होती है कि प्रतिहार भोज का राज्य गोरखपुर तथा सारन तक था। पृथ्वीसिंह मेहता यह भी लिखते हैं कि पालों कि रोकथाम के लिए उन्होने शाहबाद जिले में अपने नाम से भोजपुर की स्थापना की। उसी भोजपुर नाम से आज पश्चिमी बिहार की जनता और उनकी बोली भोजपुरी कहलाती है। निष्कर्ष, शाहबाद गजेटियर, ग्रियर्सन और दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह दोंनो की जो यह मान्यता रही कि परमार भोजदेव ने भोजपुर जीता और इसे बनवाया। यह मान्यता केवल जनमुनियों पर आधारित है। इसका किसी भी प्रकार का ऐतिहासिक प्रभाज नहीं है। हां, पृथ्वीसिंह मेहता का विचार ऊपर के विचार से अधिक प्रामाणिक है मालूम होता है, क्योंकि कम से कम प्रतिहार भोज का राज्य सारन तक तो रहा। इसकी संभावना भी है कि उसने पालों की रोकथाम के लिए भोजपुर में किले की स्थापना भी की हो, किन्तु इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता है। यहाँ भी प्रतिहार भोज के भोजपुर में किला बनवाने की बात जनश्रुतियों पर ही आधारित है। "सन् 1305 ई० में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा मालवा द्वारा धार राज्य (जयसिंह चतुर्थ का समय) के ले लिये जाने पर और यहाँ अलाउद्दीन के प्रतिनिधि (वापसराय) 'अहनउल मुल्क' का राज्य कायम हो जाने पर धार के परमार राजवंशों का वहाँ रहना मुश्किल हो गया। इसलिए जयदेव शाह ने उज्जैन छोड़ दिया और भोजपुर में अपना राज्य स्थापित किया। इनके तीन लड़के थे - देव, दुल और प्रताप। दुल (अथवा दलपत जिसे ब्लाचमैन ने कहा) डुमराँव महाराज के पूर्वज थे। "वहाँ पर 'नवरत्न' नाम एक प्राचीन महल का भग्नावशेष है जो मुसलमानीं डिजाइन का है।" श्री दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह के अनुसार "नया भोजपुर मुसलमानी काल में धार मालवा से दूसरी बार सन् 1305 ई० में आए परमार राजा भोजदेव के वंशज शांतनशाह के वंशज रुद्र प्रतापनारायण द्वारा ही संभवतः बसाया गया था। यहाँ मुसलमानी काल का बना हुआ और मुसलमानी कला का प्रतीक 'नवरत्न' नामक किला या महल, भग्नावशेष रुप में आज भी भोजपुर दह नामक झील के दक्षिणी तट पर खड़ा है। राहुल सांकृत्यायन भी इस मत को मानते हैं। साथ ही उनका यह भी कहना है कि पुराना भोजपुर गंगा में बह चुका है। नया भोजपुर डुमराँव स्टेशन से दो मील के करी है। जान पड़ता है, शांतनशाह के पितामह द्वितीय भोज था भारत के प्रतापी नरपति महाराज भोज प्रथम के नाम पर यह बस्ती बसाई गई है। कहते हैं कि शाहाबाद जिले में भ्रमण करते हुए बुकानन महोदय 1812 ई० में, भोजपुर आए थे। उन्होने मालवा के भोजवंशी उज्जैन राजपूतों के चेरों जनजाति को पराजित करने के सम्बन्ध में उल्लेख किया है। स्मरणीय तथ्य यह है कि बुकानन महाशय ने भोजवंशी राजपुतों की विजय की बात कही है, भोजदेव के जीतने की बात नहीं जैसा कि शाहबाद गजेटियर और ठाकुर दुर्गाशंकर सिंह मानते हैं। ब्लाचमैन महोदय ने लिखा है कि बंगाल के पश्चिमी प्रान्त तथा दक्षिणी बिहार के राजा, दिल्ली सम्राट के अत्यन्त दुखदायी थे। सम्राट अकबर के राजत्वकाल में बक्सर के समीप भोजपुर के राजा दलपत, सम्राट से पराजित होकर बन्दी किये गए और अन्त में, जब बहुत आर्थिक दण्ड के पश्चात् वे बन्धन मुक्त हुए तो उन्होने पुनः सम्राट के विरुद्ध सशस्र क्रान्ति की। जहांगीर के शासनकाल में भी उनकी क्रान्ति चलती रहीं जिसके परिणाम स्वरुप भोजपुर लुटा गया तथा उनके उत्तराधिकारी प्रताप को शाहजहाँ ने फांसी का दण्ड दिया। इस घटना की पुष्टि आइने अकबरी से भी होती है। बरखुरदार मिर्जा खानआलम अकबर के दरबारी थे। बरखुरदार का पिता युद्ध में दलपत द्वारा मारा गया था। बिहार का यह जमींदार बाद में पकड़ा गया तथा तथा 44 वें वर्ष तक जेल में रखा गया किन्तु इसके पश्चात् बहुत अधिक दण्ड देकर छोड़ दिया गया था। इस विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी समय भोजपुर राज्य अत्यन्त प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली था। उसके शासक उज्जैन राजपूत प्राचीन काल में अपने मूल स्थान मालवा से बिहार चले गये थे। मध्ययुग के भारतीय इतिहास - विशेषतः पश्चिमी बिहार के इतिहास में इन राजपूतों का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। सन् 1857 ई० की क्रान्ति तक इनका प्रमुख अक्षुण्ण रहा। इसी समय बाबू वीर कुंवर सिंह ने अस्सी वर्ष की अवस्था में अंग्रेजों के विरुद्ध विप्लव किया जिसके परिणाम स्वरुप समस्त भोजपुर को ध्वस्त कर दिया गया। इस प्रकार भोजपुर राज्य का अंत हुआ। उदयनारायण तिवारी महोदय का मत है कि उज्जैन के भोजों (धार के प्रसिद्ध राजा भोज का नाम किसी व्यक्ति विशेष का नाम न होकर उस क्षेत्र के राजाओं की उपाधि प्रतीत होती है) के नाम पर ही भोजपुर पड़ा, क्योंकि प्राचीन काल में इन्हीं लोगों ने इस क्षेत्र पर अधिकार करके यहाँ शासन करना आरम्भ किया था। डुमरांव के निकट भोजपुर नगर ही इनकी राजधानी थी। कृष्णदेव उपाध्याय भी कमोवेश इसी मत को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार भोजपुर स्थान का नाम उज्जैनी भोज राजाओं के नाम के कारण हुआ जो उज्जैन (मालवा) से आकर यहाँ बस गये थे। ए० बनर्जी शास्री का कथन है कि विश्वामित्र जिन लोगों के बीच अपने यज्ञ करते थे, उन्होंनें उसे भोजा कहा है। ऐतरेय ब्राह्मण में राजपरिवार द्वारा 'भोज' उपाधि धारण करने का उल्लेख मिलता है। उनका निवास-स्थान भोजपुर में था, जो शाहाबाद जिले के उत्तर-पश्चिम बक्सर सवडिवीजन में एक परगना है, जिसका नाम विश्वामित्र के भोजों के आधार पर हुआ हैं; मालवा के उज्जैन राजा भोज के आधार पर नहीं, जैसा शाहाबाद गजेटियर में लिखा हुआ है। स्मरणीय तथ्य यह है कि ए० बनर्जी शास्री का मत ॠगवेद के 3:53:7 श्लोक पर आधारित है:
परन्तु ॠगवेद के अर्थों में बड़ा मतभेद है। विद्वान अपने-अपने विचार से अर्थ करते हैं श्रीराम शर्मा ने इसका अर्थ लिखा है: "विश्वामित्र इन्द्र से कहते हैं - "हे इन्द्र ! यह भोज और सुदास राजा की ओर से यज्ञ करते हैं। यह अंगिरा, मेघतिथि आदि विविध रुप वाले हैं देवताओं में अत्यन्त बली रुद्रोत्पन्न, मरुदगण अश्वमेघ यज्ञ से मुझ विश्वामित्र को महान धन दें और अन्न बढ़ावें।" मराठी विद्वान सिध्देश्वर शास्री के अनुसार :
आर्चाय चतुरसेन शास्री भी मानते हैं कि भोज सुदास के परिजन थे। इससे तो स्पष्ट होता है कि सुदास नाम के राजा और भोज नामक राजा अथवा लोग थे। जिनके पुरोहित विश्वामित्र थे। पाञ्चाल के सुदास राजा तो प्रसिद्ध हैं।समस्या है तो केवल भोज के विषय में। (अ) क्या विश्वामित्र के समय में भोज नाम का कोई राजा अथवा जाति या लोग थे ? (ब) क्या भोजपुर नामक सांस्कृतिक पॉकेट में महर्षि विश्वामित्र रहते थे ? अधिकतर विद्वानों का मत है कि ॠगवेद में 'भोज' शब्द का प्रयोग विशेषण के रुप में हुआ है। इस शब्द का प्रयोग इन्द्र, दानी, बली, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाला, अन्न की कामना से याचना करने वाले को अन्न देने वाला आदि विशेषणों के अर्थ में हुआ है। व्यक्तिवाचक संज्ञा का प्रयोग नहीं मिलता। इन्द्र को 'भोज' की उपाधि मिली थी देवों ने उसको (इन्द्रको) साम्राज्य का सम्राट, भोगों का भोक्ता, राजों का पिता परमेष्ठित बना दिया। उन्होने कहा - आज क्षत्र पैदा हुआ है, आज क्षत्रिय पैदा हुआ है, (शत्रु) पुरों का नाश करने वाला पैदा हुआ, असुरों का घातक पैदा हुआ, ब्राह्मणों का रक्षक पैदा हुआ। इसी भांति ऐतरेयब्राह्मण के अन्य श्लोकों में भी उपाधि के रुप में भोज शब्द का प्रयोग हुआ है। अर्थात् ॠगवेदकाल में भी 'भोज' शब्द महान अर्थों का द्योतक था । पं ए० बनर्जी शास्री का कथने है कि विश्वामित्र के यजमान भोज थे। वे बड़े पराक्रमी थे। यदि शास्री महोदय का कथन स्वीकार कर लिया जाय तो समस्या का समाधान हो जाता है, किन्तु इस विषय में विवाद है। फिर भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उपाधि रुप में 'भोज' शब्द का प्रयोग ॠगवेदकाल से होता था। उसके पीछे अवश्य कोई परम्परा रही होगी। यह माना जाता है कि बहुत से वैदिक मन्त्रों के रचैता बक्सर में निवास करते थे। इसके प्राचीन नाम वेरगर्मपुरी, विश्वामित्र का आश्रम, सिद्धाश्रम, व्याथ्रसर और व्याध्रपुर मिलते हैं। यहॉ (बक्सर) विश्वामित्र ॠषि का आश्रम है। ताड़कावन इसी स्थान पर था और यहीं भगवान राम ने ताड़का को मारा था। जब विश्वामित्र के यज्ञ में राक्षस उत्पात करने लगे तब वह अयोध्या आकर राम और लक्ष्मण को अपने यज्ञ की रक्षा के लिए राजा दशरथ से याचना कर ले गये। राम दोनों भाइयों ने महर्षि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा सिद्धाश्रम की थी। बक्सर में गंगा के तटपर महर्षि विश्वामित्र के यज्ञ का स्थान है, जहाँ अब भी नदी से कट-कट कर के जो भूमि गिरती है, उसमें यज्ञ के चिह्म देख पड़ते हैं। देव सहाय त्रिवेदी का कथन है कि बक्सर की खुदाई से जो प्रागैतिहासिक सामग्री प्राप्त हुई है, उससे सिद्ध होता है कि इस प्रदेश में ऐतिहासिक सामग्री की कमी नहीं है। किन्तु आधुनिक इतिहासकारों का ध्यान इस ओर कम गया है, जिससे इनकी समुचित खुदाई तथा मूल स्रोतों के अध्ययनए का महत्त्व अभी प्रकट नहीं हुआ है। सत्य जो भी हो, लोक मान्यता तो यह है कि बक्सर में महर्षि विश्वामित्र रहते थे और उनके यज्ञ में असु बाधा पहुँचातो थे। जब विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण गंगा पार करने लगे, तो किनारे घने जंगल देखकर उन्होंने पूछा : हे मुनि श्रेष्ठ ! खेद है कि वन बड़ा दुर्गम है और झींगरी नामक कीट के समूहों के शब्द से पूरित भयंकर क्रूर मृग तथा बड़े कठोर शब्द वाले भास नामक जीवों से व्याप्त है। यह कौन सा स्थान है ? विश्वामित्र ने उन्हें बतलाया : हे नरोत्तम ! पूर्वकाल में देवलोक के समान स्थितिवाले तथा धनधान्य युक्त मलदा और करुशा नामक ये दो देश थे। वड़े भारी धनधान्य से युक्त ये दोनों देश संसार में प्रसिद्ध होंगे तथा मलदा और करुशा इनका नाम होगा, क्योंकि ये मेरे अंग के मल को धारण करने वाले हैं। सब देवता प्रसन्न हुए और कहने लगे, " हे ! अरित्रम। बहुत समय तक आनन्दयुक्त ये दोनों मलद और करुश नामक जनपद धनधान्य आदि से समृद्धिशाली रहे। कुछ काल बीतने पर हजारों हाथियों का बल धारण करने वाली ताटका नाम्नी बुद्धिमान सुन्द की भार्या कामरुपिणी एक यक्षिणी हुई। इन्द्र के समान पराक्रमी मारीच नामक दानव जिसका पुत्र है। हे राघव ! वह दुराचारिणी ताटका मलद और कारुश नामक इन दोनों जनपदों को नित्य नाश करती है। यहां ताड़का वन है। अर्थात् मलद और करुश दोनों ही प्रचीन तथा धनधान्यपूर्ण जनपद हैं। भोजपुरी क्षेत्र में प्राचीन मल्ल, वन्जि, काशी, कारुष आदि जनपद सम्मिलित हैं। मल्लदेश विदेह (अथवा मिथिला) के पश्चिम और मगध के उत्तर-पश्चिम की ओर था। उसमें आधुनिक सारन और चम्पारन जिलों के भाग सन्निहित थे। करुष मनुवैवस्वत का छठा पुत्र था और उसे प्राचीदेश का राज्य मिला था। करुष की सन्तति को कारुष कहते हैं। ये दक्षिणात्त्यों से उत्तरापथ की रक्षा करते थे तथा ब्राह्मणों एवं ब्राह्मण धर्म के पक्के समर्थक थे। ये कट्टर लड़ाके थे। रामायण से आभाष मिलता है कि कारुष पहले आधुनिक शाहाबाद जिले में रहते थे। बक्सर में वामन भगवान का अवतार होने से यह स्थान इतना पूत हो चुका था कि स्वयं देवों के राजा इन्द्र भी ब्राह्मण (वृत्र) हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए यहाँ आये थे। वज्जि भी एक प्राचीन जनपद है। प्राचीन सोलर महाजन पदों में वज्जि भी थे, जिन्होने भगवान बुद्ध के समय से पहले ही अपने आपको आठ संघो (अट्ठकुल) के एक समूह में संगठित कर लिया था, जिनमें विरेह, ज्ञातृक और लिच्छवि और स्वयं वज्जि प्रधान थे। राजा पुरुरवा के पुत्र ने काशी नगरी बसाई थी। काशी तो और भी प्राचीन स्थान है। काशिक, दिवोदास अथवा सुदास आदि यहाँ के राजा हुए। साहित्यिक साक्षी से वस्तुतः ऐसा ज्ञात होता है कि इस समय (उत्तरवैदिक काल) वैदिक संस्कृति के मुख्य केन्द्र ती राज्य थे - कौसल, काशी और विदेह, जो कभी-कभी एक साथ मिल भी जाते थे। इस युग के सर्वोेत्कृष्ट राजा दो दार्शनिक सम्राट थे - काशी के अजातशत्रु और विदेह के जनक, जिनके साथ ही श्वेतकेतु और याज्ञवल्क्य के विचार जगत का नेतृत्व कर रहे थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि जिसे हम भोजपुर क्षेत्र कहते हैं वह प्रचीन काल से ही प्रसिद्ध, धनधान्यपूर्ण, वीर आदि विशेषणों से युक्त रहा है। तथा करुश और मलद का तो विश्वामित्र से और भी धनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। हाँ, वहाँ किसी भोज नामक राजा का उल्लेख नहीं मिला। विश्वामित्र बक्सर में रहते थे। भोजपुर और बक्सर के पूर्व मगध की भूमि पड़ती है। (अथर्ववेद 5.22.14 ) वहाँ अपने राजा प्रमगंद के राजत्व में कीकट रहते थे (ॠग्वेद 3.53.14 ) विश्वामित्र का सम्बन्ध अपने शक्तिशाली पड़ोसियों से अच्छा नहीं था। उन्होंने इन्द्र को उकसाया कि अपनी सम्पति और गाय का विशाल झुण्ड उनसे ले लें और मेरे आदमियों को दे देवें। यास्क का कथन है कि कीकट अनार्य देश है परन्तु बेवर के विचार में कीकटवासी मगध में रहते थे, आर्य थे, यद्यपि अन्य आर्यों से भिन्न थे, क्योंकि वे नास्तिक प्रवृत्ति के थे। निकर्षतः यह कहा जा सकता है कि विश्वामित्र अपने क्षेत्र के निवासियों को बहुत स्नेह करते थे। वे दानी, वीर और दयालु थे। जैसे इन्द्र को भोज की उपाधि मिली। ॠग्वेद में इन्द्र के लिए 'भोज' शब्द का उल्लेख हुआ। हो सकता है कि विश्वामित्र अपने यजमानोंको स्नेह से भोज कहने लगे हों। ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लेख है कि जो व्यक्ति 'भौज्य' अर्थथात् 'भोज' की उपाधि धारण करना चाहे, उस ॠत्विज को चाहिए कि उस क्षत्रिय का इन्द्र के महाभिषेक करें। अर्थात् उस व्यक्ति को 'असुरों का घातक', 'दानी' 'दयालु' तथा 'ब्राह्मण धर्म का रक्षक' आदि होना चाहिए। अब्राहम जॉर्ज ग्रियर्सन ने लिखा है कि भोजपुरी उस शक्तिशाली स्फूर्तिपूर्ण और उत्साही जाति की व्यवहारिक भाषा है जो हर परिस्थिति और समय के अनुकूल अपने को बनाने के लिए सदा प्रस्तुत रहती है और जिसका प्रभाव हिन्दुस्तान के हर भाग पर पड़ा है। इस संदर्भ में एक प्रख्यात भोजपुरी कहावत का उल्लेख सार्थक जान पड़ता है :
अर्थात् जो हमको जानेगा, मेरा मित्र होगा, अपने होगा उसके लिऱ तो मैं अपनी जान भी दे दूँगा लेकिन जो आँख दिखलायेगा उसकी आँख निकाल लूँगा। इस कहावत से भोजपुर के निवासियों का चरित्र पूर्णरुप से प्रकट हो जाता है कि वे कितने दयालु, स्नेह वाले होते हैं किन्तु मौका पड़ने पर वे कठोर हो जाते हैं तब उनकी वीरता प्रकट होती है। संभव है कि विश्वामित्र के ये यजमान भोज कहलाये हों और उनका निवास स्थान 'भोजों की पुरी' कहलाई हो और फिर उसी से 'भोजपुर' हो गया हो। भोजपुरवासियों का सद्प्रयत्न और दान विश्वामित्र के सैकड़ों वर्षों तक तपस्या करने के लिए दीर्ध आयु प्रप्त करने में सहायता की। इस श्लोक के आधार पर विश्वामित्र के द्वारा उस समय के विशिष्ट विशेषण 'भोज' शब्द से सम्मानित हुए। कोई आश्चर्य नहीं 'भोज' विशेषण से विभूषित इस क्षेत्र के निवासियों के आधार पर कालान्तर में इस क्षेत्र का नाम 'भोजपुर' पड़ गया हो। इस विशिष्ट सांस्कृतिक परम्पराओं और आचरणों वाले क्षेत्र के भाषा का नाम उसके अनुरुप 'भोजपुरी' हुआ। अतः इस क्षेत्र का नाम 'भोजपुर' चारित्रिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण है, किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर नहीं। इस क्षेत्र में नदियों का जाल सा बिझा हुआ है किन्तु इस क्षेत्र की गंगा और सरजू ने विशेष रुप से यहाँ के साँस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया है। कल-कल कर बहती गंगा जिस तरह से सदैव गतिमान है, ठीस इसी तरह यहाँ की सभ्यता और संस्कृति प्राणवान और गतिमान है। |
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Content Prepared by Dr. Kailash Kumar Mishra
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