ब्रज-वैभव |
ब्रज शब्द का अर्थ |
|
ब्रज
शब्द संस्कृत धातु ब्रज
से बना है, जिसका अर्थ गतिशीलता से है। जहां गाय चरती हैं
और विचरण करती हैं वह स्थान भी ब्रज कहा गया है। अमरकोश
के लेखक ने ब्रज के तीन अर्थ प्रस्तुत किये हैं- गोष्ठ (गायों का
बाड़ा) मार्ग और वृंद (झुण्ड) १ संस्कृत के वृज शब्द से ही
हिन्दी का ब्रज शब्द बना है वैदिक
संहिताओं तथा रामायण, महाभारत आदि संस्कृत के प्राचीन
धर्मग्रंथों में ब्रज शब्द गोशाला, गो-स्थान, गोचर भूमि के अर्थों
में भी प्रयुक्त हुआ है। ॠगवेद में यह शब्द गोशाला अथवा गायों
के खिरक के रुप में वर्णित है। २ ?
यजुर्वेद में गायों के चरने के स्थान को ब्रज और गोशाला
को गोष्ठ कहा गया है। ३ शुक्लयजुर्वेद में सुन्दर सींगों वाली
गायों के विचरण स्थान से ब्रज का संकेत मिलता है। ४ अथर्ववेद
में गोशलाओं से सम्बधित पूरा सूक्त ही प्रस्तुत है। ५ हरिवंश
तथा भागवतपुराणों में यह शब्द गोप बस्त के रुप में प्रयुक्त
हुआ है। ६ स्कंदपुराण में महर्षि शांण्डिल्य ने ब्रज शब्द का अर्थ
व्थापित वतलाते हुए इसे व्यापक ब्रम्ह का रुप कहा है। ७ अत यह
शब्द ब्रज की आध्यात्मिकता से सम्बधित है। वेदों
से लेकर पुराणों तक में ब्रज का सम्बध गायों से वर्णित किया
गया है। चाहे वह गायों को बांधने का बाडा हो, चाहे
गोशाला हो, चाहे गोचर भूमि हो और चाहे गोप-बस्ती हो।
भागवतकार की दृष्टि में गोष्ठ, गोकुल और ब्रज समानार्थक हैं।
भागवत के आधार पर सूरदास की रचनाओं मे भी ब्रज इसी अर्थ
में प्रयुक्त हुआ है। मथुरा
और उसका निकटवर्ती भू-भाग प्राचीन काल से ही अपने सघन
वनों, विस्तृत चारागाहों, गोष्ठों और सुन्दर गायों के लिये
प्रसिद्ध रहा है। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म यद्यपि मथुरा नगर में हुआ
था, तथापि राजनैतिक कारणों से उन्हें जन्म लेते ही यमुना पार
की गोप-वस्ती में भेज दिया गया था, उनकी वाल्यावस्था एक बड़े
गोपालक के घर में गोप, गोपी और गो-वृंद के साथ बीती
थी। उस काल में उनके पालक नंदादि गोप गण अपनी सुरक्षा और
गोचर-भूमि की सुविधा के लिये अपने गोकुल के साथ मथुरा
निकटवर्ती विस्तृत वन-खण्डों में घूमा करते थे। श्रीकृष्ण के
कारण उन गोप-गोपियों, गायों और गोचर-भूमियों का महत्व
बड़ गया था। पौराणिक
काल से लेकर वैष्णव सम्प्रदायों के आविर्भाव काल तक
जैसे-जैसे कृष्णौ-पासना का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे
श्रीकृष्ण के उक्त परिकरों तथा उनके लीला स्थलों के गौरव की भी
वृद्धि होती गई। इस काल में यहां गो-पालन की प्रचुरता
थी, जिसके कारण व्रजखण्डों की भी प्रचुरता हो गई थी।
इसलिये श्री कृष्ण के जन्म स्थान मथुरा और उनकी लीलाओं से सम्वधित
मथुरा के आस-पास का समस्त प्रदेश ही ब्रज अथवा ब्रजमण्डल कहा
जाने लगा था। सूरदास
तथा अन्य व्रजभाषा के भक्त कवियों और वार्ताकारों ने भागवत
पुराण के अनुकरण पर मथुरा के निकटवर्ती वन्य प्रदेश की गोप-बस्ती
को ब्रज कहा है और उसे सर्वत्र 'मथुरा', 'मधुपुरी' या
'मधुवन' से प्रथक वतलाया है। ९ ?
आजकल मथुरा नगर सहित वह भू-भाग, जो श्रीकृष्ण के
जन्म और उनकी विविध लीलाओं से सम्बधित है, ब्रज कहलाता है।
इस प्रकार ब्रज वर्तमान मथुरा मंडल और प्राचीन शूरसेंन
प्रदेश का अपर नाम और उसका एक छोटा रुप है। इसमें मथुरा,
वृन्दाबन, गोवर्धन, गोकुल, महाबन, वलदेव, नन्दगाँव,
वरसाना, डीग और कामबन आदि भगवान श्रीकृष्ण के सभी
लीला-स्थल सम्मिलित हैं। उक्त ब्रज की सीमा को चौरासी कोस
माना गया है। इस
प्रकार ब्रज शब्द का काल-क्रमानुसार अर्थ विकास हुआ है। वेदों
और रामायण-महाभारत के काल में जहाँ इसका प्रयोग
'गोष्ठ'-'गो-स्थान' जैसे लघु स्थल के लिये होता था। वहां
पौराणिक काल में 'गोप-बस्ती' जैसे कुछ बड़े स्थान के लिये
किया जाने लगा। उस समय तक यह शब्द प्रदेशवायी न होकर क्षेत्रवायी
ही था। भागवत
मे 'ब्रज' क्षेत्रवायी अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। १० वहां इसे एक
छोटे ग्राम की संज्ञा दी गई है। उसमें 'पुर' से छोटा 'ग्राम'
और उससे भी छोटी बस्ती को 'ब्रज' कहा गया है। ११ १६वीं शताब्दी
में 'ब्रज' प्रदेशवायी होकर 'ब्रजमंडल' हो गया और तव उसका
आकार ८४ कोस का माना जाने लगा था। १२ उस समय मथुरा नगर
'ब्रज' में सम्मिलित नहीं माना जाता था। सूरदास तथा अन्य
ब्रज-भाषा कवियों ने 'ब्रज' और मथुरा का पृथक् रुप में ही
कथन किया है, जैसे पहिले अंकित किया जा चुका है। कृष्ण
उपासक सम्प्रदायों और ब्रजभाषा कवियों के कारण जब ब्रज
संस्कृति और ब्रजभाषा का क्षेत्र विस्तृत हुआ तब ब्रज का आकार भी
सुविस्तृत हो गया था। उस समय मथुरा नगर ही नहीं, बल्कि
उससे दूर-दूर के भू-भाग, जो ब्रज संस्कृति और ब्रज-भाषा से
प्रभावित थे, व्रज अन्तर्गत मान लिये गये थे। वर्तमान काल में मथुरा नगर सहित मथुरा जिले का
अधिकांश भाग तथा राजस्थान के डीग और कामबन का कुछ भाग,
जहाँ से ब्रजयात्रा गुजरती है, ब्रज कहा जाता है। ब्रज संस्कृति
और ब्रज भाषा का क्षेत्र और भी विस्तृत है। उक्त
समस्त भू-भाग रे प्राचीन नाम, मधुबन, शुरसेन, मधुरा,
मधुपुरी, मथुरा और मथुरामंडल थे तथा आधुनिक नाम ब्रज या
ब्रजमंडल हैं। यद्यपि इनके अर्थ-बोध और आकार-प्रकार में
समय-समय पर अन्तर होता रहा है। इस भू-भाग की धार्मिक,
राजनैतिक, ऐतिहासिक और संस्कृतिक परंपरा अत्यन्त
गौरवपूर्ण रही है। व्रजन्ति गावो यस्मिन्निति व्रजः
१. गोष्ठाध्वनिवहा
व्रजः (अमरकोश ३-३-३०) २. गवामय
व्रजं वृधि कृष्णुष्व राधो अद्रिवः (ॠक. १-१०-७) यं त्वां
जनासो अभिसचरन्ति गाव उष्णमिव व्रजं यविष्ठ (ॠक. १०-४-२) ३. व्रजंगच्छ
गोष्ठान (यजु. १-२५) ४. मथुरा-ए-डिस्ट्रक्ट मेमोअर (द. स.), पृ. ९१ ५. अथर्ववेद (२-२६-१) ६. तद
व्रजस्थानमाधिकम् शु शुभे कानना वृतम्। बृजे
वसन् किम करोन् मधुपर्या च केशव (भागवत १०-१-१०) ७. वैष्णव
खण्ड, भगवत महात्म्य (१-१९-२०) ८. वका
विदारि चले बृज को हरि (सूरसागर पद स. १०४७) दावानल
'ब्रज' जन पर छापौ ? (सूरसागर
पद स. १२१०) 'ब्रज' में
बाजति आज वधाई। ? (परमानन्द
सागर पद स. १७) 'ब्रज' ते
वन को चलत कन्हेया। (परमानन्द सागर पद स. २७४) पाछे एक
समय श्री आचार्य जी महाप्रभु आप 'ब्रज' मे पाँउ धारे। (चौरासी
वैष्णव की वार्ता पृ. ६) सो
अलीखान ब्रज देखिकै बोहोत पसन्न भए। (दोसौ बावन वैष्णव की
वार्ता प्रथम खण्ड, पृ. २९९) ९. आतुर
रथ हांक्यौं मधुबन कों 'ब्रज' जन भऐ अनाथ (सू. सा. प. ३६११) सूरदास
प्रभु आई मधुपुरी, ऊधौ कों 'ब्रज' दियौ पठाई (सू. सा.
प. ४०२९) ? १०. श्रीमद्भागवत (१०-१-८ और ९) ११.
शिथूश्चकार निछनन्ती पुरग्रामव्रजादिषु
(भगवत, १०-६-२) १२. आई जुरे सव ब्रज के वासी । डेरा परे
कोस चौरासी ।।१५२३।। डेरा परे कोस चौरासी। इतने लोग जुरे ब्रजवासी ।।१५३७।। |
© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र