ब्रज-वैभव  

ब्रज का स्वरुप एवं सीमा

पौराणिक और अनुश्रुतियों के आधार पर ब्रज का विस्तार


जिन पुराणों में ब्रज के महत्व के साथ इसके विस्तार का भी वर्णन हुआ है, उनमें बाराह पुराण सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इसमें मथुरा मण्डल का विविध रुप से इतना अधिक उल्लेख किया गाया है कि बाराह पुराण को यदि ब्रजमंडल से सम्बधित पुराण ही कहा जाय तो को अयुक्त कथन न होगा। उसी पुराण का एक अंश मथुरा महात्म्य के नाम से प्रसिद्ध है।

वराह पुराण में मथुरा मंडल का विस्तार २० योजन वतलाया गया है और कई प्रसंगों पर इसकी विक्षप्ति करते हुए कई प्रकार से इसके महत्व का वर्णन किया गया है। १ वायुपुराण में मथुरामंडल का विस्तार ४० योजन वर्णित किया गया है। २ किन्तु उसका कथन बाराह पुराण के उल्लेख के समान मान्यता और प्रसिद्धि नहीं प्राप्त कर सका ? है। एक योजन साधारणतया ४ कोस अथवा ? ७ मील का होता है, इस लिये मोटे तौर पर ब्रजमंडल का विस्तार ८४ कोस का समझा जाने लगा।

चौरासी कोस के इस ब्रजमंडल का आकार कहाँ से कहाँ तक है, इसे वतलाने के लिये ब्रज में कई अनुश्रुतियाँ प्रचालित हैं। ऐसी ही एक दोहाबद्ध अनुश्रुति ब्रज के सुप्रसिद्ध शोधकर्ता श्री एफ. एस. ग्राउज ने इलियट की गलौसरी से उद्धृत ? की है, जिसका पाठ उन्होंने इस प्रकार दिया है-

इत वरहद इत सोनहद, उत सूरसेन के गांव।

ब्रज चौरासी कोस में, मथुरामंडल मांह।। ३

उक्त दोहा में आये स्थलों स्थलों की पहिंचान के लिए श्री ग्राउज ने ब्रज की सीमाओं पर स्थित बनों का नामोल्लेख करने वाले एक एक श्लोक को भी उद्धृत किया है, जिसका पाठ उन्होंने इस प्रकार अंकित किया है-

पूर्व हास्यवनं नीय पश्चिमस्यापहाकिंरक।

दक्षिणे जन्हु संज्ञाकं भुवनाख्यं तथोत्तरे।।

ग्राउज महोदय ने पंडितों से उक्त श्लोक में आये हुए बनों के नामों का मिलान पूर्वोक्त हिन्दी दोहा के नामों से करने को कहा, तो उन्होंने वतलाया-पूर्व का हास्य बन ही बरहद बरहद है, जो अलीगढ़ जिले में है। पश्चिम का उपहार बन गुड़गांवा जिले का सोनहद है, दक्षिण का जन्हु बन सूरसेंन का गाँव अर्थात बटेश्वर है और उत्तर का भुवन बन शेरगढ़ के निकट का भूषण बन है। ४

ग्राउज महोदय का स्पष्ट कथन है कि वे पूर्वोक्त दोहा को किसी ऐतिहासिक शोध का सूचक नहीं मानते हैं। ५ और उक्त श्लोक में आये हुए बनों की पहिचान को कल्पना से अधिक महत्व नहीं देते है; इसीलिये उनकी अधिक छान बीन करने की अवश्यकता भी उन्होंने नहीं समझी है। ६ फिर भी ब्रज के विस्तार और इसकी सीमा के सम्बन्ध में लिखने वाले कई विद्वानों ने ग्राउज के कथन को महत्वपूर्ण मानकर प्रमाण रुप में उद्धृत किया है। ७

ब्रज विस्तार से सम्वधित दोहा गर्गसंहिता में थी निम्न प्रकार से वर्णित है-

प्रागुदीव्यां वर्हिषदो दक्षिणास्यां यदो: पुरात।

पश्चिमायां शोणापुरान्माथुरंमंडलं विदु:।।

विशंधोजन विस्तीर्ण सार्द्धयधोजने नवै।

माथुरंमंडलं दिव्यं व्रज माहुर्मनीषिण।। ८

नन्दराय जी के पूछने पर सन्नंद जी ने ब्रज का परिचय देते हुए कहा था- ''जिसके पूर्व-उत्तर में वर्हिषद (बरहद) है, दक्षिण में यदुपुर (सूरसेन ग्राम) है, पश्चिम में शोणपुर (सोनहद) है, उस २० योजन विस्तृत दिव्य माथुर मंडल को मनीषी 'ब्रज' कहते हैं।''

ब्रज सीमा के सम्वध में श्री नारायण भटटकृत ब्रज भक्ति विलास में भी वर्णित है, जिसका संस्करण गौड़ीय विद्वान बावा कृष्णदास ने प्रकाशित किया है। उसमें श्लोक पाठ इस प्रकार है-

पूर्व हास्यवनं नाम पश्चिमस्पात्पहारिकम्।

दक्षिणे जन्हुसंज्ञकं सोनहदाख्यं तथोत्तरे।। ९

अनुश्रुति के दोहा में जहां तीन ओर की हद का विवरण प्रस्तुत किया है, वहाँ गर्ग सहिंता के उद्धरण में वर्हिषद (बरहद) को पूर्व-उत्तर में स्थित वतलाकर चारों दिशाओं की सीमा देने की चेष्टा की गयी है। इसी प्रकार ब्रज भक्ति विलास के उद्धहरण विषयक दोनों पाठों में भी थोड़ा सा अन्तर है। बाबा कृष्णदास के पाठ में उत्तरी सीमा के बन का नाम सोनहद बतलाया गया है, जवकि ग्राउज के पाठ में इसका नाम भुवन बन है। ग्राउज ने पश्चिम के अपहारि बन या उपहार बन की पहिचान करते हुए उसे गुड़गाँव जिले का सोन वतलाया है। उन्होने वर्णित किया है कि गड़गांवा में गंधक के गर्म सोतों के लिये प्रसिद्ध है। १० ? डा. दीन दयाल गुप्त ने सोन को गुड़गाँवा जिले की छोटी वरसाती नदी वतलाया है। ११

सोनहद गुड़गाँवा जिले में होडल के निकट एक छोटा ग्राम है। सम्भव है वहां कोई वरसाती नदी भी हो, किन्तु उसे व्रज की पश्चिमी सीमा के उपहार बन में मानना ग्राउज का भ्रमात्मक कथन है। गुड़गाँवा और सोनहद मथुरामंडल के प्राय उत्तर में है। न कि पश्चिम में। ब्रज की उत्तरी सीमा को बन को ब्रज भक्ति विलास में एक स्थान पर सोनहद बन और दूसरे स्थान पर सूर्यपत्तन बन अंकित किया है। सूर्यपत्तन की वर्तमान पहिचान समई खेड़ से की जा सकती है जो भरतपुर के बहज के निकट स्थित है। १२

 


१. विंशतिर्योजनानान्तु माथुरं मम मण्डलम।

यत्र तत्र नरः स्नातो मुच्यते सर्वकिल्विषै:।। (अध्याय १५८, श्लोक -१)

विंशतिर्योजनानान्तु माथुर मम मण्डलम।

इंद पृक्षं महाभागे सर्वेषां ? मुक्तिदायि च।। ? (अध्याय १६३ श्लोक -१५)

विंशतिर्योजनानांहि मांथुर मम मण्डलम।

पदे पदै अश्वमे धानां फलं नात्र विचारण।। (अध्याय १६८ श्लोक -१०)

२. ?चत्वारिश योजनानां ततस्तु मथुरा

३. मथुरा-ए-डिस्ट्रक्ट मेमोअर (द. स.), पृ. ७८

४. मथुरा-ए-डिस्ट्रक्ट मेमोअर (द. स.), पृ. ९१

५. मथुरा-ए-डिस्ट्रक्ट मेमोअर (द. स.), पृ. ७९

६. मथुरा-ए-डिस्ट्रक्ट मेमोअर (द. स.), पृ. ९१

७. गुप्त, दीनदयाल, अष्टछाप और बल्लभ संम्प्रदाय, स. २००४ पृ. २-३

डॉ सत्येन्द्र, ब्रज लोक साहित्य का अध्ययन, स. २००५ पृ. ४५-४६

८. गर्गसंहिता, (वृन्दाबन खंड, अध्याय एक, श्लोक ११-१२)

९. श्री ब्रजभक्ति विलास (२-१६) पृ. ३४

१०.  मथुरा-ए-डिस्ट्रक्ट मेमोअर (द. स.), पृ. ७९

११.  अष्टछाप और बल्लभ संम्प्रदाय (प्रथम खण्ड) पृ. ४

१२.  दास, कृष्ण, ब्रज मंडल दर्शन, पृ. ५१

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