ब्रज-वैभव

ब्रज का स्वरुप एवं सीमा

ब्रज प्रशस्ति


आध्यात्मिक महिमामंडित, प्रकृतिक सौन्दर्य-सम्पन्न तथा भौतिक वैभवशाली ब्रज की इस पावन भूमि में श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था और इसके निकटवर्ती वन्य प्रदेश के विविध स्थलों में उन्होने अनेक लीलाएँ की थीं। इससे इस प्रदेश को जो असाधारण महत्व प्राप्त हुआ, वह इसकी पूर्व परम्पराओं से भी कहीं अधिक गरिमापूर्ण है। श्रीकृष्ण से सम्बधित पुराणों में कथा कृष्णोपासना के अन्य ग्रन्थों में ब्रज की इस अलौकिक गौरव-गाथा का विशद् वर्णन किया गया है। ये सभी ग्रन्थ ब्रज की प्रसस्ति से भरे पड़े हैं।   

श्रीमदभागवत में ब्रज के इस अलौकिक महत्व के कारण जगतपिता व्रम्हा जी द्वारा ब्रजवासियों की सराहना कराते हुए कहा गया है - ''इनका अहोभाग्य है, धन्य भाग्य है कि जिनके सुहद् स्वयं परमानन्द स्वरुप सनातन परमव्रम्ह है।'' इसी ग्रन्थ में परमभागत उद्धव जी द्वारा यह कामना कराई गयी है कि वे ब्रज-वृन्दाबन की लता-गुल्म अथवा रु खड़ी हो जाँय, ताकि ब्रज रज का वे निरन्तर स्पर्श कर सकें-

अहोभाग्य महोभाग्य नन्द गोप ब्रजौकसाम।

यन्मित्र परमानन्दं पूर्णब्रम्ह सनातनम् ।।

आसामहो चरण रेणु जुषामहं स्यां।

वृन्दावने किमपि लतौषधीनाम्।।

संस्कृत ग्रन्थों से भी अधिक ब्रज भाषा के भक्त कवियों की रचनाओं में ब्रज-प्रसस्ति मिलती है। यहां पर कतिपय प्रमुख कवियों के तत्संबंधी हृद्योदगार उद्धृत किये जाते हैं-

कहाँ सुख ब्रज कौसो संसार !

कहाँ सुखद बशीबट जमुना, यह मन सदा विचार।।

कहाँ बन धाम, कहाँ राधा संग, कहाँ संग ब्रज-बाम।

कहाँ रस-रास बीच अन्तर सुख, कहाँ नारी तन ताम।।

कहाँ लता तरु-तरुप्रति, झूलन कँज-कुँज नव धाम।

कहाँ बिरह सुख गोविन संग सूर स्याम मन काम।।

   (सूरदास स. १५३५-१६४०) 

कहा करौ बैकुंठहि जाय ?

जहाँ नहि नन्द जसोदा गोपी, जहाँ नहीं ग्वाल-बाल और गाय।

जहाँ न जल जमुना कौ निर्मल, और नहीं कदमनि की हाय।

'परमानन्द' प्रभुचतुर ग्वालिनी, बज-रज तजि मेरी जाइ बलाय।।

  (परमानंद दास १५३५-१६४०)

जो बन बसौं तो बसौ वृन्दावन, गाँव बसौं तो बसौं नन्दगाम।

नगर बसौं तो मधुपुरी, यमुना तट कीजै विस्राम।।

गिरि जो बसौं तो बसौं गोवर्धन, अद्भुत भूतल कीजै ठाम।

'कृष्णदास' प्रभु गिरिधर मेरौ, जन्म करौ इति पूरन काम।।

   (कृष्णदास १५५३-१६३९)

ललित ब्रज देश गिरिराज राजें।

धोष-सीमंतिनी संग गिरिवरधरन, करति नित केलि तहँ काम लाजें ।।

त्रिविधि पौन संचरें, सुखद झरना झरें, ललित सौरभ सरस मधुप गाजें।

ललित तरु फूल-फल फलित खट रितु सदा, 'चतुर्भुजदास' गिरधर समाजें।।

  (चतुर्भुजदास स. १५८७-१६४२)

प्रेम-धुजा रसरुपिनी, उपजावन सुख पुंज।

सुंदर स्याम बिलासिनी, नव वृन्दाबन कुंज।।

  (नन्ददास स. १५९०-१६४०)

मानुष हों तो वही रसखान, बसौं नित गोकुल गाँव के ग्वारन।

जो पसु हौं तौ कहा बसु मेरौ, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।।

पाहन हौं तौ वही गिरि कौ जुधर्यौ कर छत्र पुरंदर कारन।

जो खग हौं तो बसेरौं नित, कालिंदी-कूल कदंब की डारन।।

  (रसखान १५९०-१६७५)

सधन कुंज छाया सुखद् सीतल सुरभि समीर।

मन है जात अजौ वहै, उहि जमुना के तीर।।

  बिहारी लाल (स. १६५२-१७२१)

श्री ब्रज-ब्रज-रज, बज-बधु, ब्रज के जन समुदाय।

ब्रज-कानन, ब्रज-गिरिन कों बंदौ सदा सत माय।।

   गो. हरिराय (स. १६४७-१७७२)

ब्रज वृन्दाबन स्याम पियारी भूमि है। तँह फूल-फूलनि भार रह द्रुम झूमि हैं।।

नव दंपति पद अंकनि लोट लुटाइयै। ब्रज नागर नंदलाल सु निसि-दिन गाइयै।।

नंदीस्वर बरसानौ गोकुल गाँवरौ। बंसीबट संकेत रमत तँह सावरौ।।

गोवर्धन राधाकुंडसजमुना। जाइयै ब्रज नागर नंदलाल सु निसिदिन गाइयै।।

  नागरी दास (स. १७५६-१८२१)

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जमुना पुलिन कंज गहवर की, कोकिल है द्रुम कूक मचा

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पद-पंकज प्रिया-लाल मधुप है, मधुरे-मधुरे गूँज सुना

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कूकर है ब्रज बीथिन डोलों, बचे सीथ संतन के पा

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लालित किशोरी आस यही मन, बज-रस तजि हिन अनत न जा

   ललित किशोरी (स. १८८२-१९३०)

श्रीपद अंकित ब्रज मही, छबि न कही कछु जाइ।

क्यों न रमा हूँ कौ हियौ, या सुख कौ ललचाइ।।

परम प्रेम गुन रुप रस, ब्रज संपदा अपार।

जै-जै-जै श्री गोपिका, जै-जै नंद कुमार।।

  भारतेन्दु हरिशचन्द्र (स. १९०७-४१)

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