(१.) ब्रजभाषा :
व्यापक शैली क्षेत्र
भाषा और शैली की दृष्टि से शौरसेनी
या पश्चिमी अपभ्रंश का एक व्यापक क्षेत्र था। ब्रजभाषा को एक प्रकार
से इसी व्यापक क्षेत्र की सीमाएँ विरासत
में मिली थीं। ब्रजभाषा का शैली- रुप भाषा- क्षेत्र
से कहीं अधिक विस्तृत सीमाओं का स्पर्श करता है।
ब्रज और ब्रजभाषा
कुछ लेखकों ने ब्रजभाषा नाम से उसके क्षेत्र- विस्तार का कथन किया है। "वंश
भास्कर' के रचयिता सूरजमल ने ब्रजभाषा प्रदेश दिल्ली और ग्वालियर के
बीच माना है। "तुहफतुल हिंद' के रचयिता मिर्जा खाँ ने ब्रजभाषा के क्षेत्र का उल्लेख इस प्रकार किया है "भाषा'
ब्रज तथा उसके पास- पड़ोस में बोली जाती है। ग्वालियर तथा चंदवार
भी उसमें सम्मिलित हैं। गंगा- यमुना का दोआब
भी ब्रजभाषा का क्षेत्र है।
लल्लूजीलाल के अनुसार ब्रजभाषा का क्षेत्र "ब्रजभाषा वह भाषा है, जो
ब्रज, जिला ग्वालियर, भरतपुर बटेश्वर,
भदावर, अंतर्वेद तथा बुंदेलखंड में
बोली जाती है। इसमें ( ब्रज ) शब्द मथुरा क्षेत्र का
वाचक है।' लल्लूजीलाल ने यह भी
लिखा है कि ब्रज और ग्वालियर की ब्रजभाषा
शुद्ध एवं परिनिष्ठित है।
ग्रियर्सन ने ब्रजभाषा- सीमाएँ इस प्रकार
लिखी हैं। "मथुरा केंद्र है। दक्षिण में आगरे तक,
भरतपुर, धौलपुर और करौली तक ब्रजभाषा
बोली जाती है। ग्वालियर के पश्चिमी
भागों तथा जयपुर के पूर्वी भाग तक
भी यही प्रचलित है। उत्तर में इसकी सीमा गुड़गाँव के पूर्वी
भाग तक पहुँचती है। उत्तर- पूर्व में इसकी
सीमाएँ दोआब तक हैं। बुलंदशहर, अलीगढ़, एटा तथा गंगापार के
बदाँयू, बरेली तथा नैनीताल के तराई परगने
भी इसी क्षेत्र में है। मध्यवर्ती दोआब की भाषा को अंतर्वेदी नाम दिया गया है। अंतर्वेदी क्षेत्र
में आगरा, एटा, मैनपुरी, फर्रूखाबाद तथा इटावा जिले आते हैं, किंतु इटावा और
फर्रूखाबाद की भाषा इनके अनुसार कन्नौजी हैं, शेष
समस्त भाग ब्रजभाषी है।'
केलाग ने लिखा है कि राजपूताना की
बोलियों के उत्तर- पूर्व, पूरे अपर दोआब तथा गंगा-
यमुना की घाटियों में ब्रजभाषा बोली जाती है।
डा. धीरेंद्र वर्मा ने ग्रियर्सन द्वारा निर्दिष्ट कन्नौजी क्षेत्र को
ब्रजी के क्षेत्र से अलग नहीं माना है। अपने
सर्वेक्षण के आधार पर उन्होंने कानपुर तक, ब्रजभाषी क्षेत्र ही कहा है।
उनके अनुसार उत्तर- प्रदेश के मथुरा, अलीगढ़, आगरा,
बुलंदशहर, एटा, मैनपुरी, बदायूं तथा
बरेली के जिले -- पंजाब और गुड़गावां जिले का पूर्वी
भाग -- राजस्थान में भरतपुर, धौलपुर, करौली तथा जयपुर का पूर्वी
भाग -- मध्यभारत में ग्वालियर का पश्चिमी
भाग ब्रजी के क्षेत्र में आते हैं। चूँकि ग्रियर्सन साहब का यह
मत लेखक को मान्य नहीं कि कन्नौजी
स्वतंत्र बोली है, इसलिए उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, शाहजहाँपुर,
फर्रूखाबाद, हरदोई, इटावा और कानपुर के जिले
भी ब्रजभाषा क्षेत्र में सम्मिलित कर
लिए हैं। इस प्रकार बोली जाने वाली ब्रजभाषा का क्षेत्र
अत्यंत विस्तृत ठहरता है। एक प्रकार से प्राचीन
मध्यदेश का अधिकांश भाग इसमें सम्मिलित हो जाता है।
ब्रज शैली क्षेत्र
ब्रजभाषा काव्यभाषा के रुप में प्रतिष्ठित हो गई। कई
शताब्दियों तक इसमें काव्य- रचना होती रही।
सामान्य ब्रजभाषा- क्षेत्र की सीमाओं का उल्लंघन करके ब्रजभाषा-
शैली का एक वृहत्तर क्षेत्र बना। इस बात का
अनुमान रीतिकाल के कवि आचार्य भिखारीदासजी ने किया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ब्रजभाषा का परिचय
ब्रज से बाहर रहने वाले कवियों
से भी मिल सकता है। यह नहीं समझना चाहिए कि ब्रजभाषा
मधुर- सुंदर है। इसके साथ संस्कृत और फारसी ही नहीं,
अन्य भाषाओं का भी पुट रहता है। फिर
भी ब्रजभाषा शैली का वैशिष्ट्य प्रकट रहता है। इससे यह
भी सिद्ध होता है कि ब्रजभाषा शैली
अनेक भाषाओं से समन्वित थी। वास्तव
में १६ वीं शती के मध्य तक ब्रजभाषा की मिश्रित
शैली सारे मध्यदेश की काव्य- भाषा
बन गई थी।
ब्रजभाषा शैली के क्षेत्र- विस्तार में भक्ति आंदोलन का
भी हाथ रहा। कृष्ण- भक्ति की रचनाओं
में एक प्रकार से यह शैली रुढ़ हो गई थी। पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने
अनेक प्रदेशों के ब्रज भाषा भक्त- कवियों की
भौगोलिक स्थिति इस प्रकार प्रकट की है -- "ब्रज की
वंशी- ध्वनि के साथ अपने पदों की अनुपम झंकार
मिलाकर नाचने वाली मीरा राजस्थान की थीं, नामदेव महाराष्ट्र के थे, नरसी गुजरात के थे,
भारतेंदु हरिश्चंद्र भोजपुरी भाषा क्षेत्र के थे। ...बिहार
में भोजपुरी, मगही और मैथिली भाषा क्षेत्रों
में भी ब्रजभाषा के कई प्रतिभाशाली कवि हुए हैं। पूर्व
में बंगाल के कवियों ने भी ब्रजभाषा
में कविता लिखी।'
पश्चिम में राजस्थान तो ब्रजभाषा शैलियों का प्रयोग प्रचुर
मात्रा में करता ही रहा १ और भी पश्चिम
में गुजरात और कच्छ तक ब्रजभाषा शैली
समादृत थी। कच्छ के महाराव लखपत
बड़े विद्याप्रेमी थे। ब्रजभाषा के प्रचार और प्रशिक्षण के
लिए इन्होंने एक विद्यालय भी खोला
था।
इस प्रकार मध्यकाल में ब्रजभाषा का प्रसार
ब्रज एवं उसके आसपास के प्रदेशों में ही नहीं, पूर्ववर्ती प्रदेशों
में भी रहा। बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, काठियावाड़ एवं कच्छ आदि
में भी ब्रजभाषा की रचनाएँ हुई।
ब्रजभाषा शैली के क्षेत्र विस्तार की दो स्थितियाँ रहीं। प्रथम स्थिति भाषा
वैज्ञानिक इतिहास के क्रम से उत्पन्न हुई। जब पश्चिमी
या मध्यदेशीय भाषा अनेक कारणों से अपनी
भौगोलिक सीमाओं का उल्लंघन करने
लगी, तब स्थानीय रुपों से समन्वित होकर, वह एक
विशिष्ठ भाषा शैली का रुप ग्रहण करने
लगी। जिन क्षेत्रों में यह कथ्य भाषा न होकर केवल साहित्य
में प्रयुक्त कृत्रिम, मिश्रित और विशिष्ट
रुप में ढ़ल गई और विशिष्ट अवसरों,
संदर्भों या काव्य रुपों में रुढ़ हो गई,
उन क्षेत्रों को शैली क्षेत्र माना जाएगा।
शैली- क्षेत्र पूर्वयुगीन भाषा- विस्तार
या शैली- विस्तार के सहारे बढ़ता है। पश्चिमी
या मध्यदेशी अपभ्रंश के उत्तरकालीन रुपों की विस्तृति इसी प्रकार हुई।
दूसरी स्थिति तब उपस्थित हुई जब पूर्व- परंपरा की भाषा-
शैली की क्षेत्रीय विस्तृति तो पृष्ठभूमि
बनी और शैलीगत क्षेत्र- विस्तार के ऐतिहासिक (
भक्ति- आंदोलन ) और वस्तुगत (कृष्णवार्ता ) कारण
भी उपस्थित हो गए।
|