भाषागत संबंध दो प्रकार के हो सकते हैं : क्षेत्रीय या भौगोलिक संबंध तथा ऐतिहासिक संबंध। प्रथम कोटि के संबंधों की पीठिका में ऐतिहासिक संबंध भी प्रायः रहते हैं। पर, इस स्थिति में क्षेत्रीय संबंधों को, वैज्ञानिक दृष्टि से प्रमुख स्थान मिलना चाहिए।
क्षेत्रीय
भाषा संबंध पर आधारित
इस शैली खंड में वह भू- भाग आता है, जिसकी बोलियों में आकृति मूलक या संरचनात्मक साम्य हो। कुछ ही ऐसी स्थानीय विशिष्टताएं इस क्षेत्र में मिलती हैं, जिनके आधार
पर बोली-भौगोलिक खंड काटे जा सकते हैं। इन बोली भौगोलिक खंडों को जोड़ते हुए एक शैली-खंड बन जाता है।
इस दृष्टि से बुंदेली, ग्वालियरी, कन्नौजी और पूर्वी राजस्थानी के बोली खंडों पर ब्रजभाषा का जो शैली खंड उभरता है, वह केंद्रीय स्थिति प्राप्त करता है। इस शैली खंड की विशेषता यह होती है कि विकसित शैली किसी विशेष-संदर्भ या वस्तु-विन्यास से बंध नहीं जाती। उसका प्रयोग एक से अधिक संदर्भों में हो सकता है। प्रशस्ति, ओज, श्रृंगार और भक्ति - सभी संदर्भों में यहां ब्रजभाषा शैली का प्रयोग होता रहा। संदर्भ की संरचना के अनुसार शैली-संगठन भी शिथिल का तनावपूर्ण होता रह सकता है।
ऐतिहासिक भाषा संबंध पर आधारित
दूसरा स्थान उस शैली खंड है, जिसके क्षेत्रीय भाषा- रुपों में ऐतिहासिक भाषा संबंध एवं तज्जन्य संरचनात्मक साम्य हो। पश्चिमी राजस्थानी, मालवी एवं गुजराती भाषा- खंडों को जोड़ते हुए, जो ब्रजभाषा- शैली क्षेत्र बनता है, वह इसी कोटि में आता है। इस क्षेत्र की ऐतिहासिक परंपरा पश्चिमी या मध्यदेशी अपभ्रंश की ही परंपरा है। आगे इसी क्षेत्र में अवहट्ठ शैली का प्रादुर्भाव हुआ। ऐतिहासिक भाषा- संबंध को सांस्कृतिक संबंध भी पुष्ट कर रहे हैं। ब्रज और गुजरात का संबंध सांस्कृतिक भी है और वैष्णव संदर्भीय भी। राजस्थान और मालवा के साथ भी ये ही संबंध सूत्र हैं। इन सब संबंध सूत्रों की झंकृति साहित्य और लोक- साहित्य दोनों ही साक्ष्यों में उपलब्ध है।
इस क्षेत्र में शैली कुछ- कुछ संदर्भ रुढ़ होने लगती है।
उपखंड :
भौगोलिक समीपता और वैष्णव
सूत्र पर आधारित
सिंध और पंजाब का ब्रजभाषा शैली क्षेत्र इसी प्रकार का उपखंड है। सिंध की उपलब्ध
सामग्री वैष्णव संदर्भीय ही है। भौगोलिक समीपता से वह पुष्ट है। पंजाब में ब्रजभाषा शैलीग्रहीत है। पर आवश्यक रुप से वैष्णव संबंध सूत्र नहीं है। घनानंद आदि वैष्णवों ने पंजाबी मिश्रित ब्रजी या शुद्ध पंजाबी में वैष्णव- वस्तु को भी उतारा है।
सिंधी और पंजाबी की प्रकृति ब्रजी के निकट नहीं है। सिंधी ब्रजी के पंजाबी की अपेक्षा निकटतर है। दोनों में उकार- प्रवृति एक सीमा तक समान है। फिर भी, ब्रजभाषा शैली का एक उपखंड इन क्षेत्रों को मिलाकर स्थापित हुआ। धर्माश्रय और राज्याश्रय भी इसको मिला। आगे परंपरा
भी चली।
पूर्वशैली और वैष्णव सूत्रों पर आधारित
बिहार और बंगाल के क्षेत्र में अवहट्ठ शैली बहुत पहले ही पहुँच चुकी थी। पश्चिमी क्षेत्रों का इन क्षेत्रों से शैली तात्त्विक संबंध स्थापित हो गया था। वैष्णव पुनर्जागरण के युग में यह सूत्र नवीन संबंधों की पृष्ठभूमि बनाने लगा। इस युग में ब्रजभाषा ने मैथिली और बंगाली रुपों के साथ संबद्ध होकर ब्रजबुलि ने शैली को जन्म दिया। इस उपखंड में पीछे आसाम और उड़ीसा भी सम्मिलित हो गए। ब्रज और पूर्वी अंचल के इस खंड के बीच वैष्णव संबंध सूत्र अत्यंत दृढ़ हैं। अनेक बंगाली आचार्यों और भक्तों के लिए ब्रज साधनाभूमि रही है। अभी भी बंगाल और मणिपुर के अनेक साधक आजीवन ब्रज- निवास का संकल्प लेकर आते हैं। कृष्ण और राधा के प्रतीक इस संबंध को कभी शिथिल नहीं होने देंगे। क्षेत्रीय वितरण की दृष्टि से यह शैली- खंड चाहे विरल हो, पर एक विशिष्ट संदर्भ में सघनता बनी हुई है।
शुद्ध वैष्णव सूत्रों पर आधारित
महाराष्ट्र और शौरसेन क्षेत्र के बीच प्राकृत युग में संभवतः कोई शैली तात्विक संबंध भी रहा हो, पर आधुनिक खोजों ने इस संबंध को अस्वीकृत कर दिया है। महाराष्ट्र की उपलब्ध सामग्री में सधुक्कड़ी शैली भी मिलती है और ब्रजभाषा शैली भी। ब्रजभाषा शैली से स्थानीय भाषा भी कहीं- कहीं प्रभावित मिलती है और शुद्ध शैली का प्रयोग भी मिलता है।
परवर्ती युग में राज दरबार ने भी ब्रजभाषा कवियों को आश्रय दिया। इस प्रकार भक्ति से इतर संदर्भ में भी इस क्षेत्र में ब्रजभाषा शैली का प्रयोग हुआ।
यह ब्रजभाषा शैली का विरल उपखंड है।
वैष्णव सूत्र और संगीत
शैली पर आधारित
दक्षिण में ब्रज की संगीत शैली के उदाहरण के रुप में पद मिलते हैं। उनमें कृष्ण- वृत्त
भी है, जैसे संगीत के अनेक संप्रदाय भारत में बन रहे थे, उसी तरह ग्वालियर क्षेत्र में ध्रुपद जैसी विशिष्ट संगीत शैलियाँ पनप रहीं थीं। इन शैलियों की स्वीकृति का ही प्रमाण दक्षिण की सामग्री है। पदों का संकलन भी प्रायः संगीत- संग्रहों में है। यह ब्रजभाषा शैली का अत्यंत विरल उपखंड है।
यह स्पष्ट है कि ब्रजभाषा की सीमाओं से ब्रजभाषा शैली की सीमाओं का विस्तार बहुत अधिक है। ब्रजभाषा शैली के क्षेत्र विस्तार के कारण मुख्यतः ऐतिहासिक हैं। साथ ही कृष्णाश्रित काव्यवस्तु की अभिव्यक्ति की आवश्यकता भी विस्तृति का कारण है। वस्तु की व्यापकता और लोकप्रियता में भी शैली- विस्तार के कारण निहित रहते हैं। एक विशेष वस्तु के साथ संबद्ध होकर जब भाषा- शैली काव्य और संगीत, दोनों का माध्यम बनती है, तब शैली- विस्तार की संभावनाएँ और अधिक बढ़ जाती है।
ब्रजभाषा
सजन सरल घनस्याम अब, दीजै रस बरसाय।
जासों ब्रजभाषा - लता , हरी - भरी लहराय।।
भुवन- विदित यह जदपि चारु भारत भुवि पावन।
पै रसपूर्न कमंडल ब्रज- मंडल मनभावन।।
परम-पुन्यमय प्रकृति-छटा जहं बिधि बिथुराई।
जग सुर- मुनि- नर मंजु जासु जानत सुघराई।।
जिहि प्रभाव-बस नित-नूतन जनधर सोभा धरि।
सफल काम अभिराम सघन धनस्याम आपु हरि।
श्रीपति- पद- पंकज-रज परसत जो पुनीत अति।
आय जहाँ आनंदकरनि अनुभव सहृदय मति।।
जुगुल चरन-अरविंद-ध्यान-मकरंद-पान- हित।
मुनि-मन मुदित मलिंद निरंतर बिरमत जहं नित।।
तहं सुचि सरल सुभाव रुचिर गुनगन के रासी।
भोरे- भोरे बसत नेह बिकसित ब्रजवासी।।
जिहि आस्त्रय लहि कवि-मल-कर तुलसी- सौरव जसु।
मंजु मधुर मृदु सरस सुगम सुचि हरिजन सरबसु।।
केसव अरु मतिराम, बिहारी, देव अनूपम।
हरिश्चंद से जासु कूल कुसुमित रसाल द्रुम।।
"अष्टछाप' अनुपम कदंब अघ- ओक- निकंदन।
मुकुलित प्रेमाकुलित सुखद सुरभित जग बंदन।।
तुरत सकल भय हरनि आर्य- जागृति जय- सानी।
जन- मन निजबस- करिनि लसित पिक भूषन बानी।।
विविध रंग- रंजित मन- रंजन सुखमा आकर।
सुचि सुगंध के सदन खिले अगनित पदमाकर।।
जिन पराग सौं चौकि भ्रमत उत्सुकता- प्रेरे।
रहसि- रहसि रसखान रसिक अलि गुंज घनेरे।।
बरन- बरन में मोहन की प्रतिमूर्ति बिराजति।
अच्छर आभा जासु अलौकिक अद्भुत भ्राजति।।
संदर्भ :--
१. मध्यकाल के मीरा, कृष्णदास, अग्रदास और सुंदरदास ही ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवि थे।
२. रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. १८
३. वही, पृ. ७०
४. डा. शिवप्रसाद सिंह, सूर पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य, पृ.४९
५. अगंरचन्द नाहटा, "ग्वालियरी हिंदी का प्राचीनतम ग्रंथ' भारती, मार्च १९५५, दोहा इस प्रकार है, जो गोपालकवि कृत बतलाता गया है --
ग्वालेरी भाषा गपिल मन्द अरथ भतिभाव।
बात बन्य किय भाषवित, समुझत हिय संभाव।
६. जन्म सं. १५२५ के आसपास। रामानंदी संप्रदाय में रामानंद के शिष्य नरहरि के शिष्य। आदि ग्रंथ में इनकी वाणी संकलित।
७. गुरु गोविंदसिंह क दरबारी कवियों में अमीराय, आलम, सुदामा, सेनापति, राम स्याम, हंसराय, टहकन, कुमरेश, चंदन, धन्नसिंह का नाम स्मरणीय है। गुरु अर्जुन के दरबार के प्रमुख कवि ये
हैं:- कल्ला, जल्हन, नल, कलसहर, मथुरा, जालय, बल्ल, हरिवंश, टल्ल, सल्य,जल्य, मल्य, दास, कीरत, गयंद, सेवक आदि।
८. ग्वाल, हाशम, बुधासिंह, गणेश कवि, शिवदयाल और जयसिंह का संबंध महाराजा रणजीतसिंह
के दरबार से था। पटियाला से संबंधित कवि ये हैं :- केशोदास, धर्मसिंह, जगतिदास, रामदास, बसंतसिंह, भगवानसिंह, फूलसिंह, रामसिंह, चंद्रशेखर वाजपेयी, देवीदत्तराम, उमादास, बनवारी, रुपचंद, नैन, साहबसिंह, मृगेंद्र, निहाल आदि। विस्तृत सूची और परिचय के लिए द्रष्टव्य, डा. सत्येंद्र, ब्रज साहित्य का इतिहास, पृ. ६८२- ६८६।
९. चंद्रकांत बाली, ब्रज भारती ( सं. २०१३ ) ज्येष्ठ, पृ. ५३- ५४ ।
१०. पद रचना जितनी ब्रजबुली में हुई, उतनी बंगला भाषा में भी नहीं हुई। स्वयं रतीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस शैली में "भानुसिंह ठाकुर पदावली' की रचना की।
११. डा. न. चि. जोगलेकर, हिंदी एवं मराठी के वैष्णव साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन,पृ. ७१०
१२. गोपाल प्रसाद व्यास, ब्रजविभव, दिल्ली १९८७ ई. पृष्ट २७७- २९०
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