अष्टछाप संबंधी वार्ताओं के रचयिता
"चौरासी' और "दो सौ बावन' वार्ता पुस्तकों के रचयिता के संबंध के बहुत दिनों से विद्वानों में विवाद चला आ रहा है। साधारणतया ये पुस्तकें गोस्वामी विट्ठलनाथ के चतुर्थ पुत्र गोस्वामी गोकुलनाथ कृत मानी जाती हैं, किंतु पुष्टि संप्रदाय से संबंधित व्यक्तियों से इतर ऐसे अनेक अध्ययनशील व्यक्ति हैं, जो इस मत को स्वीकार नहीं करते।
हिंदी के माननीय विद्वान डा. धीरेंद्र वर्मा ने सं. १९६० में डाकोर से प्रकाशित "चौरासी'
एवं "दो सौ बावन' वार्ताओं के संस्करणों के आधार पर सन १९२९ में "अष्टछाप' नामक एक छोटी- सी पुस्तक का संकलन किया था। इस पुस्तक में अष्टछाप की वार्ताएँ मूल रुप में संकलित की गई हैं। पुस्तक के मुख्य- पृष्ठ पर "श्री गोकुलनाथ कृत अष्टछाप' छपा हुआ है। इस पुस्तक के "वक्तव्य' में डा. वर्मा ने लिखा है --
""गोकुलनाथजी ने "अष्टछाप' नाम से कोई पुस्तक नहीं लिखी है। प्रस्तुत पुस्तक गोकुलनाथजी के नाम से प्रचलित "८४ वैष्णवन की वार्ता' तथा "२५२ वैष्णवन की वार्ता' शीर्षक ग्रंथों से अष्टछाप कवियों की जीवनियों का संग्रह मात्र है।''
इसी पुस्तक के पृष्ठ ११२ की टिप्पणी में उन्होंने लिखा है --
""चतुर्भुजदास की वार्ता में तथा "दो सौ बावन की वार्ता' में अन्य स्थलों पर भी गोकुलनाथ का नाम इस तरह आया है कि इस ग्रंथ के गोकुलनाथ कृत होने में संदेह होने लगता है। "चौरासी वार्ता' में ऐसे उल्लेख नहीं मिलते।''
वार्ताओं के रचयिता और उनकी प्रामाणिकता के विषय में कितने ही विद्वानों ने शंकाएँ की हैं। इस संबंध में कुछ लिखने से पूर्व हम गो. गोकुलनाथजी और श्री हरिरायजी के संक्षिप्त जीवन- वृत्तांत लिखना चाहते हैं। वार्ताओं के रचयिता और उनके संपादक के रुप में इन दोनों महानुभावों के नाम लिए जाते हैं। उनकी जीवन- घटनाओं से परिचय प्राप्त होने पर वार्ताओं की प्रामाणिकता की जाँच करने में हमकों सुविधा होगी।
गो. गोकुलनाथजी
गो. गोकुलनाथ गुसाई विट्ठलनाथजी के चतुर्थ पुत्र थे। उनका जन्म सं. १६०८ में हुआ था। वे सं. १६९७ तक जीवित रहे, इससे ज्ञात होता है कि उन्होंने दीर्घायु प्राप्त की थी। विट्ठलनाथजी के सातों पुत्रों के कारण पुष्टि संप्रदाय में जिन सप्तगृहों अथवा सप्तपीठों की स्थापना हुई थी, उनमें गो. गोकुलनाथ के वंशजों का चतुर्थ गृह कहलाता है। पुष्टि संप्रदाय के छह गृहों के सांप्रदायिक सिद्धांतों में कोई उल्लेखनीय भिन्नता नहीं है, किंतु गोकुलनाथजी की गद्दी का शिष्य- समुदाय, जो भडूची वैष्णवों के नाम से प्रसिद्ध है, अन्य गद्दियों की अपेक्षा कुछ सांप्रदायिक विचार- विभिन्नता रखता है।
कहते हैं, जिस समय गो. गोकुलनाथ का जन्म हुआ था, उस समय उनके पिता गोसाईं
विट्ठलनाथजी ठाकुर- सेवा में लगे हुए थे। पुत्रोत्पत्ति का समाचार सुनकर उनको ठाकुरजी की सेवा बीच में ही छोड़कर बाहर आना पड़ा। उस समय गोसाईजी ने कहा था कि इस बालक के कारण ठाकुरजी की सेवा में बाधा पड़ी है, अतः इसका सेवक- समुदाय ठाकुरजी की स्वरुप- सेवा से बहिर्मुख रहेगा। जो कुछ भी हो, गोकुलनाथजी की गद्दी का शिष्य समुदाय ठाकुरजी की स्वरुप- सेवा को न मानकर गोकुलनाथजी की गद्दी को ही सर्व मानता है।
गोकुलनाथ जी बड़े विद्वान पुरुष थे। अपने पिता के जीवन काल में ही वे संप्रदाय के व्याख्याता रुप में प्रसिद्ध हो चुके थे। गोस्वामी विट्ठलनाथजी के देहावसान के पश्चात सं. १६४२ से १६४५ तक उनके सातों पुत्र एक साथ रहते थे। सं. १६४५ के बाद उन्होंने अपने- अपने सेव्य स्वरुपों और शिष्यों की अलग- अलग व्यवस्था करना प्रारंभ किया। अपने विद्वत्तापूर्ण व्याख्याओं के कारण गोकुलनाथजी का इन दिनों विशेष महत्व बढ़ गया था। अपने व्याख्यानों और प्रवचन में वे भगवत- चर्चा और सांप्रदायिक रहस्योद्घाटन के अतिरिक्त बल्लभाचार्यजी एवं विट्ठलनाथजी के शिष्यों की जीवन- घटनाओं का भी कथन किया करते थे। अपने पितामह एवं पिता के महान शिष्यों की चरित- चर्चा से उनका यह अभिप्राय था कि पुष्टि संप्रदाय का शिष्य समुदाय उनके आदर्श चरित्र और सांप्रदायिक अनन्य निष्ठा से शिक्षा ग्रहण करें और तदनुकूल आचरण करे।
महाप्रभु बल्लभाचार्य और गोसाई विट्ठलनाथ के भक्त- शिष्यों की पुनीत जीवन- चर्चा विषयक गोकुलनाथजी के प्रवचन इतने रोचक और शिक्षाप्रद होते थे कि संप्रदाय के सभी सेवक उनको बड़ी श्रद्धा से सुना करते थे। ये मौखिक प्रवचन अनेक भक्तों द्वारा लिपिबद्ध कर लिए गए और एक से दूसरे द्वारा बराबर लिखे जाते रहे।
गो. गोकुलनाथजी के ये मौखिक प्रवचन ही चौरासी और दो सौ बावन वार्ताओं के मूल रुप हैं। इन प्रवचनों के लिखित रुप में प्रचार होने के बहुत दिनों बाद श्री हरिरायजी ने उनका संकलन किया और गोकुलनाथजी के तत्वावधान में उनका वार्ताओं के रुप में संपादन किया। इस सर्वप्रथम संकलन में न तो सभी भक्तों की जीवन- कथाओं का समावेश हुआ था और न उनका चौरासी और दो सौ बावन वार्ताओं के रुप में वर्गीकरण हुआ था।
गोकुलनाथ के अंतिम दिनों में हरिरायजी ने इन वार्ताओं का पुनः संपादन किया। उस समय शेष भक्तों के जीवन- वृत्तांतों की पूर्ति की गई और उनको चौरासी और दो सौ बावन वार्ताओं के रुप में विभाजित किया गया। इसी समय वार्ताओं के प्रसंग की पूर्ति के लिए जहाँ- तहाँ गोकुलनाथजी के नाम का भी समावेश किया गया, जो हरिरायजी ने अपनी ओर से किया था।
चौरासी और दो सौ बावन वार्ताओं के गोकुलनाथजी कृत होने का इतना ही अभिप्राय है कि उनके मूल वचन सर्वप्रथम उन्हीं के श्रीमुख से निकले थे।
गोकुलनाथजी दीर्घजीवी होने के कारण अपने तीनों बड़े भाइयों के देहावसान के बहुत दिनों बाद तक जीवित रहे। वे बहुत समय तक संप्रदाय के आचार्य और उसके व्यवस्थापक बने रहे, जिसके कारण वे अपने निजी भक्तों के अतिरिक्त संप्रदाय के सभी सेवकों के आदरणीय थे। उनके वचनामृत भी समान रुप से सबको मान्य थे।
पुष्टि संप्रदाय के एक प्रमुख विद्वान और आचार्य होने के कारण गोकुलनाथजी का सांप्रदायिक महत्त्व तो है ही, किंतु वार्ता- पुस्तकों के कारण उनका साहित्यिक महत्त्व बहुत अधिक है। गो. विट्ठलनाथ ने सांप्रदायिक ग्रंथों की मौखिक व्याख्या और "श्रृंगार रस मंडन' ग्रंथ की रचना द्वारा ब्रजभाषा गद्य के प्रचार- कार्य का जो आरंभ किया, वह गोकुलनाथजी के समय में प्रवचनों और वार्ता पुस्तकों द्वारा और भी उन्नति को प्राप्त हुआ। हिंदी गद्य साहित्य के विकास में पुष्टि संप्रदाय की वार्ता पुस्तकों का विशेष महत्त्व है, जिसके कारण गोकुलनाथजी का नाम आदरपूर्वक लिया जाता है।
गोकुलनाथजी द्वारा रचित कई ग्रंथ और बहुत से वचनामृत प्रसिद्ध हैं। अंत में ८९ वर्ष की दीर्घायु प्राप्त होने पर सं. १६९७ की फाल्गुन कृ.९ को उनका देहावसान हो गया।
श्री हरिरायजी
श्री हरिरायजी गो. विट्ठलनाथजी के द्वितीय पुत्र गोविंदरायजी के पौत्र और कल्याणरायजी के पुत्र थे। उनका जन्म सं. १६४७ की भाद्रपद कृ. ५ को हुआ था। वह गो. गोकुलनाथजी के बड़े भाई के पौत्र होने के कारण उनके निकट संबंधी और शिष्य थे। आरंभ से ही हरिरायजी गोकुलनाथजी के संपर्क में रहे, अतः वे उनके ग्रंथों के अभ्यासी और उनके सांप्रदायिक सिद्धांतों के रहस्योदघाटक थे।
वह गोकुलनाथजी द्वारा वचनामृत रुप से कही हुई मौखिक वार्ताओं के आदि संपादक और प्रचारक थे। वह संस्कृत, गुजराती और ब्रजभाषा के प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने इन तीनों भाषाओं में गद्य- पद्यात्मक अनेक ग्रंथों की रचना की है। उनका सबसे महत्त्वपूर्व कार्य वार्ता
साहित्य का संकलन और संपादन है। उन्होंने चौरासी और दो सौ बावन वार्ता- पुस्तकों के संपादन के अतिरिक्त "निज वार्ता', "घरु वार्ता' आदि कई वार्ता- पुस्तकों की रचना भी की थी। इस प्रकार वे ब्रजभाषा गद्य के बड़े भारी लेखक थे।
ब्रजभाषा गद्य- लेखक के रुप में जो श्रेय गो. गोकुलनाथ को दिया जाता है, वह वास्तव में हरिरायजी की देना चाहिए, क्योंकि वार्ता- पुस्तकों के यथार्थ रचयिता वह ही थे। खेद है इतने बड़े साहित्यकार होने पर भी हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों में उनके महत्व का दिग्दर्शन नहीं कराया गया है। पं. रामचंद्र शुक्ल और डाक्टर श्यामसुंदरदास के सुप्रसिद्ध इतिहास ग्रंथों में उनका नामोल्लेख भी नहीं है और मिश्र- बंधुओं एवं रसालजी के इतिहास ग्रंथों में उनका वर्णन अधूरी सूचना के साथ दिया गया है।
"मिश्रबंधु विनोद' में हरिरायजी का जीवन- वृत्तांत न लिखते हुए उनकी कुछ पुस्तकों का नामोल्लेख किया गया है। उक्त ग्रंथ में उनका रचना काल सं. १६०७ लिखा गया है, जो अशुद्ध है। हरिरायजी का जन्म सं. १६४७ और देहावसान सं. १७७२ में हुआ था। यदि उन्होंने बीस वर्ष की आयु में ग्रंथ- रचना आरंभ की हो, तो उनका रचना काल सं. १६६७ से १६७२ तक हो सकता है। रसालजी ने भक्तिकाल में गद्य रचना शीर्षक के अंतर्गत गो. विट्ठलनाथ, नंददास और गोकुलनाथजी के गद्य ग्रंथों का उल्लेख कर यह "नोट' लिखा है --
""जान पड़ता है कि वार्ता लिखने की शैली सी चल पड़ी थी, क्योंकि इसी प्रकार की वार्ताएँ श्री हितहरिजी ने भी लिखी हैं। उक्त ग्रंथ ब्रजभाषा गद्य में हैं ४ ।
यहाँ पर "हितहरि' से रसालजी का अभिप्राय से ही ज्ञात होता है। हरिरायजी ने अपनी रचनाएँ हरिराय, हरिधन, हरिदास एवं रसिक आदि कई नामों से की हैं, अतः वे पुष्टि संप्रदाय के कुछ अध्ययनशील व्यक्तियों के अतिरिक्त जन- साधारण के लिए अपरिचित से बने हुए हैं।
उन्होंने चौरासी और दो सौ बावन वार्ता- पुस्तकों के संपादन के अतिरिक्त उनके गूढ़ भावों को स्पष्ट करने के लिए उन पर "भाव- प्रकाश' नामक टिप्पण की भी रचना की है। इस "भाव-प्रकाश' का सर्वप्रथम हिंदी संसार को अभी कुछ वर्ष पहले संवत् १९९६ में हुआ। जब कांकरौली विद्या- विभाग द्वारा "प्राचीन- वार्ता रहस्य' का प्रथम भाग छपकर प्रकाशित हुआ।
हरिरायजी ने कई बार यात्राएँ कर पुष्टि संप्रदाय का व्यापक प्रचार किया था। उन्होंने वार्ताओं में वर्णित भक्तों के जीवन- वृत्तांत की विशेष रुप से खोज कर उनको विशेष सूचना के साथ अपने "भाव- प्रकाश' में प्रकट किया है।
उनका आरंभिक जीवन गोकुल में व्यतीत हुआ और वे सं. १७२६ तक वहीं पर रहे। सं. १७२६ में औरंगजेब के उपद्रव के कारण जब पुष्टि संप्रदाय के सेव्य स्वरुप जतीपुरा और गोकुल से हटाकर हिंदू राजाओं के राज्यों में ले जाए गए, तब हरिरायजी भी श्रीनाथजी के स्वरुप के साथ नाथद्वारा गए थे। उस समय तक वे चौरासी और दो सौ बावन वार्ताओं का संकलन कर चुके थे, किंतु संभवतः "भाव- प्रकाश' की रचना तब तक नहीं हुई थी। हरिरायजी के शिष्य विट्ठलनाथ ने सं. १७२९ में "संप्रदाय कल्पद्रुम' नामक ग्रंथ की रचना की थी। उस ग्रंथ में हरिरायजी की रचनाओं के नामोल्लेख में "भाव- प्रकाश' का स्पष्ट कथन नहीं है, इससे ज्ञात होता है कि उसकी रचना उन्होंने अपने उत्तर जीवन में सं. १७२९ के बाद की थी।
"भाव- प्रकाश' द्वारा हिंदी में भाषा पुस्तकों पर टीकाएँ लिखने की नवींन पद्धति का प्रचार हुआ। संभवतः इसी के अनुसरण पर नाभाजी के "भक्तमाल' पर सं. १७८० में प्रियादास ने पद्यात्मक टीका लिखी थी। इसके बाद केशव, बिहारी आदि हिंदी के कितने ही कवियों की पुस्तकों पर गद्य- पद्यात्मक टीकाएँ लिखी गई। इन टीकाओं के देखने से स्पष्ट ज्ञान होता है कि "भाव- प्रकाश' में जैसी पुष्ट गद्य- शैली का प्रयोग हुआ है, वैसी बाद की टीकाओं में नहीं देखी गई, शायद इसी कारण ब्रजभाषा गद्य का बाद में प्रचार रुक गया।
हरिरायजी ने १२५ वर्ष की पूर्ण आयु प्राप्त कर सं. १७७२ में परम धाम को प्रस्थान किया। वे सौ वर्ष से अधिक समय तक इस भूतल पर सांप्रदायिक प्रचार और साहित्य- सेवा करते रहे।
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