क्या वार्ताओं का निभ्रार्ंत
रुप से उपयोग हो सकता है ?
उपर्युक्त
बातों से वार्ताओं की प्राचीनता और प्रामाणिकता के अतिरिक्त
उनका गोकुलनाथजी एवं हरिरायजी द्वारा
रचित होना भी सिद्ध होता है। ऐसी दशा
में यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होना चाहिए कि अष्टछाप की जीवन- घटनाओं के
संबंध में वार्ताओं का निभ्रांत रुप
से उपयोग हो सकता है या नहीं। गोकुलनाथजी का जन्म
सं. १६०८ में होने के कारण अष्टछाप के कई महानुभावों
से उनका व्यक्तिगत परिचय होगा और कई महानुभावों की आँखों देखी जीवन- घटनाएँ उन्होंने विश्वसनीय
व्यक्तियों से सुनी होंगी, इसलिए उनके
समय में लिखी हुई चौरासी वार्ता की घटनाओं को उसी
रुप में स्वीकार करने में बाधा नहीं होनी चाहिए। इसी प्रकार हरिरायजी द्वारा खोज और विश्वसनीय
साधनों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर
लिखित "भाव- प्रकाश' की घटनाओं को
स्वीकार करने में भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हमें खेद हैं कि अष्टछाप के जीवन
वृत्तांत के लिए वार्ताएँ और भाव प्रकाश को प्रधान आधार
मानते हुए भी उनमें उल्लिखित समस्त
बातों को हम निभ्रांत रुप से स्वीकार करने
में असमर्थ हैं।
वार्ताओं की प्राचीनता और उनको गोकुलनाथजी द्वारा कथित और हरिरायजी द्वारा
संपादित मानते हुए भी उनकी सांप्रदायिक एवं
भावनायुक्त शैली के कारण आजकल के
वैज्ञानिक युग में उनको उसी रुप में ज्यों की त्यों
स्वीकार नहीं किया जा सकता। हम जानते हैं कि गोकुलनाथजी एवं हरिरायजी दोनों का अभिप्राय इन
वार्ताओं द्वारा पुष्टि संप्रदाय के आचार्य और
उनके भक्तों के महत्व की वृद्धि करना एवं
उनकी जीवन- घटनाओं को इस रुप में उपस्थित करना था कि
संप्रदाय के सेवक उनकी ओर आकर्षित होकर तदनुकूल आचरण करने की चेष्ठा
करें। ऐसी दशा में कुछ अलौकिक और अतिशयोक्ति पूर्ण
वर्णनों का सम्मिलित हो जाना भी सर्वथा
संभव था।
चौरासी वार्ता की प्राचीन प्रति के कारण महाप्रभु
बल्लाभाचार्य के शिष्यों की जीवन घटनाएँ प्रामाणिक
मानी जा सकती हैं, किंतु दो सौ बावन
वार्ता की वैसी ही प्राचीन प्रति के अभाव
में हम गो. विट्ठलनाथजी के शिष्यों की जीवन घटनाओं के
लिए हरिरायजी कृत भावप्रकाश युक्त "अष्टसखान की
वार्ता' पर ही निर्भर हैं। हरिरायजी ने अपने
भाव प्रकाश की रचना अष्टछाप के जीवन- काल
से कम- से- कम सौ वर्ष बाद की थी, इसलिए
उनकी परिश्रम से प्राप्त सूचनाओं में भी कुछ
बातें भ्रमात्मक सिद्ध हो सकती हैं। इसलिए आगामी पृष्ठों
में अष्टछाप के जीवन वृत्तांत लिखते हुए अपने कथन का प्रधान आधार चौरासी और अष्टखान की
वार्ताओं को मानने पर भी उनमें उल्लिखित
बुद्धि- अग्राह्य एवं अन्य साधनों से अप्रामाणिक सिद्ध हो जाने
वाली घटनाओं को हमने स्वीकार नहीं किया है।
वार्ताओं में निश्चित क्रम का अभाव
गत पृष्ठों में लिखा जा चुका है कि गो. गोकुलनाथजी ने पुष्टि
संप्रदाय के भक्तों की चर्चा करते हुए
समय- समय पर जो मूल प्रवचन कहे थे,
उनका संपादन तथा "चौरासी' और दो "सौ
बावन' वार्ताओं के रुप में उनका वर्गीकरण
श्री हरिरायजी द्वारा हुआ था। अष्टछाप
में स्थापित महाप्रभु बल्लभाचार्यजी के चार
सेवकों की वार्ताएँ "चौरासी वार्ता' के अंत
में और गो. विट्ठलनाथजी के चार
सेवकों की वार्ताएँ "दो सौ बावन
वार्ता' के आरंभ में संकलित हो गई हैं। यही आठों
वार्ताएँ जीवन- वृत्तांत के कुछ अंतर के
साथ "अष्टसखान की वार्ता' में भी दी हुई हैं।
इन वार्ताओं में अष्टछाप के आठों महानुभावों का क्रम थोड़े
से अंतर के साथ प्रायः एक- सा ही है।
बल्लभाचार्यजी एवं विट्ठलनाथजी के
सेवकों के मूल वर्गीकरण के अतिरिक्त इन क्रम का कोई
विशिष्ट उद्देश्य ज्ञात नहीं होता। इन
वार्ताओं का क्रम सांप्रदायिक महत्व,
रचना- सौंदर्य अथवा आयुक्रम के अनुसार हो
सकता था, किंतु उनमें ऐसा कोई विचार नहीं
रखा गया है। हम जानते हैं कि वार्ताओं
में साहित्यिक महत्व अथवा आयुक्रम पर दृष्टि न
रख कर सांप्रदायिक दृष्टिकोण से विचार किया गया है, किंतु
उनके क्रम में सांप्रदायिक महत्व के तारतम्य की
बात भी दिखलाई नहीं देती।
अष्टछाप संबंधी वार्ताओं में सूरदास की
वार्ता को सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। यह
बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि सांप्रदायिक
भावना, रचना- सौंदर्य एवं वयक्रम --
सभी दृष्टियों से सूरदास अष्टछाप के
मुकुटमणि हैं, किंतु किसी भी दृष्टि
से उनकी वार्ता को प्रथम स्थान देने पर उसकी
संगति प्रचलित वार्ताओं में दिए हुए अन्य महानुभावों के क्रम
से नहीं हो पाती।
निश्चित क्रम की बाधाएँ
हिंदी के अन्य साहित्यकारों के समान हम भी अष्टछाप के
सांप्रदायिक रुप की अपेक्षा उसके साहित्यिक
रुप को अधिक महत्व देते हैं। हमारी दृष्टि
में वे पुष्टि संप्रदाय के अनन्य सेवक होने की अपेक्षा हिंदी के
भक्ति साहित्य के आरंभिक कवि होने के कारण अधिक आदरणीय है। इस दृष्टिकोण के
अनुसार उनका क्रम उनकी रचनाओं के साहित्यिक महत्व के कारण होना उचित है, किंतु इसमें यह
बाधा है कि अष्टछाप की सभी रचनाएँ अभी तक प्रकाश
में नहीं आ सकीं हैं। ऐसी स्थिति में साहित्यिक दृष्टिकोण के
अनुसार क्रम निर्धारित करते समय अष्टछाप के किसी कवि के
साथ अन्याय होने की भी संभावना है। फिर इस क्रम
में महाप्रभु बल्लभाचार्य और गोस्वामी विट्ठलनाथ के
सेवकों का पृथक वर्गीकरण न रह सकेगा, जिसके कारण वह
बेमेल संगठन- सा ज्ञात होगा।
आयुक्रम ही सुविधाजनक है
इन बातों पर विचार करने से आयुक्रम के
अनुसार ही अष्टछाप के क्रम निर्धारित करने
में सुविधा ज्ञात होती है, किंतु इसमें
भी एक बाधा यह है कि अष्टछाप के सभी कवियों के जन्म-
संवत निभ्रार्ंत रुप से अभी निश्चित नहीं हो पाए हैं। फिर भी इस क्रम की
सुविधा को दखिते हुए अधिकांश विद्वानों द्वारा प्रमाणित
साधनों से निश्चित किए हुए जन्म- संवतों को
स्वीकार कर हमने आयुक्रम के अनुसार ही अष्टछाप का क्रम निश्चित किया है।
आयुक्रम के अनुसार हमारे मत से अष्टछाप
में सर्वप्रथम नाम कुंभनदास का आता है। अष्टछाप के
मुकटमणि होने के कारण सर्वप्रथम
सूरदास का उल्लेख होने से ही किसी
भी क्रम की शोभा है, किंतु आयुक्रम के
अनुसार उनको कुंभनदास के बाद ही
रखना होगा। सूरदास अष्टछाप के अन्य
समस्त कवियों में वयोवृद्ध होने पर भी कुंभनदास
से आयु में दस वर्ष छोटे थे। कुछ विद्वानों ने कुंभनदास और
सूरदास को एक ही संवत में उत्पन्न हुआ
मान कर उनको समान वय का लिखा है, किंतु प्रामाणिक
साधनों से सूरदास की अपेक्षा कुंभनदास आयु
में बड़े सिद्ध होते हैं, इसलिए अष्टछाप के कवियों
में उनको प्रथम स्थान दिया गया है।
कुंभनदास के बाद पूरनदास, उनके बाद परमानंददास और कृष्णदास,
उनके भी बाद गोविंदस्वामी को स्थान देने
में आयुक्रम के अनुसार कोई बाधा उपस्थित नहीं होती है। नंददास, छीतस्वामी और चतुर्भुजदास के जन्म-
संवत निश्चय करने में विद्वानों में
मतभेद है, किंतु प्रमाणिक साधन एवं अनुमान से निश्चित किए हुए जन्म-
संवतों के कारण हमने उनका भी क्रम निर्धारित किया है।
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