नाट्य परंपरा की चर्चा करने
से पूर्व यह बात स्पष्ट समझ लेनी चाहिए कि इस परंपरा के प्रारंभ से ही दो
रुप प्रचलित रहे हैं। इनमें एक तो नाट्यधर्मी तथा दूसरी को
लोकधर्मी परंपरा कहा जाता है।
"नाट्यशास्र' के प्रणेता भरतमुनि ने इन शब्दों पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट किया था कि जिन नाटकों की
रचना शास्रीय नियमों के अनुसार की जाती है,
वे नाटक "नाट्यधर्मी' कहलाते हैं और जिनकी
रचना स्वतंत्र रुप से लोकपरंपरा के
अनुसार की जाती है, वे नाटक "लोकधर्मी' कहलाते हैं।
नाटक नाट्यधर्मी हो अथवा लोकधर्मी, उनका एक
शैल्पिक परिवेश रहता है। साहित्यवादियों ने नाटक के शिल्प
में वस्तु, नेता और रस को महत्व दिया है, कलावादियों ने
रस, भाव, अभिनय, नृत्त, नृत्य तथा प्रस्तुतिकरण के
अन्य उपांगों को।
सुदीर्घ
परंपरा
भारत में नाट्य की सुदीर्घ परंपरा इतनी
व्यापक और सशक्त रही है कि १० शताब्दी
से पूर्व ही यहाँ की लोकधर्मी नाट्य- परंपरा
में अनेक शास्रीय तत्व भी समाहित हो चुके थे। १५
सौ वर्ष की नाट्यपरंपरा ने यहाँ के जनजीवन
में नाटक की विशाल कलात्मक चेतना का
सुंदर समन्वय कर उसे भव्य और जीवंत
स्वरुप प्रदान किया।
ब्रजभाषा की नाट्य- परंपरा भी उससे
अछूती नहीं रह सकी। इस परंपरा के इतिहास पर दृष्टि निक्षेप करने
से ज्ञात होता है कि ब्रजभाषा की परंपरा नाट्यधर्मी
रुपों में समान गति से प्रवाहित होती रही है। यह कहना दुष्कर है कि ब्रजभाषा- नाटकों का
शुभारंभ कब और कहाँ से हुआ ? उपलब्ध
सामग्री के आधार पर जो तथ्य सामने आते हैं,
वे बड़े रोचक और आश्चर्यजनक हैं। ब्रजभाषा के प्रथम नाट्य-
रुपों का परिचय असम के "अंकियानाटों'
में मिलता है।
यह सर्वविदित है कि १५ वीं शताब्दी में असम और
बंगाल में वैष्णव- भक्ति के आंदोलन की तीव्र लहर उठी। वहाँ के
भक्तों ने अपने इष्ट भगवान कृष्ण और
राधा की मनोरम लीलाओं का गुणानुवाद गीत,
संगीत, नृत्य, काव्य, प्रबंध और नाटकों के
माध्यम से किया। नाटकों में गीतों का
निबंधन ब्रजभाषा में किया गया और वहाँ के नाटकों का
स्वरुप मूलतः गीत- प्रधान ही था। ब्रजभाषा के
माधुर्य और मार्दव ने लोगों को इतना प्रभावित किया कि मिथिला- क्षेत्र के नाटकों
में भी ब्रजभाषा का प्रयोग होने लगा। यह परंपरा वहाँ आज तक
अक्षुण्ण बनी हुई है। दरभंगा तथा उसके
समीपवर्ती तिरहुत मंडल में आज भी कई गाँव
मंडली वालों के हैं, जो घुमंतु नाट्य- दलों के
रुप में देश के विभिन्न भागों में भ्रमण करते हैं और जिनके नाटकों का काव्यानुबंध ब्रजभाषा
में होता है। ये लोग इसे ब्रजभाषा न कहकर "भाषा' कहते हैं।
मैथिल नाट्य- साहित्य में अनेक नाटक ऐसे हैं, जिन्हें आज
भी "भाषा- नाटक' कहा जाता है। यह
बात अलग है कि उनकी ब्रजभाषा का
स्वरुप आज की भांति परिमार्जित नहीं है।
नाटकों की रचना
उत्तर भारत में ब्रजभाषा- नाटक का प्रथम आलेख प्राणचंद्र विरचित "हनुमन्नाटक'
मिलता है। इस नाटक की रचना उस समय हुई, जब खड़ी
बोली का लोग नाम भी नहीं जानते थे। "हनुमन्नाटक' के पश्चात ब्रजभाषा की नाट्य- परंपरा
में समयसार नामक नाटक का उल्लेख किया जाता है।
संवत १६४३ में राजा जसवंतसिंह ने प्रबोध चंद्रोदय नामक नाटक की
रचना की। यह नाटक अत्यंत लोकप्रिय सिद्ध हुआ। थोड़े ही समय में इसके
अनेक भाषाओं में रुपांतर किए गए। संवत १६४५
में जैन कवि मल्ल द्वारा इसका रुपांतर बहुत
लोकप्रिय हुआ।
संवत १६५५ में लक्खीराम द्वारा करुणा भरण नामक नाटक की
रचना की गई। ऐसा लगता है कि यह नाटक
भी अत्यंत लोकप्रिय हुआ। इसकी अनेक प्रतियां
अनेक स्थानों पर देखने को मिलती है। पश्चात
संवत् १६८६ में भरतपुर के एक कवि ने "माधव- विनोद' नामक नाटक की
रचना की। इस समय तक ब्रजभाषा का प्रभाव इतना अधिक
बढ़ चुका था कि राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब तथा विंध्य प्रदेश के
लेखक भी ब्रजभाषा को ही साहित्य
सृजन का माध्यम स्वीकार करने लगे थे।
बंगाली तथा संस्कृत भाषा के मर्मज्ञ
श्रीरुप गोस्वामी भी इस भाषा पर इतने
रीझे कि उन्होंने एक ग्रंथ संस्कृत में
लिखा। पश्चात अपने एक मित्र कवि से उसका
अनुवाद ब्रजभाषा में करने को कहा।
उनके मित्र ने श्रीरुप गोस्वामी द्वारा विरचित ग्रंथ की छाया पर ब्रजभाषा
में गोविंद विलास नामक नाटक की रचना की। इसके कुछ
समय पश्चात ही महाराजा विश्वनाथसिंह ने "आनंदरघुनंदन' नामक नाटक की
रचना की। इस नाटक के मंगलाचरण
में ब्रज तथा आंग्ल- भाषा के शब्दों का मिश्रण हैं, किंतु पूरा गद्य ब्रजभाषा का है। गुरु गोविंदसिंह के नाटक ब्रजभाषा के
सशक्त प्रमाण हैं।
संवत १८५७ में काशी के प्रसिद्ध रईस श्री गोपालचंद्रजी ने नहुष नामक नाटक की
रचना की। श्री गोपालचंद्रजी के सुपुत्र
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ब्रजभाषा में
श्री चंद्रावली नामक नाटक की रचना की।
भारतेंदु काल के अनेक लेखकों ने ब्रजभाषा के
सुंदर नाटक रचे। श्री राधाचरण गोस्वामी,
श्री किशोरीलाल गोस्वामी के तन मन धन गुसांईजी के अपंन तथा गोपाल
सखा आदि नाटक इसी परंपरा के द्योतक हैं। यहाँ तक कि जयशंकर प्रसाद ने
भी प्रारंभ में अपने नाटकों में ब्रजभाषा का प्रयोग किया। आकाशवाणी के दिल्ली तथा
मथुरा केंद्र से ब्रजभाषा की रचनाओं को खड़ी
बोली के युग में पुनः जीवन प्रदान किया। आकाशवाणी के दिल्ली तथा
मथुरा केंद्र से ब्रजभाषा के नाटकों का नियमित प्रसारण प्रारंभ हुआ।
फलतः अनेक लेखक सक्रिय हुए, जिन्होंने अल्पावधि
में ही सहस्रों ब्रजभाषा- नाटकों की
रचना की।
इस अभिनव- चेतना से ब्रजभाषा के नाटकों की विषय-
वस्तु का विस्तार हुआ। इससे पूर्व ब्रजभाषा का प्रयोग अधिकांशतः काव्य तक
सीमित होकर रह गया था। आकाशवाणी की
माँग ने नए विषयों पर लिखने का सूत्रपात किया। थोड़े ही
समय में युग का नवीन परिवेश ब्रजभाषा नाटकों
में मुखर होने लगा। विषय- वस्तु का क्षेत्र नए क्षितिजों तक विस्तरित हुआ और
लेखकों ने वेद से लेकर विज्ञान तक,
समस्त आयामों का अपने नाटकों में चित्रण किया।
ब्रजभाषा में नए नाटककारों में सर्वश्री गोपालप्रसाद
व्यास, डॉ. शरणबिहारी गोस्वामी, काका हाथरसी, डॉ.
ब्रजवल्लभ मिश्र, मोहनस्वरुप भाटिया, गोपालप्रसाद
मुदगल, डॉ. वसंत यमदग्नि, सत्यनारायण
याज्ञवल्क, रामनरेश पांडेय, सुश्री
हेमलता मिश्रा, श्यामसुंदर "सुमन',
रामनारायण अग्रवाल, कैलाशचंद्र "कृष्ण',
भगवानदत्त चतुर्वेदी, शर्मनलाल अग्रवाल,
बालमुकुंद चतुर्वेदी, त्रिलोकनाथ "ब्रजवाल' तथा डॉ. विष्णु चतुर्वेदी के नाम उल्लेखनीय हैं।
ब्रजभाषा- नाटकों की दूसरी परंपरा वह है, जो पिछले ५०० वर्ष
से अबाध गति से लोक में प्रचलित है, किंतु
उनके नाटक पुस्तक रुप में प्रकाशित न होकर
मात्र परंपरा पर आश्रित हैं। इसे लोकधर्मी नाट्य- परंपरा
अथवा परंपरित ब्रजभाषा नाट्य कहा जा
सकता है। इसके कथानक पुस्तक की अपेक्षा प्रदर्शन के
रुप में ही अक्षुण्ण बने हुए हैं। यद्यपि रासलीला, नौटंकी,
भगत, स्वांग, रामलीला तथा खेल आदि
रुप ब्रज- क्षेत्र में प्रचलितं हैं, तथापि शिल्प और
स्वरुप की दृष्टि से इनमें सर्वाधिक प्राचीन तथा कलात्मक
रुप "रासलीला' में ही देखने को
मिलता है।
रासलीला का प्रारंभ
रासलीला का प्रारंभ १६ वीं शताब्दी से
माना जाता है। अब तक लेखकों ने इसके
उद्भव
के साथ पुष्टि- मार्ग के प्रवर्तक गोस्वामी
वल्लभाचार्य, श्री घमंडदेवजी तथा श्री नारायणस्वामी के नामों का उल्लेख किया है।
लेखक इस तथ्य को भूल गए कि रासलीला का नृत्य- पक्ष किसी पूर्ववर्ती
शास्रीय नृत्य की शैली से आबद्ध है और उसकी
शिक्षा घमंडदेव जी ने चतुर्वेदी बालकों को दी, तो
स्वयं भी किसी पूर्ववर्ती नृत्याचार्य
से अपने शैशव- काल में वह शिक्षा अवश्य ग्रहण की होगी।
रास का नृत्य विशुद्धतः भारत के शास्रीय- नृत्य की पुरातन परंपरा का प्रतिरुप है। जहाँ तक आलेख का प्रश्न है, हो
सकता है, १६ वीं शताब्दी में इन आचार्यों ने उसकी अभिनवीकरण किया हो, उसकी विषय-
वस्तु को संस्कृत एवं प्राकृत से हटाकर अष्टछापी काव्य की पदावली
से सुसंबद्ध किया हो, किंतु रासलीला के अभिनय
में प्रयुक्त नांदी ( मंगलाचरण ), नृत्त, नृत्य, हस्तकों का प्रयोग (हाथ की
मुद्राएँ ), स्थानक, चारियाँ, गतियाँ तथा
वाचिक- शैली आदि विशुद्धतः इसका संबंध
भारत की प्राचीन नाट्यशास्रीय परंपरा की ओर इंगित करती है।
रासलीला का शैल्पिक परिवेश पूर्णतः नाट्यशास्रीय परंपरा के
अनुसार दिखाई देता है। इसमें मूल- कथानक "पूर्व-
रग' के पश्चात प्रस्तुत किया जाता है। हस्तकों
में "शिखर, दोल, कपिहत्थ, पताक, उत्संग तथा
मृगशीर्ष' का शास्रीय नियमों के अनुसार प्रयोग किया जाता है। प्रदर्शन के
मध्य "विषकंभक', "गर्भांक' तथा "त्रिपटी' का प्रयोग होता है। प्रसंगानुसार अभिनय- स्थल
में विभिन्न "स्थानक' निर्धारित कर लिए जाते हैं। आतोद्य
में "घन, अवनद्ध, सुषिर तथा तत्' वाद्यों का प्रयोग "आश्रावण' तथा "ऊपोहन' नामक
शास्रीय क्रियाओं के द्वारा किया जाता है। अभिनय
में आंगिक, वाचिक, सात्विक और आहार्य का नियमानुसार प्रयोग किया जाता है। इस
शैली में सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात है -- "शास्र और विधि' का नियमानुसार निबंधन, परंपरित नाट्य-
रुपों में नौटंकी तथा स्वांग आदि में
शास्रानुसार "विधि पक्ष' का निर्वाह नहीं किया जाता, केवल "शास्र- पक्ष' के कुछ अंगों का प्रयोग देखने को
मिलता है। वह प्रयोग भी शास्र से प्रसूत न होकर
रासलीला' के प्रदर्शनों से गृहीत प्रतीत होता है, क्योंकि इनमें
शास्रीय मर्यादा का स्वरुप विकृत हो गया है। "रासलीला'
में शास्रीय मर्यादा अपने यावत रुप
में परिलक्षित होती है।
स्वांग - नौटंकी- भगत
इसमें संदेह नहीं कि "स्वांग' की परंपरा नौटंकी और
भगत की अपेक्षा अधिक प्राचीन है। "स्वांग' की चर्चा जायसी तथा कबीर के साहित्य
में हुई है, नौटंकी और भगत नामक शब्द १९
वीं शती से पूर्व के साहित्य में देखने को नहीं
मिलते। मंच- शिल्प और प्रस्तुतिकरण
से यह स्पष्ट
आभास हो जाता है कि ये नाट्य- रुप
भी संस्कृत नाट्य- परंपरा में निर्दिष्ट कुछेक
लक्षणों का विकृत रुप हैं। स्वांग का "रंगा' पतंजलि कृत "महाभाष्य'
में वर्णित "ग्रंथिक' की ओर इंगित करता है।
तत्कालीन नाट्य- प्रयोगों का "ग्रंथिक कथा के
सूत्रों को अपने वर्णन द्वारा जोड़ने का कार्य किया करता था, पात्रों और घटनाओं
से दर्शकों को परिचित कराता था। ऐसा
लगता है कि कुछ विशेष वर्ग के व्यक्तियों ने अपना
स्वतंत्र नाट्य- प्रदर्शन रचने के ध्येय
से "स्वांग' की छाया पर नौटंकी और
भगत नामक शैलियों की सृष्टि की।
जहाँ तक मंचन का प्रश्न है, इन विविध
शैलियों में भेद नहीं है। सभी के प्रस्तुतिकरण की पद्धति एक जैसी है, शिल्प और
स्वरुप समान है। सर्वप्रथम "मंगलाचरण' होता है, पश्चात "रंगा'
अर्थात "सूत्रधार' कथोदघात करता है। खुले
मंच पर एक ओर वाद्य- वादक बैठते हैं, दूसरी ओर से पात्र
मंच पर प्रवेश करते हैं। कथानक चौबोला,
लावनी, बहरेतबील, सवैया, दोहा,
रोला तथा कवित्त आदि नामक छंदों में
स्वर और ताल के साथ प्रस्तुत किया जाता है।
युग के प्रभाव से कथानकों में अंतर होता रहता है। "रासलीला' का कथा- तत्व
श्रीमद् भागवत से प्रसूत है, उसमें
भक्ति की प्रधानता यथावत बनी हुई है, जबकि "भगत' और
"नौटंकी' के कथा- तत्व में बाह्य- प्रभावों के कारण
अनेक परिवर्तन होते रहे हैं। नौटंकी के अधिकांश कथानक
श्रृंगारमूलक होते गए, उनका स्वरुप
सूफी परंपरा के प्रेमाख्यानकों की
भांति परिवर्तित हो गया। मंचीय प्रसाधनों के
लिए सभी नाट्य- रुपों में सांकेतिक वस्तु- निर्देश तथा प्रतीकात्मक
मुद्राओं का प्रयोग होता है।
इन नाट्य- रुपों की प्रस्तुति खुले आकाश के तले एक
मंच- वेदी के ऊपर हुआ करती है। मंच-
वेदी के तीन ओर, कभी- कभी चारों ओर दर्शक- गण
बैठ जाते हैं। वेदी के समीप ही किसी
बंद स्थल में "सिंगार- घर' बना लिया जाता है। पात्र यहाँ
सजते हैं और भूमिका के समय यथानुसार दर्शकों के
मध्य छोड़े हुए पतले रास्ते से मंच पर प्रवेश और प्रस्थान करते हैं। इनकी
श्रृंगार पद्धति विशुद्धतः भारतीय खनिज तथा
वनस्पतियों पर आधारित रहती है।
"रासलीला' तथा नौटंकी और भगत के
मंच में दूसरा अंतर यह है कि "रासलीला'
में भूमिका करने वाले बालक तथा
मंडली के सदस्य भक्ति भावना से ओत- प्रोत रहते हैं,
उनका नैतिक आचरण विशेष धार्मिक संप्रदाय का
अनुयायी होता है। नौटंकी में पात्रों की चारित्रिक
मर्यादा का विचार नहीं किया जाता। इसमें किसी
भी वर्ण का कलाकार भूमिका कर सकता है। इनके
साथ स्री- पात्रों में वेश्याएँ भी भूमिका कर
सकती हैं। दोनों मंचों के कलाकारों के नैतिक- पक्ष
में बहुत बड़ा अंतर रहता है। इसका
मूल कारण दोनों का उद्देश्य है। रासलीला का
उद्देश्य धर्म- भावना के प्रसार पर आधारित है, नौटंकी और
स्वांग का उद्देश्य श्रृंगारिक भावना का
प्रस्तुतीकरण है, लोकानुरंजन मात्र है।
"रासलीला' की परंपरा में लगभग सौ वर्ष से रामलीला का प्रदर्शन
भी आरंभ हुआ है। इसका मंच- विधान और
शैल्पिक परिवेश स्वतंत्र न होकर
"खुले- रंगमंच' की पद्धति पर ही आधारित है। गोस्वामी तुलसीदास कृत "रामचरित
मानस' की कथा को "रामलीला' में प्रसंग- विच्छेद कर क्रमिक
रुप से प्रस्तुत किया जाता है। मानस के कथानक का विभाजन आवश्यकतानुसार कर
लिया जाता है। लीला- प्रदर्शन १० दिन
से लेकर ४० दिन तक किया जा सकता है। उसी के
अनुसार कथा का विभाजन कर लिया जाता है।
ब्रजभाषा का नाट्य- साहित्य पुस्तक की परिधि
में सिमट कर नहीं पनपा, अपितु लोक के प्रांगण
में मंच की मंदाकिनी बन कर रस की धार बहाता रहा। ब्रजभाषा
यदि रस का कलश है तो उसकी नाट्य- परंपरा
रुप- माधुरी की सरिता, जो अपने कल- कल निनाद
से लोक के हृदय में आनंदानुभूति का
रस प्रवाहित करती रहती है।
संदर्भ :- गोपाल प्रसाद व्यास, ब्रज विभव, दिल्ली १९८७ ई पृ. ३१०- ३१३
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