ब्रज-वैभव |
ब्रजभाषा का जीवनी साहित्य |
ब्रजभाषा में जीवनी
साहित्य का भी महत्वपूर्ण स्थान है।
इसके कई रुप मिलते हैं। इन रुपों
में पर्याप्त वैविध्यपूर्ण रचनाएँ उपलब्ध
हैं। यों देखा जाए तो "पृथ्वीराजरासो' जैसे ग्रंथ में भी हमें इतिहास- पुरुष पृथ्वीराज चौहान या राव पिथौरा का विवरण मिलता है। इसे उनके परम मित्र चंदवरदाई ने लिखा। इसमें पृथ्वीराज चौहान का जन्म से मृत्यु तक का विवरण है और घटनाओं को तिथियों के साथ रखा गया है। पृथ्वीराज का जीवन अपने युग के पूरे इतिहास से जुड़ा हुआ है। अतः इसमें "टाड' जैसे व्यक्ति ने इतिहास के लिए बहुत सामग्री ढ़ूढ़ निकाली। एक जीवन- चरित्र, जिसमें विस्तृत इतिहास गुंथा हुआ है, "कॉल' को तिथियों के साथ, पर जो प्रकृति से कथा- काव्य है, जिसमें काव्यगत प्रबल तत्व हैं। फिर सभी जानते हैं कि उसे लेकर अनेक विवाद हैं। उसका महत्व काव्य की दृष्टि से हो सकता है। इस आधार पर महाकवि केशव के तीन ग्रंथ "रतन बावनी, जहाँगीर जस चंद्रिका और वीर चरित्र भले हो, रतनसिंह, जहाँगीर और वीरसिंह देव के नाम से उसके समय में उन्हीं के कवि केशव द्वारा लिखे हुए हों, पर कवि ने इनकी जीवनी प्रस्तुत नहीं की, किंतु दिव्य पात्रों की कल्पना से इनका "जीवनी' से संबंध विच्छिन्न हो गया है। इसी समय के लगभग अकबर से लेकर शाहजहाँ के समय तक, तीन प्रकार की ऐसी रचनाएँ हुई, जिन्हें "जीवनी' के वर्ग में रखा जा सकता है। एक है, नाभाजी का भक्तमाल। इसका रचना काल सं. १५६० और १६८० के बीच माना जा सकता है। भक्तमाल में नाभाजी ने बताया है कि --
इस भक्तमाल के दो पहलू स्पष्ट ही प्रतीत होते हैं, एक में छप्पयों में रामानुजाचार्य से पूर्व के सभी प्रकार के भक्तों के नामों का ही स्मरण है। दूसरे में एक- एक कवि या भक्त पर एक पूरा छप्पय, जिसमें उस भक्त के विशिष्ट गुणों पर प्रकाश पड़ता है, एक छप्पय में छः चरणों के एक छंद में किसी कवि की जीवनी नहीं आ सकती। यह तो भक्तिभाव से भक्तों के नामस्मरण के लिए है, क्योंकि --
इसे जीवनी साहित्य नहीं कहा जा सकता। यह भी ठीक है, पर आगे भक्तमाल पर जो टीकाएँ हुई उनमें विस्तारपूर्वक प्रत्येक कवि के जीवन की घटनानों का वर्णन हुआ है। ऐसी पहली प्रसिद्ध टीका है -- "प्रियादास' की भक्ति रस बोधिनी। आरंभ में प्रियादासजी ने हमे बताया है कि--
प्रियादासजी को नाभाजी से प्रेरणा मिली कि कवित्त छंद में टीका कीजिए। प्रियादासजी ने कहा कि भगवान आप ही मेरे अंदर बैठ कर यह टीका लिखवाइए, मैं तो बहुत अज्ञानी हूँ। प्रियादासजी कहते हैं --
वे मानते हें कि
यह टीका स्वयं नाभादासजी ने मुझे
कहलवाई है, लिखवाई है। इस टीका
में भक्तों के कुछ विस्तृत विवरण दिए
गए हैं, इन विवरणों में उनके जीवन की
घटनाएँ और विशेषताएँ बताई गई
हैं। इसीलिए वे एक दृष्टि से "जीवनी'
का रुप ग्रहण करती प्रतीत होती हैं। जैसे
नामदेव पर नाभाजी के छप्पय में मात्र
घटनाओं की ओर संकेत है।
इन पाँचों घटनाओं का विस्तृत विवरण प्रियादासजी ने दिया है, जिसमें उनका जन्म कैसे हुआ, कैसे वह भगवान के भक्त बने, कैसे उन्होंने भगवान को दूध पीने के लिए विवश कर दिया, आदि। इसी प्रकार अन्य घटनाओं का प्रियादास जी ने प्रायः पूरा विवरण दिया है। इस प्रकार नामदेव के जीवन की एक अच्छी झांकी हमें मिल जाती हैं। इससे तो यह "जीवनी' बनती लगती है, पर समस्त घटना अलौकिकता और दिव्यता से युक्त हैं, जिससे भक्त की यशावली बन जाती है, प्रियादासजी की कमी को पूरा किया, एक अन्य भक्तकवि बालकराम ने भक्तदाम गुण चित्रम टीका लिखकर। बालकराम ने कबीर पर ५८ और ५० छंदों में विस्तृत विवरण दिया है। प्रियादास की टीका सरस कवित्तों में हैं, उनकी भाषा प्रांजल ब्रजभाषा है, जिसे बालकराम ने "चौपाइयां' छंद में लिखा है। भाषा उतनी मृदुल और कोमल नहीं। उदाहरण के लिए --
नाभाजी की भक्तमाल की एक परंपरा ही चल पड़ी। कितनी ही
भक्तमालाएँ लिखी गई। भिन्न- भिन्न संप्रदायों
में अपने- अपने संप्रदायों के भक्तों के विवरण
विशेषतः प्रस्तुत किए गए।
अनंतदास कृत ११ परचइयां प्रसिद्ध हैं,
ये त्रिलोचनदास, नामदेव, कबीरदास, पीपाजी,
रैदास, रंका- वंका, धना, सैऊसमन, अंगद,
फरीद और सिबगीबाई जैसे भक्तों पर हैं। इनमें
से अधिकांश की भाषा ब्रज है।
भक्तमाल और परचई में अधिकांश भक्तों में प्रचलित भक्तों की जीवनियों पर अनुश्रुतियों और किवंदंतियों का सहारा लिया गया है। फिर भी, हमारे पास इन भक्तों की जीवनियों के लिए सामग्री इन्हीं में से उपलब्ध हो सकती है।
चैतन्य महाप्रभु पर भी उनके चरित्र को प्रकाश में लाने वाले जीवनी के सूत्रों पर सधे ग्रंथ ब्रजभाषा में लिखे गए। ऐसा एक महत्वपूर्ण ग्रंथ श्री चैतन्य चरितामृत है। यह कविराज श्री कृष्णदास के इसी नाम के प्रसिद्ध ग्रंथ का सुकल श्याम अथवा बेनीकृष्ण कृत "ब्रजभाषा' रुपांतर है, यह १७७५ के लगभग प्रणीत हुआ।
ये आगरे में व्यवसायार्थ रहे थे। वहाँ की अपनी दिनचर्या भी दी है तथा आगरे में जिनके साथ मिलते और धर्मचर्चा करते थे, उनका भी नाम दिया है। संदभ :- गोपाल प्रसाद व्यास, ब्रज विभव, दिल्ली १९८७ ई. पृ. ३१४- ३१७
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