ब्रज-वैभव |
रवींद्र के काव्य में ब्रज- तत्व |
गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर एक महान साहित्यकार, कलाकोविद, संगीतज्ञ, तत्ववेत्ता और देशभक्त थे। इस प्रकार उनकी बहुमुखी प्रतिभा ने विविध क्षेत्रों में अद्भुत चमत्कार दिखलाया था, किंतु फिर भी वह मूलतः कवि थे -- गीतधर्मा कवि। उन्होंने अपनी किशोरावस्था से ही कविता लिखना आरंभ कर दिया था और अपने दीर्घकालीन जीन में असंख्य कविताएँ और गीतों की रचना की थी। उनके काव्य का विकास भी उनकी उत्तरोत्तर विकसित विचारधारा के अनुरुप हुआ। जो कविताएँ उन्होंने अपने आरंभिक जीवन में लिखी थीं, उनमें से अधिकांश उन्हें बाद में सारहीन ज्ञान होने लगी थीं और उनका पुनर्मुद्रण उन्होंने रुकवा दिया था। उनमें अपवाद स्वरुप वे रचनाएँ हैं, जिन्हें बंगला साहित्य में वैष्णव पदावली कहा जाता है। इनके विषय और भाव में ही नहीं, वरन इनकी भाषा में भी ब्रज के भक्तकवियों का अद्भुत अनुकरण दिखलाई देता है। यह ब्रज की सांस्कृतिक परंपरा के लिए बड़े गौरव की बात है। ब्रजबुलि में काव्य रचना ब्रज के भक्तकवियों की पदावली का मुख्य विषय राधा- कृष्ण की लीलाओं का गायन रहा है। ये रचनाएँ सदा से ही अन्य भाषा- भाषी कवियों को भी आकर्षित करती रही हैं। वे उनके रसास्वादन के साथ ही साथ उसी प्रकार की रचनाएँ इसी भाषा में लिखने का प्रयास करते रहे हैं। बंगला साहित्य में आरंभ से ही इन रचनाओं की एक समृद्ध परंपरा रही है। इनकी भाषा बंगला नहीं है, बल्कि वह ब्रजभाषा, मैथिली और बंगला का एक मिश्रित रुप है, जिसे "ब्रजबुलि' अर्थात ब्रज की बोली कहा गया है। इस भाषा में रचना करने वाले भावुक कविगण ब्रज- तत्व से इतने प्रभावित थे कि वे अपनी भावना मातृभाषा की अपेक्षा ब्रजभाषा में ही व्यक्त करना आवश्यक और सुविधाजनक समझते थे। अपनी समझ के अनुसार तो उन्होंने ब्रज की बोली में ही काव्य- रचना की है, किंतु भाषाशास्र की दृष्टि से वह एक मिश्रित भाषा है। यह स्वाभाविक ही है कि ब्रजभाषा क्षेत्र से सैकड़ों मील दूर कई भाषाओं और अनेक बोलियों की सीमाओं से परे वे बंगाली कविगण शुद्ध ब्रजभाषा की अपेक्षा मिश्रित भाषा में ही काव्य रचना कर सकते थे। आश्चर्य की बात तो यह है कि अपनी भाषा और अपने साहित्य का सच्चा अभिमान करने वाले बंगाली मनीषियों ने इस मिश्रित और कृत्रिम भाषा को बंगला साहित्य की एक परिनिष्ठ भाषा- शैली मान लिया, जिसमें कई शताब्दियों से निरंतर पद- रचना हुई है। "ब्रजबुली' में रची हुई इस "वैष्णव पदावली' का बंगला साहित्य में विशिष्ट स्थान माना गया है। रवींद्र के जन्मकाल के समय समस्त बंगाल पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध में दिग्भ्रमित सा हो रहा था। वहाँ का तथाकथित अभिजात्य वर्ग अपनी परंपरागत मान्यताओं के प्रति आस्थाहीन होकर अंग्रेजियत का अंधानुकरण करने की उतावली में था। ऐसी स्थिति में उस समय के साहित्यकार "ब्रजबुलि' में वैष्णव पदावली लिखना अनावश्यक ही नहीं समझते थे, वरन वे उस साहित्य को निम्नकोटि का मान कर उसका तिरस्कार भी करते थे। कोई भी अच्छा प्रकाशक उसे प्रकाशित करने में हिचकता था। कुछ बाजारु प्रकाशक उस समय की कतिपय रचनाओं को ग्रामीण जनता के लिए छापा करते थे। रवींद्र का कवि- हृदय आरंभ से ही ब्रज- तत्व की ओर आकर्षित हुआ था। वे बचपन से ही विद्यापति और चंडीदास की रचनाओं के साथ वैष्णव पदावली में रुचि लेते थे। उन्होंने एक पत्र में स्वयं लिखा है -- "जब मेरी आयु १३- १४ वर्ष की थी, तब से ही मैंने अत्यंत आनंद और आग्रहपूर्वक वैष्णव पदावली का पाठ किया है। उसका छंद, रस और भाव तथा उसकी भाषा सभी मुझे मुग्ध करते थे। उस अल्पायु में भी मैं, अस्पष्ट और अस्फुट रुप से ही सही, वैष्णव धर्म तत्व में प्रवेश पा चुका था।' रवींद्रनाथ उर्फ भानुसिंह ठाकुर जैसा कि लिखा जा चुका है, वह किशोरावस्था में ही वैष्णव पदावली की रसमाधुरी को "ब्रजबुलि' में व्यक्त करने के लिए सचेष्ट हो गए थे। एक दिन जब आकाश में बादल छाए हुए थे, तब जयदेव कृत "मेधैमेदुरमम्बरं वनभुवः, श्यामास्तमालद्रुमैं' का पाठ करते- करते वे अनायास पद रचना में प्रवृत्त हुए। उन्होंने जो पहला पद लिखा, उसकी प्रथम पंक्ति थी -- "गहन कुसुम कुंज माझे'। फिर तो उनके हृदय का काव्यस्रोत ही उमड़ पड़ा और वह नित्य नए- नए पदों की रचना करने लगे। उन्हें वह अपने प्रसिद्ध नाम की अपेक्षा "भानुसिंह ठाकुर' के कल्पित नाम से प्रकाशित किया करते थे। अनेक वर्षों तक पाठक इस भ्रम में रहे कि वे पद भानुसिंह ठाकुर नामक किसी प्राचीन वैष्णव कवि के रचे हुए हैं, जिनके उद्धारार्थ उनका प्रकाशन किया जा रहा है। आश्चर्य की बात है, उस काल के बड़े- बड़े साहित्य- समीक्षक भी उस भ्रम से नहीं बच सके थे। गुरुदेव ने अपनी "जीवन- स्मृति' में इससे संबंधित एक घटना का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि उस काल के एक बंगाली विद्वान ने "भारतीय गीति काव्य' विषयक अपने आलोचनात्मक ग्रंथ में भानुसिंह ठाकुर को प्राचीन वैष्णव कवि बतलाते हुए उनके पदों की अत्यंत प्रशंसा की थी। महाकवि ने साहित्य- समाज के साथ इस प्रकार का खेल क्यों खेला, इसका यथार्थ कारण बतलाना कठिन है। यह कहना तो अनुचित होगा कि अपने समकालीन साहित्कारों की दृष्टि में हीन समझे जाने वाले साहित्य से अपना संबंध जोड़कर उनकी कटु आलोचना से बचने के लिए उन्हें जीवन पर्यंत कभी झिझक नहीं हुई और आलोचकों की निंदा- स्तुति की भी उन्होंने कभी परवाह नहीं की। ऐसा मालूम होता है अपनी सहज विनोदप्रियता से उसे समय के साहित्य- समीक्षकों को भुलावे में डालकर और स्वंय उसमें रस लेने के लिए ही उन्होंने वह प्रपंच रचा था ! उन रचनाओं का संकलन "भानुसिंह ठाकुरेर पदावली' सन १८८४ में प्रकाशित हुआ था। उस समय उनकी आयु केवल २३ वर्ष की थी। सूरदासेर प्रार्थना इस पदावली के अतिरिक्त उनकी जिन रचनाओं में ब्रज- तत्व का समावेश है, उनमें "सूरदासेर प्रार्थना' नामक कविता विशेष रुप से उल्लेखनीय है। इसमें ब्रज के भक्त कवि महात्मा सूरदास के प्रति उनके हार्दिक उदगार व्यक्त हुए हैं। इसका कथानक सूरदास संबंधी वह अनुश्रुति है, जिसके अनुसार वह चर्म- चक्षुओं से एक सुंदरी के रुप पर मुग्ध होकर साधना- भ्रष्ट होने को ही थे कि भगवत्कृपा से उनके ज्ञान- चक्षुओं ने उन्हें बचा लिया। इस प्रकार "हिये की आँखें' खुल जाने से उन्होंने अपनी बाहरी आँखें फोड़ डाली थीं। रवींद्रनाथ के समय में उक्त अनुश्रुति अष्टछाप के महात्मा सूरदास से ही संबंधित समझी जाती थी, किंतु अब यह सिद्ध हो गया है कि उसका संबंध विल्वमंगल से है, न कि सूरदास से। इस कविता में ब्रज के वातायन के साथ करील- कुंज और यमुना का उल्लेख होना समीचीन था, किंतु उनके स्थान पर कदाचित भ्रम से चंपा के वृक्ष और सरयू नदी का उल्लेख हो गया है, जो इस प्रकार है --
(अर्थात -- ये वातायन, ये चंपा वृक्ष, दूर सरयू की रेखा निशि- दिन हीन अंधे हृदय में चिरकाल तक दिखलाई देंगे।)
(अर्थात -- यदि मैं अगले जन्म में ब्रज का ग्वाल- बाल हो सकूँ, तो मैं अपने घर में सुसभ्यता के प्रकाश को भी बुझा दूँगा।)
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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र