श्री कृष्ण का जन्म स्थान होने के नाते यमुना तट पर बसा हुआ पुरातन मथुरा नगर चिर विश्रुत है। यहाँ की कला निर्मिति को देखते हुए इसे भारत का एथेंस कहना युक्तिसंगत है। यहाँ कि शिल्प शालाएँ लगभग बारह शताब्दियों तक नवीन उत्साह और मौलिकता के साथ कार्य कर रही थी। भारतीय कला क्षेत्र में मथुरा ने जो योगदान दिया है, उस ओर ध्यान देने पर मथुरा एक ऐसे महत्वपूर्ण विद्या केन्द्र के रुप में सामने आता है जहाँ की कलाकृतियाँ, नयनाभिराम सहज दुर्लभ सौंदर्य, एवं बहुमुखी व्यजनाओं से ओत-प्रोत रहती थी।
शुंग काल से लेकर गुप्त काल के मध्य पनपी हुई मथुरा की कला में पाषाण और मृत्तिका के माध्यम से नवीन प्रयोग किए गए। यहाँ संस्कृति, धर्म और कला की कई त्रिवेणियों के दर्शन होते हैं। उत्तर-पश्चिम भारत और मध्य-देश की विभाजनक दहली पर बसा हुआ यह नगर अपने भौगोलिक महत्व के कारण भारतीय, भारतीय-शक तथा यूनानी सभ्यताओं की संगम-स्थली बना। ब्राह्मण, जैन और बौद्ध धर्म की त्रिधाराओं का मिलन भी मथुरा में ही हुआ, इन्हीं धाराओं के कारण मथुरा की कितनी ही महत्वपूर्ण सुन्दर कला कृतियाँ निर्मित हुई। इन त्रिवेणियों के अतिरिक्त मथुरा में एक तीसरी भव्य त्रिवेणी के दर्शन होते हैं। यह भारतीय इतिहास के तीन महत्वपूर्ण युगों अर्थात मौर्य-शुग, शक-कुषाण व गुप्त काल का संगम है। इन विभिन्न युगों ने भी मथुरा कला के निर्माण में भरपूर योग प्रदान किया।
मौर्य-शुग काल में मथुरा कला ने अपने प्राचीन परम्परा प्राप्त अभिप्रायों और धार्मिक मान्यताओं का प्रचुर उपयोग किया। ये मान्यताएँ एंव अभिप्राय यक्ष पूजा, नाग पूजा, पदमश्री या श्रीलक्ष्मी के रुप में शक्ति की आराधना, चक्र एवं चैत्य की अर्चना स्तम्भ पूजन आदि विविध रुपों में समाज में चली आ रही थी। मथुरा कला की मध्यावस्था अथवा कुषाण सम्राटों का शासन काल वस्तुत: उसका स्वर्ण युग था। इस युग की कला में दृष्टिगोचर होने वाली क्रियाशीलता, अथक लगन, उर्वरा सर्जन शक्ति तथा अभिनव प्रयोग करने की क्षमता, भारतीय कला के इतिहास में अन्यत्र दुर्लभ है। सचमुच कुषाण कलाकार नवीन प्रयोगों को करने में अत्यन्त साहसिक थे, जिसका सबसे सुन्दर उदाहरण बुद्ध प्रतिमा का निर्माणी अविष्कार है। इन कलाकारों के लिए तथा गत को साकार रुप में अंकित करना एक अपूर्व कार्य था। मध्य देश से लेकर गंधार देश के मध्य क्रियाशील रहने वाले 'सर्वास्तिवादिन', तथा 'महा-साधिको' जैसे बौद्ध सम्प्रदाय एक ऐसी धार्मिक विचारसारणिका प्रतिपादन कर रहे थे जिसका केन्द्र बिन्दु गौतम बुद्ध की साकार प्रतिमा ही थी। कुषाण कलाकारों ने इस नवीन विचार प्रणाली को समुचित रुप से अपनाया और तथागत बुद्ध की साकार प्रतिमा को जन्म दिया, जिसने आगे चलकर समूचे एशिया में बौद्ध धर्म का कायाकल्प ही कर दिया कुषाण युगीन कलाकारों का यह प्रयत्न आज कई रुपों में देखा जा सकता है।
कुषाण काल के बाद महान गुप्त वंश के साम्राज्य की स्थापना हुई, जिसके अन्तर्गत भारत का विशाल क्षेत्र शासित था। गुप्त साम्राज्य के अधीन रहकर मथुरा के कलाकारों न देव प्रतिमा तथा देवायतनों के निर्माण में समुचित हाथ बँटाया।
सौभाग्य से मथुरा की कलाकृतियों में से बहुत सी आज बची हैं। भारतीय संस्कृति, कला व धर्म का अध्ययन करने वालों के लिए मथुरा का पुरातत्व संग्रहालय एक बड़ा ही महत्वपूर्ण तीर्थ है, जहाँ पर मथुरा के प्राचीन कला-वैभव को देखा और समझा जा सकता है। संग्रहालय के विविध कक्ष, जिनमें उक्त कलाकृतियाँ सुन्दर ढ़ग से सजाकर रखी गई हैं, दर्शकों को विपुल मात्रा में निरन्तर आकृष्ट करते रहते हैं। दर्शकों की
सहायता के लिये संग्रहालय परिशर में शोध पुस्तकालय स्थापित किया गया है, जिसमें विपुल मात्र में मथुरा के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों से सम्बन्धित पुस्तकों का संग्रह उपलब्ध है। वर्तमान समय में मथुरा संग्रहालय के पश्चिम में इसकी परिशर से सती हुई स्थित में एक अलग से जैन संग्रहालय की स्थापना की गई है जिसे जल्द ही दर्शकों के लिए खोल दिया जाएगा।
मथुरा का
सामान्य ऐतिहासिक परिचय
भारतवर्ष का वह भाग जो हिमालय और विध्यांचल के
मध्य में पड़ता है, प्राचीन काल में आर्याव कहलाता था। यहाँ पर पनपी हुई
भारतीय संस्कृति को जिन धाराओं ने
सींया वे गंगा और यमुना की धाराएँ थी। इन्हीं दोनों नदियों के किनारे
भारतीय संस्कृति के कई केन्द्र विकसित हुए।
वाराणसी, प्रयाग, कोशाम्बी, हस्तिनापुर, कन्नौज आदि कितने ही ऐसे स्थान है, किन्तु यह तालिका तब तक पूर्ण नहीं हो
सकती जब तक इसमें मथुरा का समावेश न दिया जाय। यह नगर पश्चिमी
में उत्तर प्रदेश में (२७/२८ उत्तर तथा ७७/४१ पूर्व)
यमुना नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है। प्राचीन काल
से लेकर अब तक इस नगर का अस्तित्व
अखण्डित रुप से चला आ रहा है।
प्राचीन काल में मथुरा को 'मथुरा' कहते थे, क्योंकि यहाँ पर एक 'मधु' नाम का
'दैत्य' शासन करता था। अयोध्या के सूर्यवंशी
राजा रामचन्द्र के समय उनके भाई शत्रुघ्न ने 'मधु' के पुत्र 'लवण' और उसके आस-पास का प्रदेश, जिसे 'शूरसेन' कहा जाता था, महत्वपूर्ण हो गया; क्योंकि इस
समय यह स्थान भारत के एक दूसरे महापुरुष तथा धार्मिक दृष्टि
से पूर्णावतार समझे जाने वाले श्री कृष्ण का जन्म स्थान
बना। श्री कृष्ण से इसका निकटतम
सम्बन्ध होने के कारण वैष्णवों का यह प्रधान क्षेत्र हो गया।
वैष्णवों के समान बौद्धों का भी इस स्थान
से निकट का सम्बन्ध रहा। बुद्ध के जन्म के पूर्व ही
मथुरा की गणना भारत के प्रमुख सोलह
राज्यों या जनपदों में की जाती थी। ऐसा
माना जाता है कि स्वयं बुद्ध मथुरा पधारे थे।
बौद्ध के समान जैन भी इस नगर के महत्व को
स्वीकार करते थे। यह प्राचीन काल से ही जैन तीर्थकर 'सुपार्श्वनाथ' का स्थान
माना जाता है।१ यहाँ उनका प्राचीन देव निर्मित स्तूप रहा है। इसके अतिरिक्त इस नगर का
सम्बन्ध तीर्थकर नेमिनात से भी था।२
छठी-पाँचवीं शताब्दी ई. पू. के अन्त में
शूरसेन जनपद : मगध में शासन करने
वाले नंद वंश के अधिकार में गया, पर जब
मगध पर अधिकार जमाकर चन्द्रगुप्त मौर्य 'पाटलिपुत्र' की गद्दी पर आरुड़ हुआ तब धीरे-धीरे
मथुरा मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत आ गया। इसके पौत्र
सम्राट अशोक ने यहाँ यमुना के तट पर कुछ 'स्तूप'
बनवाये थे, जो चौथी-पाँचवीं शताब्दी
में आए चीनी यात्री फाहियान व सातवी
शताब्दी में आए चीनी यात्री ह्मवेन सांग ने देखे थे। अशोक कालीन कई
सुनिश्चित कलाकृति इस समय उपलब्ध नहीं है, किन्तु ध्यान देने
योग्य तथ्य यह है कि अभी मथुरा से २७
मील दूर 'नोह' नामक स्थान से उल्खन्न
में मौर्य कालीन चमक वाला एक चुनार पत्थर का टुकड़ा
भी मिला है। सम्राट 'अशोक' के गुरु 'उपगुप्ताचार्य' का
मथुरा से निकट सम्बन्ध था।३
मौर्य राजवंश के पश्चात लगभग- ई. पू. १८४
में 'शुंग' राजवंश ने मथुरा पर अधिकार किया। पुण्यमित्र
शुंग के समकालीन व्याकरण के प्रेरता पतंजलि ने यहाँ के
लोगों की श्री व सम्पन्नता का उल्लेख
किया है।४ गांधार (प्राचीन भारत का
उत्तर-पश्चिम भाग) के प्रमुख नगर 'पुठकलावती' को पाटलिपुत्र,
वैशाली, ताम्रलिप्ति, श्रावस्ती, कौशाम्बी आदि शहरों से जोड़ने
वाला मार्ग मथुरा होकर गुजरता था। इसी प्रकार विदिशा और
उज्जायिनी होकर पश्चिम के सबसे बड़े बन्दरगाह 'भरुकच्छ' (भड़ौच) को जाने
वाला मार्ग भी मथुरा होकर ही गुजरता था।५
फलत: यह व्यापार का भी एक बड़ा केन्द्र
बन गया था। इस नगरी को समकालीन साहित्य
में 'शुभिक्षा', ऐश्वर्यवती और धनी बस्ती
वाली कहा गया है।६
मथुरा के जगमगाते हुए वैभव को देख कर
यूनानी आक्रमणकारियों की दृष्टि इस ओर घूँमी और इन्होंने
लगभग ई. पू. द्वितीय शताब्दी के मध्य
में मथुरा पर आक्रमण किया। इस आक्रमण का उल्लेख
युग पुराण में मिलता है। परन्तु आपसी झगड़ों के कारण
यवनों के यहाँ पैर न जम सके।
शुंग वंश की समाप्ति के पश्चात भी कहीं-कहीं इस
वंश के छोटे-मोटे शासक राज्य करते रहे।
मथुरा में 'मित्र वंशी' शासकों का शासन कुछ काल तक चलता रहा। इस
राजवंश के शासकों की मुद्राएँ मथुरा
से प्राप्त हो चुकी है। इनके अतिरिक्त 'बलभूति' तथा
'दत्त' नाम वाले राजाओं के सिक्के भी
मथुरा से प्राप्त हुए हैं। ये समस्त शासक
मथुरा में ई. पू. १०० तक शासन करते रहे।
लगभग ई. पू. १०० में विदेशी शासकों का बल
बढ़ने लगा। मथुरा में भी इनका केन्द्र स्थापित हुआ। यहाँ के
शासक 'शक क्षत्रप' के नाम से पहचाने जाते हैं। इनमें 'राजुल'
या 'राजबुल' तथा 'शोडास' का काल
विशे, उल्लेखनीय है। इस समय के की महत्वपूर्ण
शिलालेख हमें प्राप्त हुए हैं। जिनमें
सर्वाधिक उल्लेखनीय यह लेख है। जिनमें एक कृष्ण (वासुदेव)
मन्दिर के निर्माण किए जाने का उल्लेख है।७
इन शकों को ई. पू. ५७ में मालवगण ने जीत
लिया, तथापि इसी समय से शकों की एक दूसरी
शाखा, जो आगे कुषाण कहलायी,
बलशालिनी हो रही थी।
कुषाण शासक इस देश के लिए पूर्णत: विदेशी थे। प्राचीन काल
में चीन के उत्तर-पश्चिम में प्रदेश में 'यूची' नाम की एक जाती रहती थी।
लगभग १६५ ई. पू. में ये लोग वहाँ
से भगाए गए। अपनी मूलभूमि छोड़ने के
बाद कुछ काल तक ये लोग 'सीस्तान'
या 'शकस्थान' में जमे रहे पर आगे चलकर उन्हें वह स्थान
भी छोड़ना पड़ा। वे और भी दक्षिण की ओर हटे।
लगभग ई. पू. १० में 'बल्ख' या 'बैक्ट्रिया' पर इनका अधिकार हो गया।
लगभग सन् ५० में 'तक्षशिला' का भूप्रदेश
भी इनके अधिकार में आ गया। अब ये कुषाण नाम
से जाने लगे। इस समय उनका नेता था
'कुजुलकैडफाइसेस' या 'कट्फिस' प्रथम इसके
बाद 'कट्फिस' द्वितयी या 'वेम' उसका
उत्तराधिकारी हुआ। इसके ईष्ट देव
शिव थे। यह पराक्रमी शासक था। इसकी
मृत्यु के पश्चात सन ७८ ई. में कुषाण
साम्राज्य का शासन 'कनिष्क' के हाथ में आया।
वेम और कनिष्क ने राज्य की सीमाओं को काफी विस्तृत किया। इस
समय राज्य की राजस्थानी 'पेशावर' (पुराषपुर) थी, परन्तु उसके दक्षिणी
भाग का मुख्य 'मथुरा' था। शक क्षत्रपों के
समय मथुरा उनका एक प्रमुख केन्द्र रहा। कुषाणों ने
भी उसे उसी रुप में अपनाया। मथुरा के इन
राजकीय परिवर्तनों का प्रभाव उसकी कला पर पड़ना
स्वाभाविक था। इसी प्रभाव ने यहाँ काल की एक नवीन
शैली को जन्म दिया जो भारतीय कला के इतिहास
में कुषाण-कला या मथुरा-कला के नां
से प्रसिद्ध है। कुषाण वंश के तीनों
सम्राट 'कनिष्क', 'हुविष्क' तथा 'वासुदेव' के
समय यह नगर और यहाँ की कला उन्नत होते चले गए। अपनी कलाकृतियों के
लिए समस्त उत्तर भारत में मथुरा प्रसिद्ध हो गया और यहाँ की
मूर्तियाँ दूर-दूर तक जाने लगी।
उत्तर-भारत के यौधेय आदि गणराज्यों ने ई.
सन की दूसरी शताब्दी के अन्त में यहाँ से कुषाणों के पैर
उखाड़ डाले। अब कुछ समय के लिए मथुरा नगर नागों के अधिकार
में चला गया। चौथी शती के आरम्भ में
उत्तर-भारत में गुप्त राजवंश की शक्ति
बड़ ने लगी। धीरे-धीरे मथुरा भी गुप्त
साम्राज्य का एक अंक के रुप में परणित हो गया,
'चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य' का ध्यान मथुरा की ओर
बना रहता था। इस समय के लेखों
से ज्ञात होत है कि गुप्त काल में यह नगर
शैव तथा वैष्णव सम्प्रदायों का केन्द्र रहा।
साथ ही साथ बौद्ध और जैन भी यहाँ जमे रहे।
कुमार गुप्त प्रथम के शासन के अन्तिम दिनों के अन्तिम दिनों
में गुप्त साम्राज्य पर हूणों का भयंकर आक्रमण हुआ। इससे
मथुरा नगर बच न सका। आक्रमण कारियों ने इस नगर को बहुत कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। गुप्तों के पतन के
बाद यहाँ की राजनैतिक स्थिति बड़ी डावाँ डोल थी।
सातवी शती के आरम्भ में यह नगर 'हर्ष' के
साम्राज्य मे समाविष्ट हो गया। इसके पश्चात बारहवीं
शती के अन्त तक यहाँ क्रमश: गुर्जर-प्रतिहार और गढ़वाल
वंश ने राज्य किया। इस बीच की महत्वपूर्ण घटना 'महमूद गजनवी' का आक्रमण है। यह आक्रमण उसका नवाँ आक्रमण था जो
सन १०१७ में हुआ। हूंण आक्रमण के बाद
मथुरा के विनाश का यह दूसरा अवसर था। ग्यारहवी
शताब्दी का अंत होते-होते मथुरा एक
बार हिन्दू राजवंश के अधिकार में चला गया। यह गढ़वाल
वंश था। इस वंश का अन्तिम शासक 'जयचंद' के
समय मथुरा पर मुसलमानों का अधिकार हो गया।
इस समय से लगभग ३०० वर्षों तक अर्थात बारहवीं
शती से पद्रहवीं शती के प्रारम्भ तक
मथुरा दिल्ली के 'सुल्तानों' के नियन्त्रण
में रहा। किन्तु इस काल की कहानी केवल अवनति की कहानी है।
सन १५२६ ई. के बाद मथुरा 'मुगल' साम्राज्य का अंग
बना। इस काल खण्ड में अकबर के शासन काल को
(सन १५५६-१६०५ ई.) नहीं भुलाया जा सकता है।
सभी दृष्टियों से विशेषत: स्थापत्य की दृष्टि
से इस समय मथुरा की खासी उन्नति हुई।
अनेक हिन्दू मन्दिरों का निर्माण हुआ तथा
ब्रज साहित्य भी 'अष्ट छाप' के कवियों की छाया
में खूब पनपा। न्यूनाधिक शाहजहाँ के
शासन काल तक यह स्थिति बनी रही, पर 'औरंगजेब' के
शासन काल तक यह स्थिति बनी रही, पर 'औरंगज़ेब' के
शासन समय में पासा पुन: पलटा। उसकी धर्मादता ने यहाँ पर बहुत
बड़े अत्याचार किए। केशव देव का विशाल
मन्दिर अन्य मन्दिरों के साथ धराशायी हो गया और वहाँ
मस्जिदें बनवायी गयीं। औरंगज़ेब ने 'मथुरा' और 'वृन्दावन' के नाम
भी क्रमश: 'इस्लामाबाद' और 'मोमीनाबाद'
रखे थे, परन्तु ये नाम उसकी गगनचुम्बी आकांक्षाओं के
साय विलीन हो गए।
औरंगजेब की शक्ति को सुरंग लगाने
वालों में जायों के बहुत बड़ा हाथ था।
'चूड़ामणि' जाट ने मथुरा पर अधिकार कर
लिया उसके उत्तराधिकारी 'बदन सिंह' और 'सूरजमल' के
समय यहाँ जाटों का प्रभुत्व बढ़ा। इसी
बीच मथुरा पर नादिरशाह का आक्रमण हुआ।
सन् १७५७ ई. में इस नगर को एक दूसरे क्रूर आक्रमण को झेलना पड़ा जिसमें
यमुना का जल सात दिन तक मानवीय
रक्त से लाल होकर बहता रहा। यह 'अहमद शाह अब्दाली' का आक्रमण था।
सन १७७० ई. में जाट मराठों से पराजित हुए और यहाँ अब
मराठा शासन की नींव स्थापित हुई। इस
सम्बन्ध में 'महादजी सिंधिया' का नाम
विशेष रुप से स्मरणीय है। सन १८०३ ई. तक
मथुरा मराठों के अधिकार में रहा ३० दिसम्बर १८०३ ई. को अंजन गाँव की
सन्धि के अनसार यहाँ अंग्रेजों का अधिकार हो गया जो १५
अगस्त १९४७ ई. तक बराबर बना रहा।८
१. विविध तीर्थ कल्प -
मथुरापुरी कल्प पृ. १७, पृ. ८५ (मथुरायां
महालक्ष्मी निर्मित: श्री सुपार्श्वस्तूप:)
२. वही पृ. ८६ (मथुरायां ........................
श्री नेमिनाथ:)
३. दिव्यावदान, २७, कुणालावदान, पृ. २४४
४. प्रभुदयाल अग्निहोत्री, 'पतञ्जालि कालीन
भारत', पटना १९६३ पृ. ११९
५. जे. पी. एच. फोगल, ख्र च्ड़द्वेथ्द्रद्यद्वेद्धe Dद्ध. ग्ठ्ठेद्यण्द्वेद्ध पृ. १७-१८
६. ललितविस्तार, ३, पृ. १५ - "इयं मथुरा नगरी
श्रद्धा च स्फीता च क्षेमा च सुभिक्षा च आकीर्ण बहुजनम-"
७.
मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या क्यू - १, १३.३६७
८. नीलकंठ पुरुषोत्तम जोशी,
मथुरा की मूर्ति कला, मथुरा संग्रहालय
मथुरा, १९६५, पृ. २-४
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