मथुरा के इतिहास में यहाँ की जनता शक-क्षत्रपों के समय सर्वप्रथम विदेशी सम्पर्क में आई परन्तु उनकी अपेक्ष उस पर कुषाण शासन का प्रभाव अधिक चिरस्थाई रुप से पड़ा। इस समय यहाँ के कलाकारों को अपनी जीविक के लिए विदेशीय का ही आश्रय ढूँढ़ना पड़ा होगा। इन्हीं कारणों से कवि के समान कलाकार की छेंनी में भी कुषाण प्रभाव झलकने लगा। नवीन संस्कृति नवीन शासक और नवीन परम्पराओं के साथ नवीन विचारों का प्रार्दुभाव हुआ जिसने एक नवीन कला शैली को जन्म दिया जो 'मथुरा कला' 'कुषाण कला' इस अर्थ में उन सभी शैलियों का समावेश होगा जो सोवियत तुर्किस्तान से सारनाथ तक फैले हुए विशाल कुषाण साम्राज्य प्रचलित थी। इस अर्थ वल्ख की कला, गांधार की यूनानी बौद्ध कला, सिरकप (तक्षशिला) की कुषाण कला तथा मथुरा की कुषाण कला का बोध होगा।
कुषाण सम्राट कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव का शासन काल माथुरी कला का 'स्वर्णिम काल' था। इस समय इस कला शैली न पर्याप्त समृद्धि और पूर्णता प्राप्त की। यद्यपि यहाँ की परम्परा का मूल 'भरहूत' और 'साची' की विशुद्ध भारतीय धारा है यथापि इसका अपना महत्व यह है कि यहाँ प्राचीन पृष्ठभूमि पर नवीन विचारों से प्रेरित कलाकारों की छेनी ने एक ऐसी शैली को जन्म दिया जो आगे चलकर अपनी विशेषताओं के कारण भारतीय कला की एक स्वतंत्र और महत्वपूर्ण शैली बन गई। इस कला ने अंकनीय विषयों का चुनाव पूर्ण सहष्णुता के साथ किया। इसके पुजारियों ने विष्णु, शिव, दुर्गा, कुबेर, सूर्य आदि के साथ-साथ बुद्ध और तीर्थ करों की भी मानव रुप से अर्चना की। इन कलाकृतियों को निम्नांकित वर्गों में बाँटा जा सकता है -
- जैन तीर्थ कर प्रतिमाएँ
- आयागप
- बुद्ध व बोधिसत्व प्रतिमाएँ
- ब्राहम्मण धर्म की मूर्तियाँ
- यक्ष-यक्षिणी, नाग आदि मूर्तियाँ तथा मदिरापान के द्रव्य
- कथाओं से अंकित शिलाप
- वेदिका स्तम्भ, सूचिकाएँ, तोरण, द्वारस्तम्भ, जातियाँ आदि
- कुषाण शासकों की प्रतिमाएँ
कुषाण कला की विशेषताएँ -
- विविध रुपों में मानव का सफल चित्रण।
- मूर्तियों के अंकन में परिष्कार।
- लम्बी कथाओं के अंकन में नवीनताएँ।
- प्राचीन और नवीन अभिप्रायों की मधुर मिलावट।
- गांधार कला का प्रभाव।
- व्यक्ति विशेष की मूर्तियों का निर्माण।
१. विविध रुपों में मानव का सफल चित्रण
कुषाण काल में मनुष्य और पशुओं के सम्मुख चित्रण की पुरानी परम्परा छोड़ दी गई। साथ ही साथ मानव शरीर के चित्रण की क्षमता भी बढ़ गई। विशेषत: रमणी के सौंदर्य को रुप-रुपांतरों में अंकित करने में मथुरा का कलाकार पूर्णत: सफल रहा। स्तन्य की ओर संकेत करने वाली स्नेहमयी देवी, झुँन-झुँना दिखलाकर बच्चों का मनोरंजन करने वाली माता विविध प्रकार के अलंकारों से अपने को मण्डित करने वाली युवतियाँ, धनराशि के समान श्याम केशकलाप को निचोड़ते हुए उनके कारण मोर के मन में उत्सुकता जमाने वाली प्रेमिकाएँ, उन्मुक्त आकाश के नीचे निर्झर स्नान करने वाली मुग्धाएँ, फूलों को चुनने वाली अंगनाए, कलश धारिणी गोपवधू, दीपवाहिका, विदेशी दासी, मधपान से मतवाली वेश्या, दपंण से प्रसाधन करने वाली रमणी आदि अनेकानेक रुपों में नारी को मथुरा के कलाकारों के द्वारा पूर्ण सफलता के साथ दिखलाया गया।
पुरुषों के चित्रण में भी वे पीछे नहीं थे। धन संग्रह के प्रतीक बड़ी तोंद वाले कुबेर, ईरानी वेश में सूर्य, राजकीय वेश में कुषाण दरबारी, विदेशी पहरेदार फीतेदार चप्पल धारण किए सैनिक, भोले-भाले उपासक, विविध प्रकार की पगड़ियाँ बाँधे हुए पुरुष, बहुमूल्य वस्रालंकारों से मण्डित बोधिसत्व आदि छोटे-बड़े वर्ग के पुरुष और देवता बड़ी ही कुशलता से अंकित किए गए हैं।
२. मूर्तियों के अंकन में परिष्कार
कुषाण काल की मूर्तियाँ शुंग काल के सामना चपटी न होकर गहराई के साथ उकेरी गई हैं। प्रारम्भिक अवस्था की तुलना में अब आकृतियों की ऊँचाई बढ़ जाती है।१
उसी अनुपात में निम्नकोटी की आकृतियों की ऊँचाई में भी बुद्धि होती है। मथुरा की प्रारम्भिक कलाकृतियों की स्थूलता और भोड़ापन कुषाण काल में पहुँचते-पहुँचते है। मांसल और सुडौल शरीर में बदल जाता है वस्रों के पहनावे में भी सुरुचि की मात्रा बढ़ जाती है। अब उत्तरीय चपटे रुप में नहीं पड़ता अपितु मोटी घुमावदार रस्सी के रुप में दिखलाई पड़ता है।२
प्रारम्भिक कुषाण काल की मूर्तियों में केवल बाँया कन्धा ढका रहता है और कमर के ऊपर वाला वस्र का भाग शरीर से सटा हुआ कुछ पारदर्शक सा रहता है, नीचे वाले भाग की ओर कुछ अनुपातत: कुछ काम ध्यान दिया गया है। जाँघ और पैरों की बनावट में एक प्रकार की कढ़ाई दिखलाई पड़ती है।३
कुषाण काल के मध्य में यह दोष हट जाता है और बहुधा मूर्तियाँ एक घुटना किंचित मोड़कर खड़ी दिखलाई पड़ती हैं।४
इस काल के मूर्ति निर्माण की दूसरी विशेषता मूर्तियों का आगे और पीछे दोनों ओर से गढ़ा जाता है।
इस काल की बहुसंख्यक मूर्तियाँ ऐसी ही हैं। सम्मुख भाग के समान कलाकार ने प्रष्ठ भाग की ओर भी खूब ध्यान दिया है। इसकी दो पद्धतियाँ थीं, तो पीछे की ओर पीठ पर लहराते हुए केश कलाप, आभरण, उत्तरीय आदि वस्र आदि दिखलाए जाते थे अथवा पशु-पक्षियों से युक्त वृक्ष अंकित किए जाते थे।५
३. लम्बी कथाओं के अंकन में नवीनताएँ
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जातक कथाओं के समान अनेक दृश्यों वाली कथाएँ 'भूर हूत' तथा 'सांची' में भी अंकित की गई थी, परन्तु वहाँ पद्धति यह थी कि एक ही चौखट के भीतर अगल-बगल या तले ऊपर कई दृश्यों को दिखलाया जाता था, पर अब प्रत्येक दृश्य के लिए अलग-अलग चौखट दिये जाने लगे। उदाहरणार्थ मथुरा से प्राप्त एक द्वारस्तम्भ पर अंकित नंद-सुन्दरी की कथा७
कई चौखटों में इस प्रकार सजाई गई है कि उससे सम्पूर्ण द्वार स्तम्भ सुशोभित हो सके। चौखटें अलग-अलग होने के कारण उनके भीतर बनी मूर्तियों के आकार भी सरलता से ऊँचे बनाए जा सके।
४. प्राचीन और नवीन अभिप्रायों की मिलावट
???? के कलाकारों ने परम्परा से चले आने वाले वृक्ष, लता, और पशु-पक्षियों के अभिप्रायों को अपनाते हुए साथ ही अपनी प्रतिभा से देश काल के अनुरुप नवीन अभिप्रायों का सृजन किया। उसका फल यह हुआ कि मथुरा की कला में प्रकृति और उसके अनेक रुपों का अंकन मिलता है। यहाँ विविध वृक्ष लताएँ, मगर, मछलियाँ आदि जलचर, मोर, हंस, तोते, आदि पक्षी व गिलहरियाँ, बन्दर, हाथी, शरभ, सिंह आदि छोटे-बड़े पशु सभी दिखलाई पड़ते हैं। पुष्पों में यदि केवल कमल और कमल लता को ही लें तो उसके अनेक रुप दृष्टिगोचर होते हैं। ईहामृग या काल्पनिक पशु-पक्षियों जैसे-तोते की चोंच वाला मगर, मानव मुख वाला मेंढ़क आदि का भी यहाँ अभाव नहीं है।
कुषाण कालीन कला में दृष्टिगोचर होने वाले अभिप्रायों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है।८
१. प्राचीन भारतीय पद्धति के अभिप्राय।
२. नवीन अभिप्राय जिनमें से कुछ पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट है।
प्रथम प्रकार के अभिप्राय वे हैं जो विशुद्ध रुप से भारतीय हैं और गांधार कला के सम्पर्क के पूर्व बराबर व्यवछत होते थे, इनमें पशु-पक्षियों के अतिरिक्त दोहरे छत वाल विहार, गवाक्ष, वातायन, वेदिकाएँ,
कपि-शीर्ष, कमल, मणि माला, पंच्चवाट्टिका, घण्टावली, हत्थे या पंचाङ्गुलितल, अष्ट मांगलिक चिन्ह यथा पूर्णघट भद्रासन, स्वास्तिक, मीन-युग्म, शराव-सम्पुट, श्रीवत्स, रत्नपात्र, व त्रिरत्न आदि का समावेश होता है।
नवीन अभिप्रायों से तात्पर्य उन अभिप्रायों से है जो गांधार कला के सम्पर्क में आने के बाद मथुरा की कलाकृतियों में भी अपनाए गए इनमें
(CORINTHIAN FLOWER) भटकटैया का फूल, प्रभामण्डल, मालाधारी यक्ष, अंगूर की लता, मध्य एशिया और ईरानी पद्धति के ताबीज के समान अलंकार आदि की गणना की जा सकती हैं।
५. गांधार कला का प्रभाव
कुषाणों के शासन काल में उत्तर-पश्चिम भारत में कला की एक नव-शैली विकसित हुई। यह भारतीय और यूनानी कला का एक मिश्रित रुप था। जिस गांधार प्रदेश में इसका बोल-बाला रहा, उसी के आधार पर इसे 'गांधार कला' के नाम से कला जगत पहचाना गया है। एक ही शासन की छत्र छाया में पनपने के कारण इन शैलियों का परस्पर सम्पर्क में आना स्वाभाविक था, परन्तु दोनो के मूलभूत सिद्धान्त अलग थे। गांधार कला पर यूनानी कला का गहरा प्रभाव था। वा मानव चित्रण के बहिरंग पक्ष को अधिक महत्व देती थी। इसके विपरीत भारतीय विचारधारा में पली हुई मथुरा कला भाव पक्ष की ओर बढ़ती चली जा रही थी। फल यह हुआ कि गांधार कला से मथुरा के कलाकार कुछ सीमित अंश तक प्रभावित हुए। इनमें उन्होंने न केवल निर्माण सिद्धान्त ही अपनाए, वरन उनकी कुछ कथावस्तुओं को भी मूर्त रुप दैने का प्रयत्न किया। उदाहरणार्थ यूनानी योद्धा 'हरक्यूलियस' का 'नेमियनसिंह' के साथ जो युद्ध हुआ था, उस दृश्य का चित्र मथुरा कला में प्राप्त होता है।
तथापि यह भी सत्य है कि मथुरा की सम्पूर्ण कलाकृतियों में यूनानी प्रभाव दिखलाने वाली प्रतिमाओं की संख्या बड़ी ही अल्प है। इस प्रभाव को सूचित करने वाले अंश निम्नांकित हैं -
१. बुद्ध और बोधिसत्वों की कुछ मूर्तियाँ जो अधोलिखित विशेषताओं से युक्त हैं -
(i) अर्थवर्तुलाकार धारियों वाला वस्र, जिससे बहुधा दोनों कंधे और कभी-कभी पूरा शरीर ढका रहता है (चित्र ४८)।
(ii) मस्तक पर लहरदार बाल।
(iii) नेत्र और होंठ भरे हुए तथा धारदार, विशेषतया ऊपर की पलकें भारी रहती हैं।
२. बुद्ध जीवन को अंकित करने वाले कतिपय दृश्य, जैसे मथुरा संग्रहालय की मूर्ति संख्या ००.एच.१, ००.एच.७, ००.एन.२, ००.एच.११.
३. कला के कुछ नवीन अभिप्राय, जैसे मालाधारी यक्ष, गरुड़, द्राक्षलता आदि।
४. मदिरापन के दृश्य९
गांधार कला की एक सुन्दर नारी की मूर्ति जो 'हरिति' डॉ. वी. एस. अग्रवाल उसे कम्बोजीका की प्रतिमा मानते हैं जिसका नाम सिंहशीर्ष पर अंकित लेख में मिलता है। अत: सिंहशीर्ष और यह गांधार प्रतिमा मथुरा के एक ही स्थान से अर्थात् सप्तर्षि टीले से मिले थे। 'कम्बोजिका'१० आदि नामों से पहचानी जाती है (चित्र ४३-४४) मथुरा क्षेत्र से ही प्राप्त हुई है। उसका उल्लेख इस सन्दर्भ में आवश्यक है। संभव है कि गांधार कला की यह कलाकृति किसी प्रेमी ने यहाँ मंगवाकर स्थापित की है।
६. व्यक्ति विशेष की मूर्तियों का निर्माण
भारतीय कला को मथुरा की यह विशेष देन है। भारतीय कला के इतिहास में यहीं पर सर्वप्रथम हमें शासकों की लेखों से अभिलिखित मानवीय आकारों में निर्मित प्रतिमाएँ दिशलाई पड़ती हैं।११ कुषाण सम्राट 'वेमकटफिश', कनिष्क एवं पूर्ववर्ती शासक चन्दन की मूर्तियाँ 'माँट' नामक स्थान
से पहले ही मिल चुकी हैं। एक और मूर्ति जो संभवत: कुषाण सम्राट 'हुविष्क' की हो सकती है, इस समय 'गोकर्णेश्वर' के नाम से मथुरा में पूजी जाती है। ऐसा लगता है कि कुषाण राजाओं को अपने और पूर्वजों के प्रतिमा मन्दिर या 'देवकुल' बनवाने की विशेष रुचि थी। इस प्रकार का एक देवकुल मन्दिर या 'देवकुल' बनवाने की विशेष रुचि थी। इस प्रकार का एक देवकुल तो 'भाँट' में था। इन स्थानों से उपरोक्त लेखांकित मूर्तियों के अतिरिक्त अन्य राजपुरुषों की मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई है, किन्तु वे लेख रहित है।
इस संदर्भ में यह भी अंकित करना समीचीन होगा, कि कुषाण सम्राटों का एक और 'देवकुल' जिसे वहाँ 'बागोलांगो' (एॠNक्रंग्रख्रॠNक्रंग्र) कहा गया है, अफगानिस्तान के 'सुर्खकोतल' नामक स्थान पर था। यहाँ के पुरातात्विक उत्खन्न के पश्चात इस 'देवकुल' की सारी रुपरेखा स्पष्ट हुई है।१२
१. स्टेला क्रेमरिच,
INDIAN SCULPTURE, कलकत्ता १९३३, पृ. ४०-४३
२ . वही
३ . वही,
AGE OF THE IMPERIAL UNITY, भाग-२, पृ. ५२२-२३
४ . मथुरा संग्रहालय संख्या ०० एफ. ६,०० ई. २४; १७.१३२५ आदि
५ . अशोक एवं कदम्ब के वृक्ष तथा ऊपर स्थित गिलहरी और शुक, संग्रहालय संख्या, १२.२६४; ०० एफ-२, ३३.२३२८।
६ . आनन्द कुमार स्वामी, 'HIIA' (HISTORY OF IDNIAN AND INDONESIAN ART) पृ. ६५-६६ पद टिप्पणी-१, पृ. ६६।
७ . लखनऊ संग्रहालय मूर्ति संख्या जे. ५३३
८ . आनन्द कुमारस्वामी, 'HIIA' (HISTORY OF INDIAN INDONESIAN ART) पृ. ५०-५१, ६२।
९ . आनन्द कुमारस्वामी,
H.I.I.A., पृ.६२, एस. के. सरस्वती,
A SURVEY OF INDIAN SCULPTURE कलकत्ता, १९५७, पृ.६६।
१० . आनन्द कुमार स्वामी,
H.I.I.A., पृ.६२
११ . व्यक्ति प्रतिमाओं के विशेष अध्ययन के लिये देखिये - टी. जी. अर्वमुनाथन
PORTRAIT SCULPTURE IN SOUTH INDIA, लन्दन १९३१।
१२.
सी. एस. कीफर, KUSHANA ART AND THE HISTORIC EFFIGIES OF 'MAT' AND
'SURKH KOTAL', मार्गखण्ड १५,
संख्या २, मार्च १९६२, पृ. ४३-४८.
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