कुषाण काल में मथुरा में तीन धार्मिक संप्रदाय प्रमुख थे-जैन, बौद्ध और ब्राह्मण। इनमें ब्राह्मण धर्म को छोड़कर किसी को भी मूलत: मूर्ति पूजा मान्य न था। परन्तु मानव की दुर्बलता एवं अवलम्ब अथवा आश्रय खोजने की स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण शनै: शनै: इन सम्प्रदायों के आचार्य स्वंय ही उपास्य देव बन गये। साथ ही साथ उपासना के प्रतीकों का भी प्रादुर्भाव हुआ। ई. पू. द्वितीय शताब्दी के पहले से ही बुद्ध के प्रतीक जैसे-स्तूप, भिक्षापात्र, उण्णीश, बोधिवृक्ष, आदि लोकप्रिय हो गये थे। जैन संप्रदाय में भी चैत्य स्तम्भ, चैत्य वृक्ष अष्ट माङ्गलिक चिन्ह आदि प्रतीकों को मान्यता मिल रही थी। कुषाण काल तक पहुँचते-पहुँचते इन प्रतीकों के स्थान पर प्रत्यक्ष मूर्ति की संस्थापना की इच्छा बल पकड़ने लगी और अल्प काल में ही माथुरी कला ने तीर्थ करों की मूर्तियाँ और बौद्ध मूर्तियों को जन्म दिया। इसी के साथ-साथ विष्णु, दुर्गा, शिव, सूर्य, कुबेर आदि ब्राह्मण धर्म की उपास्य मूर्तियाँ भी इसी समय बनी। भारतीय कला को मथुरा कला की यह सबसे अनूठी देन है। गुप्त और गुप्तोत्तर कला के विशाल प्रतिमा-संग्रह का आधार कुषाण कला में है।
तीर्थकर -प्रतिमा का जन्म
जैन धर्म की प्रारम्भिक पूजा पद्धति में निम्नांकित प्रतीकों का स्थान महत्वपूर्ण था-धर्मचक्र, त्रिरत्न, स्तूप, चैत्यस्तम्भ, चैत्य-वृक्ष, पूर्णघट, श्रीवत्स, सराव-समपुट, पुष्प-पडलग, स्वास्तिक, मत्स्य-युग्म, व भद्रासन। इनके यहाँ अर्चना का एक दूसरा प्रतीक था आयागपटट। आयागपटट एक चौकोर शिलाप होता था जिस पर या तो एकाधिक प्रतीक बने होते थे या प्रतीकों के साथ तीर्थकर की छोटी सी प्रतिमा भी बनी रहती थी। इनमें से कुछ लेखांकित है, जिनसे ज्ञात होता है कि ये पूजन के उद्देश्य से स्थापित किए जाते थे। मथुरा के इस प्रकार के कुषाण कालीन कई सुन्दर आयागपटट मिले हैं, इनमें से एक समूचा आयागपटट तथा तीर्थकर प्रतिमा से सुशोभित दूसरा खण्डित आयागपटट जो मथुरा संग्रहालय में विद्यमान है, विशेष रुप से उल्लेखनीय है। समूचे वार आयागपटट पर, एक जैन स्तूप, उसका तोरण द्वार, सोपान मार्ग, और दो चैत्यस्तम्भ पर एक जैन स्तूप, उसका तोरण द्वार, सोपान मार्ग, और दो चैत्यस्तम्भ बने हैं जिन पर क्रमश: धर्मचक्र और सिंह की आकृतियाँ बनी हैं। सिंह का सम्बन्ध तीर्थकर महावीर से है (चित्र २६)।
तीर्थकर प्रतिमा के सर्वप्रथम दर्शन हमें आयागपटटों पर ही होते हैं। यह कहना कठिन है कि तीर्थकर की प्रतिमा एवं बुद्ध की मूर्ति इन दोनों में प्रथम कोन बनी होगी। कदाचित् यह दोनों कार्य साथ ही साथ हुए थे।
मथुरा में कंकाली टीले पर जैनों का बहुत विशाल गढ़ था। यहाँ उनके विहार और स्तूप विद्यमान थे। यहीं से तीर्थकरों की प्रारम्भिक प्रतिमाएँ मिली हैं। इन मूर्तियों की मुख्य विशेषताएँ अधोलिखित हैं -
- ये मूर्तियाँ केवल दो ही प्रकार की हैं, एक तो पद्मासन में बैठी हुई ध्यानस्थ मूर्तियाँ और दूसरी जाँघ से हाथों को सटाकर सीधी खड़ी प्रतिमाएँ जिन्हें 'कायोत्सर्ग' मुद्रा में स्थित प्रतिमाएँ कहा जाता है।
- तीर्थकरों के मस्तक या तो मुण्डित हैं या छोटे-छोटे घुँघराले केशों से अलंकृत हैं। आँखों की
पुतलियाँ साधारणत: नहीं दिखाई जाती थी पर बाद के कलाकारों ने इस कमी को दूर करने के लिए अपने समय में कुछ कुषाण कालीन मूर्तियों में आँखें बनाई हैं।
- तीर्थकरों के कान कंधों तक लटकने वाले नहीं हैं और मुख पर भी कोई विशेष भाव लक्षित नहीं होता।
- महापुरुष के बोधक चिह्मों में हथेलियों पर धर्मचक्र और पैर के तलुओं पर त्रिरत्न और धर्मचक्र दोनों बने रहते हैं। वक्षस्थल पर बीचों बीच 'श्रीवत्स' चिह्म बना रहता है। कुछ प्रतिमाओं में हाथ की उँगलियों के पोर भी श्रीवत्सादि मंगल चिह्म बने हैं। लगता है कि यहाँ बुद्ध-बोधिसत्व मूर्तियों की नकल की गई है।१
- उत्तर काल में दिखलाई पड़ने वाले तीर्थकर लांछन या परिचय चिह्मों का यहाँ अभाव है। इस लिए प्रत्येक तीर्थकर की अलग-अलग पहचान करना कठिन है। 'आदिनाथ' या 'ॠषभनाथ' कन्धों पर लहराती हुई बालों की लटाओं के कारण तथा पार्श्वनाथ मस्तक के पीछे दिखलाई पड़ने पाले सपंफणाओं के कारण पहचाने जाते हैं। तीर्थकर नेमिनाथ की कुछ मूर्तियाँ उन पर बनी हुई कृष्ण बलराम की मूर्तियाँ के कारण पहचानी जा सकती है। शेष मूर्तियों के नाम, यदि वे लेखांकित हैं, तो उनके लेखों से ही जाने जा सकते हैं।
- तीर्थकर प्रतिमाएँ दिगम्बर हैं। किंचित मूर्तियों पर वस्रकार छोटा टुकड़ा हाथ में पकड़े जैन साधु भी दिखलाई पड़ते हैं।२
- आसनस्थ तीर्थकर बहुधा सिंहासनों पर बैठे दिखलाए गए हैं, जो उनके चक्रवर्तित्व का बोधक है।
- कुषाण कालीन तीर्थकर मूर्तियों के पीछे अर्धचन्द्रावली या हस्तिनख से सुशोभित किनारे वाला प्रभामण्डल दिखलाई पड़ता है।३
समकालीन बुद्ध वा बोधिसत्व प्रतिमाओं में भी इसके दर्शन होते हैं।
कुषाण काल से ही तीर्थकर प्रतिमा का एक और प्रकार चल पड़ा जो चौमुखी मूर्तियाँ 'सर्वतोभद्र' प्रतिमा के नाम से पहचाना जाता है। इस प्रकार की मूर्तियों में एक ही पाषाम के चारों ओर चार तीर्थकर प्रतिमाएँ बनी होती हैं। इनमें बहुधा एक 'ॠषभनाथ' व दूसरी 'पार्श्वनाथ' की रहती है। (चित्र ४१) इस प्रकार की चतुर्मुख प्रतिमा बनाने की पद्धति परिवर्तित काल में ब्राह्मण धर्म द्वारा भी अपनायी गयी।
जैन धर्म की देव-देवी प्रतिमाएँ
मथुरा की कुषाण कला में अधोलिखित प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं -
- नेगमेश या हरिनेगमेशी -
बकरे के मुख वाले इस देवता के शिशु जगत से सम्बन्ध है। यह महत्व की बात है कि कुषाण काल के बाद जैन मन्दिरों में इस देवता के स्वतंत्र रुप से स्थापित किये जाने के उदाहरण नहीं मिलते।४ और न उसकी प्रतिमाओं की बहुलता ही दिखलाई पड़ती है कुषाण कालीन माथुरी प्रितमाओं में हम उन्हें बहुधा बच्चों से घिरा हुआ पाते हैं।
- रेवती या षष्ठी -
नेगमेश के समान इस देवी का संबंध भी बच्चों से है। इसका भी मुख बकरे का ही है। मथुरा संग्रहालय में कुछ ऐसी स्री मूर्तियाँ है जिनकी गोद में पालना है। इसमें एक शिशु भी दिखलाई पड़ता है (मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या ०० ई.
४)५ इन्हें रेवती या षष्ठी की मूर्तियाँ माना गया है।६
- सरस्वती -
यह जैनों की भी देवी है और ब्राह्मण धर्म की भी देवी है। जैन सरस्वती की प्राचीनतम मूर्ति मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त हुई है जो इस समय लखनऊ के संग्रहालय में प्रदर्शित है। (लखनऊ संग्रहालय मूर्ति संख्या जे. २४)
- कृष्ण बलराम -
तीर्थकर नेमिनाथ के पार्श्ववर्ती देवताओं के रुप में इनका अंकन किया जाता है। कृष्ण चतुर्भुज है। बलराम हाथ में मदिरा का चषक लिये हुए है। उनके मस्तक पर नागफण है (चित्र ६६)।
बुद्ध प्रतिमा का निर्माण
पश्चिम के विद्वानों ने जब भारतीय कला का अध्ययन किया तब उन्होंने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि सर्वप्रथम बुद्ध की मूर्ति कुषाण सम्राटों के काल में गांधार कला शैली के कलाकारों द्वारा बनाई गई। भारतीय विद्वानों ने इस सिद्धान्त में कई त्रुटियाँ देखी और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि बुद्ध की प्रथम प्रतिमा गांधार कला शैली में नहीं अपितु मथुरा में बनी। इनकी इस धारणा का प्रमुख आधार बुद्ध बोधिसत्वों की वे लेखांकित प्रतिमाएँ हैं। जिन पर स्पष्टत: कनिष्क के राज्य संवत्सर का उल्लेख है। गांधार कला में इस प्रकार की सुनिश्चित तिथियों से युक्त लेखांकित प्रतिमाओं का सर्वथा अभाव है। इसके अतिरिक्त देश की तत्कालीन स्थिति व धार्मिक अवस्था भी इसी ओर संकेत करती है कि प्रथम बुद्ध मूर्ति मथुरा में ही बनी होगी न कि गांधार में। संक्षेप में उस समय की स्थिति को यों समझा जा सकता है।
इसवी सन् की प्रथम शताब्दी के पूर्व मथुरा में वैष्णव धर्म व इससे संबंधित भक्ति संप्रदाय जोर पकड़
चुका था। महाक्षत्रप 'शोडास' के समय में ही यहाँ वासुदेव का मन्दिर था और बलराम अनिरुद्धादि पंचवीरों की प्रतिमाओं का पूजा समाज में प्रचलित था। दूसरी ओर जैन आचार्यों की मूर्तियाँ गढ़ी जा रहीं थीं और वहाँ भी भक्ति संप्रदाय बल पकड़ रहा था। रहा बौद्ध समाज, इनमें पुष्पदीपादि द्वारा बुद्ध के प्रतीकों का पूजन तो प्रचलित था ही, केवल निराकार तथागत की साकार प्रतिमा का अभाव था। इस अभाव को दूर करने में महासंधि के मत के बौद्धों ने बड़ी सहायता की।
बौद्धों के धार्मिक जगत में इस समय मतभेद चल रहा था कुछ लोग प्राचीन सिद्धान्तों वा नियमों को अपरिवर्तित रुप में ही मानना उपयुक्त समझते थे।
पर दूसरा संप्रदाय परिवर्तनवादी था जो महासंधिक नाम
से प्रसिद्ध था। आगे चल कर ये दोनों
मत 'हीनयान' और 'महायान' के नाम
से पहचाने जाने लगे। महासाधिक
लोगों ने बुद्ध की निराकार मूर्ति और उसका पूजन उचित
माना। उनका कहना था कि निर्वाण प्राप्ति के पूर्व
बुद्ध बोधिसत्व के नाम से पहचाने जाते हैं। निर्वाण के उपरान्त पुन: कोई इस
लोक में नहीं आता। बुद्ध ने संबोधि व ज्ञान तो प्राप्त कर
लिया था पर निर्वाण को पाना इसलिए अस्वीकार किया कि
वे लोगों के कल्याण के लिए बार-बार पृथ्वी पर अवर्तीण हो
सके। अत: निर्वाण प्राप्त बुद्ध की तो नहीं, पर
संबोधि प्राप्त बोधिसत्व की प्रतिमा
बनाना अवैध नहीं क्योंकि वे साकार
रुप में मनुष्यों और देवों के द्वारा देखे और पूजे जाते हैं। कदाचित इसी
लिए प्रारम्भिक बुद्ध मूर्तियों में अंङ्कित
लेखों में उन्हें बोधिसत्व ही कहा गया है।
आगे चलकर महाज्ञानियों ने एक बुद्ध प्रतिमा ही नहीं अपितु
शताधिक देवी-देवताओं की मूर्तियों के निर्माण और पूजन की पद्धति को अपनाया।
कुषाण सम्राट कनिष्क का शासन काल भी
बुद्ध की प्रतिमा निर्माण के लिए प्रेरक हुआ। इस
शासक ने अपनी धार्मिक सहिष्णुता के प्रदर्शन के
लिए अपनी राजमुद्राओं पर विविध धर्मों के देवी देवताओं को स्थान दिया।
शैवों का शिव, ब्रहाम्मण धर्म के चन्द्र,
सूर्य, वायु आदि अन्य देव तथा ईरानी
मत के देव गणों में 'एतशो', 'नाना' आदि को इसके सिक्कों पर अंङ्कित किया जा रहा था। इन्हीं के
साथ उसने बुद्ध की मूर्ति से भी अपनी कुछ
मुद्राएँ सुशोभित कीं।
गांधार कला के बुद्ध मूर्तियों की तिथि विषय की अनिश्चित की ओर हम पहले ही
संकेत कर चुके हैं। मथुरा में कुषाण
शासक 'कनिष्क' के राज्यरोहण के दूसरे वर्ष से ही
बुद्ध प्रतिमा का निर्माण प्रारम्भ हुआ जो
बाद तक चलता रहा।
बुद्ध प्रतिमा के निर्माण के आधार७
बुद्ध की खड़ी मूर्तियों की कल्पना 'यक्ष' प्रतिमाओं के आधार पर की गई। इस
यक्ष प्रतिमाओं का उल्लेख पहले किया जा चुका है, जो इस
समय के पहले से ही लोक कला में
बन रही थीं। बैठी हुई बुद्ध मूर्ति का आधार कदाचित भरहुत काल
में दिखलाई पड़ने वाली दीर्घ तापसी की
मूर्ति है। कुछ विद्वान इसका आधार उन तीर्थकर प्रतिमाओं को
मानते हैं, जिनका अंकन जैन 'आयागपटटों' पर हुआ है।८
बुद्ध के बालों का अंकन निदान कथा के आधार पर हुआ। प्रारम्भिक अवस्था
में बुद्ध का मस्तक मुण्डित होता है और केवल एक ही
लट ऊपर दाहिनी ओर घूमती हुई दिखलाई पड़ती है।
बाद में तो सारा मस्तक ही छोटे-छोटे घुँघराले
बालों से आवृत्त होने लगता है। उनके
मस्तक के पीछे दिखलाई पड़ने वाले प्रभामण्डल का
उद्भव कदाचित उन ईरानी देवी-देवताओं की
मूर्तियों से हुआ जिन्हें वहाँ 'चजत' के नाम
से जाना जाता है। कुषाण मुद्राओं पर अंकित इन देवी-देवताओं की
मूर्तियों में प्रभामण्डल विद्यमान है।
चीवर संघाटी आदि बुद्ध के वस्रों की कल्पना तो प्रत्यक्ष जगत
से ही ली गई होगी। वैसे 'विनयपिटक'
में भी इसका विस्तृत विवरण मिलता है।९
बुद्ध के पैरों के नीचे दिखलाई पड़ने
वाला कमल कदाचित सांची की कलाकृतियों की देन है।
प्रारम्भिक
बुद्ध प्रतिमाओं की विशेषताएँ१०
इस प्रकार धर्माचार्य, शासक, कलाकार व तत्कालीन जनता के सहयोग
से जो प्रारम्भिक बुद्ध मूर्तियाँ कुषाण काल
में निर्मित हुई उनमें निम्नांकित
विशेषताएँ देखी जा सकती हैं -
- मुण्डित मस्तक, ऊपर कपर्द तथा घुमावदार एक
लट से शोभित उष्णीष।
- ऊर्ण या दोनों भोहों के मध्य बना हुआ एक छोटा
सार्वतुलाकार चिह्म। महापुरुषों के
बत्तीस लक्षणों में इनकी गणना है।११
ललितविस्तार के वर्णनानुसार मार पराजय के
समय बोधिसत्व की 'ऊर्णा' से एक ज्योति
उद्भूत हुई, जिसने मार के प्रसादों को कंपित कर दिया।१२
कुष्ण कालीन बुद्ध मूर्तियों में ऊर्णा चिह्म अनिवार्य
रुप से विद्यमान रहता है। एक मूर्ति में (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या ००.ओ-२७) ऊर्णा के स्थान पर
अर्थात भूमध्य में गड्ढ़ा बना है जिसमें कदाचित प्रकाश का प्रतीक कोई
रत्न जड़ा गया हो।
- विशाल एवं चौड़ी छाती तथा एक, बहुधा
बाँया कंधा वस्र से ढ़का हुआ।१३
- दाहिना हाथ अभयमुद्रा में ऊपर उठा हुआ,
बाँया हाथ आसनस्थ मूर्तियों में जाँघ पर तथा
खड़ी प्रतिमाओं में वस्र के छोर को पकड़
मुट्ठी बाँये हुए।
- शरीर में चिपका हुआ तथा बाँये कंधे व निचले
भाग पर सिकुड़नों से शोभित वस्र।
- कमर में गाँठ पड़ी हुई पट्टी या कायबंधन।
- पूरी खुली हुई आँखें तथा स्मितयुक्त
मुख।
- आध्यात्मिक भाव एवं देवतत्व के प्रगति करण की अपेक्षा
शारीरिक भावभंगिमा के चित्रण का
आधिक्य ।
- दोनों पैरों का समान रुप से सीधे तने रहना, कभी-कभी
उनके बीचों-बीच कमल कलियों
का गुच्छ१४, क्वचिंत स्री मूर्तियाँ१५, सिंह१६,
अथवा मैत्रेय बोधिसत्व१७ का बना रहना।
- हस्तिनखों से युक्त प्रभामण्डल।
गांधार कला के सम्पर्क में आने के बाद कतिपय
मूर्तियों के गठन में कुछ परिवर्तन हुए जिनका विवेचन पहले हो चुका है।
उत्तर कुषाण काल में आसनस्थ मूर्ति के गढ़ने
में शैली अधिक सुथरी हुई है। चीवर तथागत के दोनों कंधों पर पड़ा रहता है।
साथ ही दोनों पैर भी वस्र में छिपे रहते हैं और
वस्र का सामने वाला छोर चौकी पर
लटकता दिखलाई पड़ता है। जैन तीर्थकरों के
समान बुद्ध की चरण चौकी के सामने
वाले भाग पर दाताओं की मूर्तियों का अंकन अब प्रारम्भ हो जाता है।
शनै: शनै: मुण्डित मस्तक लुप्त होकर घूँघरों का निर्माण
साधारण परिपाटी बन जाती है। इस कला की
बुद्ध व बोधिसत्व प्रतिमाओं के हाथ केवल चार
मुद्राओं में अभय भूमिस्पर्श ध्यान तथा धर्म-चक्र-प्रवर्तन
में दिखलाई पड़ते हैं। पाँचवी मुद्रा 'वरद' का यहाँ
सर्वथा अभाव है।१८
ब्राह्मण धर्म की देव प्रतिमाओं का निर्माण
कुषाण कला के पुजारियों ने जैन तथा
बौद्ध धर्मों के समान ही ब्राह्मण धर्म की
भी सेवा की। वैष्णव, शाक्त व शैव संप्रदाय
ब्राह्मण धर्म के प्रमुख अंग हैं। शैवों को उसी के
अन्तर्गत माना जाता है। गुप्त काल तक पहुँचते-पहुँचते इसमें गणेश उपासकों का
भी इसमें गणपत्य के नाम से इसमें
समावेश हुआ। इस प्रकार विष्णु, दुर्गा,
शिव, सूर्य व गणपति की उपासना पंच देवोपासना के नाम
से प्रसिद्ध हुई। ललितविस्तार एवं अन्य ग्रन्थों
में जो कुषाण काल में, विद्यमान थे, ब्राह्मण, धर्म के तत्कालीन देवी-देवताओं की
मूर्तियों की एक तालिका मिलती है जिसमें
शिव, स्कंद, सूर्य, चन्द्र, ब्रह्म, नारायण,
वैश्रवण, कुबेर, शुक्र व लोकपालों की प्रतिमाएँ प्रमुखता
से गिनाई गई हैं।१९ इनमें लगभग
सभी की मूर्तियाँ कुषाण काल में उपलब्ध हैं। कुषाण काल
में गणपति की उपासना मूर्ति रुप में कदाचित अधिक प्रचलित नहीं थी, पर इसके स्थान पर कार्तिकेय व कुबेर खूब पूजे जाते थे।
ब्रह्मा की केवल इनी गिनी मूर्तियाँ
मिली हैं इन सभी देव मूर्तियों की
अपनी विशेषताएँ हैं। इनमें से अधिकतर प्रतिमाएँ दोनों ओर
(INROUND )
उकेरी गई हैं। पीछे की ओर या तो प्रतिमा का पृष्ठ
भाग अंकित है अथवा वृक्ष बना हुआ है जिस पर गिलहरी, तोता आदि
बैठे हुए दिखलाए गए हैं। (चित्र ३९,५५,६०)।
विष्णु मूर्ति -
वैष्णव संप्रदाय की पंचवीर प्रतिमाओं का उल्लेख पहले ही हो चुका है। दुर्भाग्य
से उक्त प्रतिमाएँ खण्डित अवस्था में पायी गयी है।
अत: उनके विषय में अधिक नहीं कहा जा
सकता है। पर इस काल की बनी चतुर्भुज विष्णु की
अखण्डित प्रतिमाएँ भी प्राप्त हुई हैं जो अपनी निम्नांकित
विशेषताओं के कारण महत्वपूर्ण है -
- हाथों की डौल की दृष्टि से ये समकालीन यक्ष और बोधिसत्व प्रतिमाओं से मिलती-जुलती है। इनके हाथ चार हैं, पर तीन में गदा, चक्र व छोटा सा जलपात्र या शंख है और चौथा अभय मुद्रा में कंधे तक उठा हुआ है।
- गदा का आकार मुगद्र जैसा है तथा उसे पकड़ने की पद्धति भी अविकसित शैली की ओर संकेत करती है।
- बुद्ध और बोधिसत्वों की समकालीन प्रतिमाओं में दिखलाई पड़ने वाला उर्णा चिन्ह यहाँ भी विद्यमान है।
- विष्णु के अवतारों से सम्बन्धित मूर्तियाँ इस काल में बहुत कम बनी। अभी तक के संग्रह में केवल दो मूर्तियाँ हैं जिनका विवेचन आगे यथा स्थान किया जायेगा।
- गरुड़रुड़ विष्णु की प्रतिमा का निर्माण भी इस काल से प्रारम्भ हो गया था।२० (चित्र ६३)
- अष्टभुज विष्णु की मूर्तियाँ भी शनै: शनै: प्रचार में आ रही थी।२१
शिव मूर्ति -
पूजन हेतु शिव की पुरुष आकार प्रतिमा तथा लिंग दोनों प्रचलित थे। शिवलिंग का पूजन विदेशी लोग भी करते थे और आज के समान कभी-कभी पीपल के पेड़ों के नीचे इन लिंगों की स्थापना की जाती थी इस काल की कलाकृतियों में ये दृश्य विद्यमान है।२२
साधारण लिंगों के अतिरिक्त एक
मुखी लिंग भी बनाए और पूजे जाते थे।
शिवलिंग के समान शिव को पुरुषाकार प्रतिमाएँ
भी लोकप्रिय हो रही थी। कुषाण सम्राट 'विम' के
समय से अंतिम शासक वासुदेव तक कितने ही कुषाण सिक्के
शिव की प्रतिमा से अंकित होते रहे। पाषाण कलाकृतियों
में निम्नांकित विशेषताओं के साथ
शिव मूर्ति के दर्शन होते हैं -
- एकमुखी शिवलिंग में केवल मुखमण्डल और जटाभार दिखलाई पड़ता है।
शिव का तीसरा नेत्र पर दिखलाया जाता है पर इस काल
में वह सदैव आड़ा बना रहता है खड़ा नहीं।
- कुषाण काल तक शिव के मुख्य चिह्म
बैल, जटाभाट, तीन नेत्र व त्रिशूल यहाँ दृष्टिगोचर होते हैं।
साँप, चंद्रमा, व्याघ्राम्बर, डमरु, गंगा आदि
बातों का यहाँ अभाव है।
- अकेले शिव के अतिरिक्त उनका शक्ति के साथ
अर्धनारीश्वर के रुप में भी पूजन होता था (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या १५.८७४)। इस प्रकार की मूर्तियाँ
मथुरा में प्राप्त होती हैं, जिनमें शिव को ऊर्ध्व-भेद स्थिति
में विशेष, रुप में दिखलाया गया है। यह
उनकी अमोध उत्पादन शक्ति एवं चिर स्थायित्व का द्योतक है।
- शिव और पार्वती की स्वतंत्र प्रतिमाएँ
भी मथुरा कला में प्राप्त हैं।२३
शक्ति प्रतिमाएँ -
देवी की मूर्तियों
में लक्ष्मी, महिषासुर मर्दिनी दुर्गा व
मातृकाओं की मुख्यत: गणना की जा सकती है। इनके अतिरिक्त 'हारिति' व 'वसुधार' की प्रतिमाएँ
भी मिलती हैं।
लक्ष्मी और गजलक्ष्मी की प्रतिमा तो भरहूत और
सांची सी ही चली आ रही थी२४ और ब्राह्मण धर्म के
समान बौद्धों के यहाँ भी समादृत हो चुकी थी।
मथुरा कला शैली ने थोड़े परिवर्तनों के
साथ उसे अपनाया। यहाँ हमें लक्ष्मी के तीन
रुप प्राप्त होते हैं -
१. एक हाथ में कमल धारण करने वाली आसनस्थ
लक्ष्मी। यह बहुधा त्रिभुज होती है।
२. उसी प्रकार की खड़ी प्रतिमा।
३. गजलक्ष्मी, एक हाथ में कमल लिये खड़ी।
४. पूर्ण कुम्भ से उद्भूत होने वाली
श्रीपर्णीलता या कमल लता के बीच खड़ी
मात्रत्व का संकेत करने वाली श्रीदेवी।
दुर्गा के रुप में यहाँ केवल चतुर्भुज दुर्गा का
रुप मिलता है। उसके ऊपरी हाथों में तलवार और दल है, निचले दाँये हाथ
में त्रिशूल है और निचले बाँये हाथ
में वह महिष को दबा रही है। असुर
भी पशुरुप ही है, मानव-पशु के रुप
में नहीं। दुर्गा के आठ हाथ और अठारह हाथ
वाले रुप उत्तर काल में बने, कुषाण काल
में वे नहीं दिखलाई पड़ते।२५ मातृकाओं का कुषाण काल
में पर्याप्त बोल-बाला था। कुषाण कालीन जो
मादकापटट जो मिला है, उस पर अंकित देवियाँ
मानव मुखों से नहीं अपितु पशु-पक्षियों के
मुखों से युक्त हैं और प्रत्येक की गोद
में एक शिशु है। उनकी संख्या भी अनिवार्यत:
सता नहीं है। अन्य देवियों में देवी हरीति का स्थान
मुख्य है। इनकी कुषाण कालीन प्रतिमाएँ
अच्छी मात्रा में उपलब्ध हुई है। जिनमें
ये बच्चों से घिरी हुई अकेली अतवा कुबेर के
साथ दिखलाई पड़ती है।
सूर्य प्रतिमाएँ -
सूर्य का पूजन दो प्रकार
से किया जाता है। एक तो मण्डलाकार बिम्ब का पूजन और दूसरे
मानव रुपिणी सूर्य-प्रतिमा का पूजन।
सूर्य की भारतीय पद्धति की नर आकार प्रतिमा, जिसे कुषाण काल के पूर्व की
माना जाता है, बुद्ध गया से प्राप्त हुई है। वह
रथारुड़ है। परन्तु यह रुप भारत में
विशेषकर कुषाण काल में लोकप्रिय न हो
सका। इसक कदाचित् यह भी कारण था कि
मानवाकार सूर्य की उपासना भारत
में मुख्यत: ईरान से आई।
ये विदेशी लोग जिन्हें भारतीय साहित्य
में 'मग' नाम से जाना गया, अपने साथ
सूर्य उपासना की पद्धति ले आए, इन्हीं के
वेश के समान इनके देवताओं की वेशभूषा
भी होना स्वाभाविक था। इसलिए कुषाण कालीन
सूर्य मूर्तियाँ लम्बा कोट, चुस्त पाजामा और ऊँचे
बूट पहने हुए दिखलाई पड़ती है। इस
वेश को भारत में 'उदीच्य' वेश के नाम
से जाना गया। कुषाण कालीन माथुरी कला
में रथारुड़ एवं आसनारुड़, सूर्य की लंबा कोट,
बूट, गोल टोपी तथा इने-गिने अलंकरण धारण की हुई प्रतिमा पाई गई है। एक
मूर्ति में उनके छोटे पंख भी दिखलाए गए हैं (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या-डी-४६) दूसरी में उनके आसन पर ठीक
वैसी ही अग्नि की बेदी बनी है जैसी कतिपय ईरानी सिक्कों पर पाई जाती है।
अन्य प्रतिमाएँ -
ऊपर गिनाई हुई
मूर्तियों के अतिरिक्त 'कार्तिकेय', 'कुबेर', 'इन्द्र' व अग्नि
मूर्तियाँ भी कुषाण काल में बनी। अन्य देवताओं के
समान इन देवताओं के ध्यान (लांछन) कुषाण काल
में बड़े ही सीधे-साधे थे। कार्तिकेय का
मुख्य चिह्म था शक्ति या भाला। एक मुखद्विभुजशक्तिधर कुमार कार्तिकेय की
सुन्दर प्रतिमा मथुरा संग्रहालय में है जो
शक संवत ११ अथवा ई. सन ८९, में बनी थी (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या ४२.२९४९)।
कुबेर की मूर्तियों का मथुरा में वैपुल्य है।
मोटे पेट वाले स्थूलकाय धन के देवता कुबेर देखते ही
बनते हैं। कभी वे पाल थी मार कर
सुख से स्मित करते हुए बैठे दिखलाई पड़ते हैं, कभी
मदिरा का यषक हाथ में लिए रहते हैं और कभी
लक्ष्मी और हरीति के साथ एक ही शालप पर
शोभित रहते हैं।
अग्नि की मुख्य पहचान उनकी तुंजडिल तनु,
यक्षोपवीत, जटाभार, व पीछे दिखलाई पड़ने
वाली ज्वालाएँ हैं (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या ४०.२८८०, ४०.२८८३)। इनके विशेष आयुध, वाहन मेष आदि
बातें कुषाण कालीन मूर्तियों में नहीं दिखलाई पड़ती।
इन प्रमुख देवी-देवताओं के अतिरिक्त
माथुरी कला में 'नाग' व नाग स्रियों की प्रतिमाएँ
भी अच्छी मात्रा में मिलती है। कुषाण काल
में यहाँ पर 'दधिकर्ण नाग' का मन्दिर विद्यमान था। इस नाग की
लेखांकित प्रतीक यहाँ से प्राप्त हुई है। नाग प्रतिमाओं
में अन्य नागों के अतिरिक्त बलराम की
मूर्तियों को भी गिनना होगा। पुराणों के
अनुसार बलराम शेषावतार थे। उनकी हल और मूसल को धारण करने
वाली एक शुंग कालीन मूर्ति मथुरा
में पाई गई है। यह मूर्ति इस समय
लखनऊ संग्रहालय में है। कुषाण कालीन
बलराम की मूर्तियों में वे हाथ में
मद का प्याला लिए दिखलाई पड़ते हैं। गले
में वनमाला पड़ी रहती है, पीछे सपं की
फणा बनी रहती है। इस पर कभी-कभी
स्वास्तिक-मत्स्ययुग्म, पूर्णघट, अष्ट मांगलिक चिह्म आदि
भी बने होते हैं।२६
साधारणतया यहाँ नाग की प्रतिमाएँ मनुष्याकार ही होती है केवल
मस्तक के ऊपर सपंफणा बनी रहती है। हाथ
में बहुधा छोटा सा जलकुम्भ रहता है नाग स्रियों की
मूर्तियाँ भी लगभग ऐसी ही होती हैं। एक
विशेष मूर्ति ऐसी भी मिली है, जिसमें एक नाग
रानी के कंधे से पाँच अन्य नाग शक्तियाँ
उद्भूत होती हुई दिखलाई गई हैं।
इस प्रकार धर्म निरपेक्ष भाव से नास्तिक एवं आस्तिक दोनों प्रकार के
सम्प्रदायों की सेवा करते हुए कला के एक ऊँचे आदर्श की स्थापना करना
माथुरी कला का सबसे महत्वपूर्ण
योगदान है।
१. नीलकंठ पुरुषोत्तम जोशी, मथुरा कला में मांगलिक चिह्म, 'आज' वाराणसी १६ फरवरी १९६४।
२. ये अर्धफलक सम्प्रदायक के उपासक है लखनऊ संग्रहालय मूर्ति संख्या जे.-१२, जे.-१४, जे.-६२३।
३. लखनऊ संग्रहालय मूर्ति संख्या जे.-८, जे.-१५
४. उमाकान्त शाह,
HARINEGAMESHIN 'JISOA' (JOURNAL OF THE INDIAN SOCIETY OF ORIENTAL ART), लन्दन, खण्ड १९, १९५२-५३, पृ.२२।
५. वासुदेवशरण अग्रवाल,
THE PRESIDING DEITY OF CHILD BIRTH ETC., JAIN ANTIQUARY,
मार्च १९३७, पृ. ७५-७९.
६. उमाकान्त शाह,
HARINEGAMESHIN, JISOA, खण्ड-१९, १९५२-५३, पृ.३७।
७. आनन्द कुमार
स्वामी, HIIA, पृ. ५२-६३, ६२
८. ए. एल.
बाशम THE WONDER THAT WAS INDIA, पृ. ३६९।
९. महावग्ग, ८, चीवरक्ख-धकम्।
१०. आनन्द कुमार
स्वामी, HIIA, पृ. ५९
AGE OF THE IMPERIAL UNITY, खण्ड-२, पृ. ५२२-२३।
११.
ललित विस्तार, ७, पृ. ७४, ऊर्णा.....भ्रुवोर्मध्ये जाता हिमरजतप्रकाश।
१२.
ललितविस्तार, २१, पृ. २१६, सर्वभारमण्जसविध्वसंनकरी नामैकां
रश्मिमुद स्त्रजत्।
१३. वही, ३, पृ. ११, एकांसमुत्तरासंगंकृत्वा।
१४.
मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या ३८.२७९८, प्रयाग संग्रहालय
मूर्ति संख्या के. १।
१५. बम्बई संग्रहालय की
मूर्ति ख्एग्रङ्च्, ज्रज्र, १९०२, पृ. २६९।
१६.
बोधिसत्व प्रतिमा सारनाथ संग्रहालय।
१७.
राधाकुमुद मुकर्जी,
NOTS ON EARLY INDIAN ART, JUPHS, खण्ड-१२, भाग-१
पृ. ७० के सामने वाला चित्र, लखनऊ संग्रहालय
मूर्ति संख्या ओ. ७१।
१८. कृष्णदत्त
वाजपेयी,
THE KUSHANA ART OF MATHURA, मार्ग, खण्ड-९, संख्या-२,
मार्च १९६२ पृ. २८।
१९.
ललितविस्तार, ८, पृ. ८४। दिव्यावदान, २७, ३८, पृ. ४९३-९४।
२०. मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या ५६.४२००।
२१. मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या ५०.३५५०१, लखनऊ संग्रहालय मूर्ति संख्या ४९.२१७।
२२. मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या, ३६.२६६४, लखनऊ संग्रहालय मूर्ति संख्या, बी. १४१।
२३. यह
मूर्ति कौशम्बी से मिली है, ASIR, १९१३-१४, फलक-७०
बी, गांधार कला में भी शिव प्रतिमाएँ
मिली हैं - वी. नटेश एयर, TRIMURI IMAGE,
ASIR, १९१३-१४, पृ. २७६-८०,
फलक ७२ ए.।
२४.
बेनीमाधव बरुआ, BHARHUT , चित्र
संख्या - २३, ८०, ८० बी. आदि। जॉन मार्शल,
THE MANUMENT OF SANCHI ,
फलक ११, ३, २५ आदि।
२५.
रत्न चन्द्र अग्रवाल, THE GODDESS MAHISHASURA-MARDINI IN KUSHANA ART ARTIBUS
ASIAE, खण्ड-१९, ३-४ अस्कोना, स्विजरलैंण्ड, पृ. ३६८-७३
२६ . नीलकंठ पुरुषोत्तम जोशी,
मथुरा कला में मांगलिक चिह्मों का प्रयोग, आज,
वाराणसी, १६ फरवरी, १९६४।
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