कुषाण -गुप्त
काल
ईस्वी सन की द्वितीय शताब्दी के अन्तिम पाद में कुषाण वंश के अंतिम शासक वासुदेव का शासन समाप्त हुआ और इसी के साथ मथुरा की कुषाण कला का उत्कर्ष भी समाप्त हो गया। इसके बाद भारतीय इतिहास के 'स्वर्णिम युग' माने जाने वाले 'गुप्त' साम्राज्य की स्थापना तक इस भू-प्रदेश में राजनैतिक उथल-पुथल हो रही थी। गुप्तों के समय काल को एक नया मोड़ प्राप्त हुआ और साथ ही साथ अब भाव सौंदर्य की ओर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। सौंदर्य के मानदण्ड का यह परिवर्तन तत्कालीन जीवन के सभी क्षेत्रों में झलकता हुआ दिखलाई पड़ता है। मूर्ति कला, चित्रकला, साहित्य, वेश-भूषा, वास्तुकला इत्यादि अनेक क्षेत्रों में इस नवीन जागरण के दर्शन होते हैं, परन्तु स्पष्ट है कि यह जागरण आकाश में कौंध उठने वाली बिजली के समान एकाएक समुद्भूत नहीं हुआ था। इसके पीछे लगभग एक शताब्दी की परम्परा है। कुषाण काल के अन्तिम दिनों से ही इन नवीन विचारों की सूचना मिलने लगती है।
मथुरा कला में देखे जाने वाले इस परिवर्तन युग को यहाँ 'संक्रमणकाल' अथवा 'कुषाण-गुप्तकाल' कहा गया है। साधारण रुप से सन २०० से ३२५ ई. सन तक का काल इसमें समाविष्ट किया जा सकता है।
इस युग में निर्मित प्रतिमाओं में कुषाण और गुप्त दोनों कलाओं के लक्षणों का अद्भुत मेल दिखलाई पड़ता है। यहाँ कलाकार अपनी परंपरागत शैली में मूर्ति तो गढ़ता है पर साथ ही साथ उसका ध्यान भावपक्ष की ओर भी लगा रहता है। उदाहरणस्वरुप सुखासीन 'कुबेर' (मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या-सी-३, चित्र-७०) के मुख पर दिखलाई पड़ने वाला सुख और संतोष का चित्रण। बुद्ध या तीर्थकर की मूर्ति बनाते
समय कलाकार शांत और स्मितयुक्त
मुख बनाने की चेष्टा करता है। प्रभामण्डल को हस्तिनखों
से युक्त तो बनाता है पर बीच वाली खाली जगह
में कतिपय नवीन अभिप्रायों का सृजन करता है। चतुर्भुज
शिवलिंग को गढ़ते समय चारों मुखों पर चार
विशेष प्रकार के भाव प्रदर्शित करने का
भी प्रयास करते हैं। केवल मथुरा कला की ही नहीं, अपितु
अन्यत्र पाई गई कुछ मूर्तियाँ भी इस काल की कला का प्रतिनिध्य करती हैं। प्रो. काकिंड्रगटन ने इस
संदर्भ में लिखा है कि कुषाण और गुप्त काल के
मध्य वाली खाई को मिलाने वाली चार
बुद्ध मूर्तियाँ१ विशेष रुप से उल्लेखनीय है।२ कुषाण गुप्त काल की
मूर्तियों की साधारण रुप से अधोलिखित
विशेषताएँ मानी जा सकती हैं -
- नेत्रों के ऊपर भौंहों की
वक्रता में वृद्धि होती है।३
- इस काल से कानों की
लम्बाई बढ़ने लगती है।
- हास्य को प्रभावोत्पादक
बनाने के लिए होठों के दोनों छोरों
पर हल्के गढ्ढे दिखलाई पड़ते हैं (चित्र-७१)।
- साधारणतया
केशों की रचना, हाथों के अंगादि
अलंकार मेखला आदि की बनावट में
प्राचीन कुषाण परम्परा के दर्शन होते हैं।
- सारे शरीर की
बनावट में छरहरापन तो नहीं
दिखलाई पड़ता पर पेट, कमर और
जाँघों की बनावट अधिक आकर्षक अवश्य हो जाती है। (चित्र-६७)
- प्रभामण्डल में हस्तिनख की
अन्तिम पंक्ति तो रहती है पर उसके
और केन्द्र के बीच वाले रिक्त स्थान
में शनै: शनै: अलंकरणों का बनना
प्रारम्भ होता है जो गुप्त काल में पहुँच कर
पूर्णता को पा लेता है।
गुप्त
काल
इस काल की कला का प्रमुख
वैशिष्ट्य मूर्ति कला ही है। कलाकार के कुशल हाथों
में पड़कर इस काल की मिट्टी और प्रस्तर
सौंदर्य की जीती जागती प्रतिमाओं में
बदल जाते थे। गुप्त कालीन कलाकारों ने कुषाण काल के
शारीरिक सौंदर्य के उन्तान प्रदर्शन को नहीं अपनाया
वरन् स्थूल सौंदर्य और भाव सौंदर्य का
सुन्दर योग स्थापित किया। गुप्त कला
में निवस्र व नग्न चित्रण को कोई स्थान नहीं है
जबकि कुषाण कला की वह एक अपनी निज
विशेषता थी। कुषाण कला का पारदर्शक केश विन्यास
शरीक के सौष्ठव को, उसके मांसल अवयवों को चमकाने के
लिए बनाया जाता था, परन्तु गुप्त काल का
वस्र विलास उसे सुरुचिपूर्ण ढ़ग से आच्छादित करने के
लिए ही बनता था। वेदिका स्तम्भों पर अंकित क्रीड़ारत
युवतियों का अंकन गुप्त युग में लोकप्रिय न रहा। अब इन बाहर की प्रतिमाओं की अपेक्षा गर्भग्रह के
अन्दर स्थापित उपास्य मूर्ति के सौंदर्य को अधिक
मूल्य दिया जाने लगा।
डॉ. कुमार स्वामी के अनुसार गुप्त काल की कला जो
मथुरा की कुषाण कला से उद्भूत है, स्त: एक
रुप एवं स्वाभाविक है।४
गुप्त कालीन मानव मूर्तियों की कुछ
विशेषताएँ, जो बहुधा सर्वसाधारण
रुप से देखी जा सकती हैं, निम्नांकित हैं -
- सादी एवं प्रभावोत्पादक शैली जिसकी सहायता
से अनेक भव्य आदर्श साकार हो उठे हैं।
बुद्ध की कुछ मूर्तियों में (उदाहरणार्थ
मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या ००. ए ५, चित्र ७९) तथा
मथुरा की गुप्त कालीन विष्णु मूर्ति
में जो इस समय राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली
में है, आध्यात्मिक शांति, प्रसन्नता, स्नेह व दयाशीलता के स्पष्ट दर्शन होते हैं।
- मूर्ति के अंकन में यथार्थ की अपेक्षा आदर्श की
मात्रा बढ़ जाती हैं उदाहरण के लिए आँखें अब गोल नहीं होती अपितु
वे धनुषाकार भौहों के साथ कान तक (आकर्ण)
फैल जाती हैं और आकाश में लम्बी और कोनेदार दिखलाई पड़ती है।
- पाषाण प्रतिमाओं में आँखों की पुतलियाँ कम ही निर्मत होती रहीं और आँखें
अधखुली दिखलाई जाती थीं।
- नाक सीधी, कपोल चिकने, होंठ कुछ
मोटे तथा गढ्ढ़ेदार बनाए जाने लगे। कानों की
बनावट में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हो
गया।
- कुषाण काल में हास्य का प्रदर्शन करने के
लिए कभी-कभी दन्तावली दिखलाई जाती है, पर गुप्त काल
में विशेष प्रकार की मूर्तियों को छोड़कर
सामान्यत: केवल मंदस्मित से ही काम
लिया गया है।
- विष्णु,
कार्तिकेय, इन्द्र आदि मूर्तियों
में भौंहों के बीच दिखलाई पड़ने
वाले देवत्व का प्रदर्शक ऊर्णा चिह्म अब
अदृश्य हो जाता है।
- केशों की बनावट में अनेक आकर्षक प्रकार दिखलाई पड़ने
लगते हैं।
- वस्र सधारणतया झीनें और शरीर से चिपके हुए दिखलाई पड़ते हैं।
- कुषाण काल की अपेक्षा अलंकारों की संख्या कम होने
लगती है। कुछ चुने हुए आभूषण जैसे कंठ की एकावली, हाथों
में अंगद और कंकण, मोतियों का जनेऊ, करधनी और नूपुर ही
साधारणतया दिखलाई पड़ते हैं।
बुद्ध मूर्ति
कुषाण काल से समान गुप्तों के
समय भी मथुरा नगर कला का एक तीर्थ रहा, पर कला का
मुख्य केन्द्र होने का सौभाग्य अब सारनाथ (वाराणसी) को
मिला५, जहाँ चुनार प्रस्तर के माध्यम
से इस काल की कई अमर कृतियाँ निर्मित हुई।
मथुरा की गुप्तकलाकृतियों
में सर्वश्रेष्ठ वह बुद्ध प्रतिमा है जिसने अपने
सौंदर्यभिव्यक्ति के कारण देश की सभी गुप्त कालीन कृतियों
में एक महत्वपूर्ण स्थान पाया है। इस प्रतिमा के
मुखमण्डल पर विलास करने वाला
मंदस्मित, शान्त मुद्रा एवं आध्यात्मिक प्रभुता का तेज देखते ही
बनता है (मथुरा संग्रहालय मूर्ति
संख्या ००.ए ५, चित्र ७९)
गुप्त कालीन बुद्ध मूर्तियों में अधोलिखित
विशेषताएँ अवलोकनीय है।
- आध्यात्मिक चिन्तन, शान्ति और स्मित के
मुख पर स्पष्ट दर्शन।
- शरीर की संरचना में मृदुता।
- वस्रों का झीना और पारदर्शक होना।
- वस्र की विशेष प्रकार की सिकुड़ना कुषाण काल की
मूर्तियाँ में बहुधा वस्र की सिकड़ने
खोदकर बनाई जाती थीं पर गुप्त काल
में ये धारियाँ उभरी हुई रहती हैं।
साथ ही वस्र
हल्के और पारदर्शक भी हैं। (चित्र-७०)
- अलंकृत प्रभामण्डल। कुषाण काल में प्रभामण्डल के किनारे पर प्राय:
अर्धचन्द्र या हस्तिनख
की पंक्ति बनी रहती थी पर अब इसके
साथ-साथ विकसित कमाल, पत्रावली, पुष्पलता
आदि कई अभिप्राय बन रहते हैं। (चित्र-७९)
- घूँघरदार बालों से अलंकृत मस्तक। अब
बुद्ध को मुण्डित मस्तक क्वचित् ही दिखलाई
पड़ता है, उस स्थान पर घुँघराले बालों की घुमावदार
लटें दिखलाना साधारण प्रथा बन
जाती हैं।६
- कुषाण काल में भौंहों के बीच दिखलाई पड़ने
वाला ऊर्णा चिह्म अब इनी-गिनी मूर्तियों
में
दिखलाई पड़ता है (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या-१८.१३९१, ३३.२३३९, २३०९.३३ इ.)।
इन मूर्तियों के केवल परिपाटी के पालन का नमूना कहा जा
सकता है। साधारणतया ऊर्णा
चिह्म अब कुषाण काल के समान आवश्यक नहीं
समझा जाता था।
- अभयमुद्रा दिखलाने वाले हाथ की स्थिति
में भी अब परिवर्तन होता है। कुषाण
मूर्तियों में
यह हाथ लगभग कंधे तक ऊँचा उठा रहता है, पर गुप्त
युगीन बुद्ध प्रतिमा में वह लगभग
समकोंण बनाते हुए अधिकाधिक कमर तक ही उठता है।७
- दोनों पैरों के मध्य में दिखलाई पड़ने
वाली वस्तुओं का लुप्त होना।८
- कानों की लम्बाई व सारे चेहरे की
बनावट तथा हाथों की बनावट में भी
अन्तर है। गुप्त
कालीन चेहरे की विशेषताएँ पहले
वर्णित की जा चुकी हैं। हाथ की विशेषताएँ उसकी
उँगलियों में है। कुषाण काल में जहाँ पाँचों उँगलियाँ
मिली हुई दिखलाई पड़ती है, वहाँ
गुप्त काल में वे सम्मुख भाग में एक दूसरे
से पृथक मालूम पड़ती है।
- हथेलियों पर निर्मित किए जाने वाले चिह्म गुप्त काल
में कम हो जाते हैं। यहाँ आते-आते
सामुद्रिक रेखाएँ तो रहती हैं, पर धर्म चक्र और त्रिरत्न नहीं रहते। (चित्र-७८)।
जैन तीर्थकरों की
मूर्तियाँ
गुप्त काल में निर्मित जैन तीर्थकर
मूर्तियाँ भी अधिकतर भाव प्रधान हैं।
बुद्ध प्रतिमाओं के समान उनके प्रभामण्डल विविध प्रकार
से अलंकृत पाए जाते हैं। हथेलियों और पैरों के तलुओं पर धर्मचक्र चिह्म
बना रहता है (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या ०० बी.१, ००.बी-११, ००.बी-२८)। यह
भी विशेष महत्व की बात है कि जहाँ गुप्त कालीन
बुद्ध मूर्तियों में ऊर्णा चिह्म बहुधा नहीं
मिलता, वहाँ जैनियों ने इस पद्धति को पूरी तरह नहीं छोड़ा। ऊर्णा और उष्णीष
से युक्त जैन मूर्तियों के नमूने मथुरा
शैली में विद्यमान हैं (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या ००.बी-४५, ००.बी-५१), किन्तु ऐसे नमूने कम हैं।
तीर्थकरों के लांछन दिखलाने की पद्धति अभी नहीं चली थी। कुषाण काल के
समान इनके नामों को जानने के
लिए हमें उन पर अंकित शिलालेखों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। 'ॠषभनाथ' और 'पार्श्वनाथ' तो क्रमश: कंधों पर लहराते हुए
बालों की लटों व मस्त पर दिखलाई पड़ने
वाली सपंफणों से पहचाने जा सकते हैं।
तीर्थकरों की कुछ ऐसी मूर्तियाँ हैं, जो गुप्त काल और
मध्य काल की संक्रमणावस्था को सूचित करती हैं। उदाहरणार्थ एक तीर्थकर प्रतिमा (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या - १८.१३८८) की चरण चौकी पर अठारहवें तीर्थकर 'अमरनाथ' का
लांछन मीन-मिथुन बना है। एक दूसरे तीर्थकर प्रतिमा (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या ००.बी-७५) पर जैन, बौद्ध और
ब्राह्मण धर्म के अभिप्रायों का अद्भुत
समिश्रण है। मूर्ति तीर्थकर की है, उनके आसन पर दो
मृगों के मध्य धर्मचक्र वाला एक और अभिप्राय है और पीछे की ओर कुबेर और नवग्रहों की
मूर्तियाँ बनी हैं।
ब्राह्मण धर्म की
मूर्तियाँ
गुप्त काल का राजधर्म वैष्णव होने के कारण यह
स्वाभाविक था कि वेदशास्रों से अनुमोदित
ब्राह्मण धर्म की ओर प्रजा का झुकाव अधिक रहा हो और इससे
संबंधित मूर्तियों का प्रचलन भी अधिक रहा हो। इस
संबंध में निम्नांकित बाते विशेष
रुप से ध्यान देने योग्य हैं -
- मथुरा मूर्ति कला
शैली में अन्य देवताओं की अपेक्षा ब्रह्मा की
मूर्तियाँ कम निर्मित की जाती थीं।
- गुप्त काल में विष्णु की
मूर्तियाँ की विपुलता है। प्रारम्भिक विष्णु
मूर्तियों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस काल
में विष्णु प्रतिमा को गढ़ने के लिए पुरानी कुषाण कालीन विष्णुमूर्ति को ही आधार
माना गया था, पर साथ ही साथ नवीन
लक्ष्यों का बी समावेश तेजी से होने
लगा था (चित्र-७२) उनका सीधा-साधा मुकुट अब
शनै: शनै:) लुप्त होने लगा और उसका स्थान सिंह
मुख, मकर, मुक्ता जा आदि अलंकरणों
से युक्त मुकुट ने ले लिया (चित्र-८४)। गले के आभरण तथा पहनने के
वस्र में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए।
वनमाला तथा प्रभामण्डल के निर्माण अब प्रारम्भ हुआ। गुप्त काल
से ही प्रारम्भ होने वाली एक दूसरी महत्वपूर्ण
विशेषता विष्णु के आयुध पुरुषों की निर्मिति है।
मथुरा कला में गदा देवी व चक्र पुरुष के दर्शन होते हैं। चारों आयुधों को धारण किए हुए खड़े विष्णु के
साथ ही इस काल में आसन पर बैठी हुई प्रतिमाएँ
भी बनी थीं (मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या-१५.५१२)।
साधारण प्रतिमाओं के अतिरिक्त त्रिविक्रम
रुप में बनी विष्णु मूर्तियाँ मथुरा
से प्राप्त हुई हैं। गुप्त काल की वैष्णव
मूर्तियों में नृसिंह-वाराह-विष्णु की
मूर्ति विशेष रुप से उल्लेखनीय है। इस प्रकार की प्रतिमा
में तीन मुख होते हैं। इनमें बीच का पुरुष तथा
अगल-बगल के मुख वराह और सिंह के होते हैं। (चित्र-८८)।
इस काल में शिव मूर्तियाँ भी कम नहीं प्राप्त होती।
मथुरा में तो 'चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य' के
समय में शैवों का एक बहुत बड़ा केन्द्र रहा जिसका प्रमाण यहाँ
से मिला हुआ स्तम्भ लेख है। इस काल
में शिव की लिंग-रुप और मानव-रुप दोनों प्रकार की
मूर्तियाँ मिलती हैं। इनकी प्रथम महत्वपूर्ण
विशेषता शिव का तीसरा नेत्र है। कुषाण काल
में यह नेत्र आज बनाया जाता था पर कुषाण-गुप्त काल
से ही यह खड़ा बनया जाने लगा (चित्र-७३)।
शिवलिंगों में साधारण लिंगों के अतिरिक्त एकमुखी (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या १४-१५.४२७, १६.१२३८) व द्विमुखी
लिंग (मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या १४-१५.४६२)
मिलते हैं। अन्यत्र शिव के चतुर्मुख और पंचमुख
भी मिलते हैं। शिव की मूर्तियों
में अर्धनारीश्वर (चित्र-८०) व आलिंगन
मुद्रा में शिव और पार्वती (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या - १४.४७४) की प्रतिमाएँ अधिक
मिलती हैं। मथुरा की शिव प्रतिमाओं की यह एक
विशेषता है कि यहाँ जब शिव अपनी
शक्ति के साथ होते हैं तब उन्हें अवश्य ही
उर्ध्वभेद स्थिति में दिखलाया जाता है जो आदि पुरुष की आदि
शक्ति का परिचायक है। शिव पार्वती की
मूर्तियों में अलंकरण व भाव प्रदर्शन की दृष्टि
से वह मूर्ति विशेष रुप से उल्लेखनीय है जो एक ही और नहीं अपितु दोनों ओर
समान रुप से बनाई गई है। (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या ३०-२०८४)। गुप्त काल की कुछ
मूर्तियों में शिव के परिचायक चिह्मों
में व्याघ्राम्बर (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या ५४.३७६७; चित्र-७४) अर्धचन्द्र या
वालेन्दु (मथुरा संग्रहालय मूर्ति
संख्या १३.३६२) दिखाई देते हैं।
- भारतीय कलाकृतियों
में प्राचीन काल की गणेश मूर्तियाँ बहुत ही कम प्राप्त हुई हैं जिनमें
से एक मथुरा से प्राप्त हुई है (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या १५.७५८)।
- उपरोक्त मूर्तियों के अतिरिक्त इन्द्र (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या ४६.३२२६, चित्र-७७), हरिहर (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या १०.१३३३) कुबेर (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या ००.सी ५), यमुना (लखनऊ संग्रहालय
मूर्ति संख्या जे.५६३) आदि की सुन्दर
मूर्तियाँ भी प्राप्त होती हैं।
- फुटकर मूर्तियों
में सूर्य देवता के एक अनुचर 'पिंगल' की
मूर्ति विशेष रुप से उल्लेखनीय है क्योंकि इस पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट
रुप से झलकता है (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या १५.५१३)। इसी प्रकार की एक
अन्य मूर्ति सूर्य के एक दूसरे अनुच्छेद
'दण्ड' की भी दर्शनीय है (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या १८.१३९७)। गुप्त काल में अन्यान्य देवताओं के
साथ नाग पूजा प्रचलित थी। आरम्भिक गुप्त काल की एक
सुन्दर नागी की प्रतिमा मथुरा संग्रहालय
में विद्यमान है। (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या ३६.२६६५)।
गुप्तोत्तर कालीन
मूर्तियाँ
गुप्तोत्तर काल में
सभी सम्प्रदाय की मूर्तियाँ तो खूब
बनती रहीं पर कला और सौंदर्य की दृष्टि
से उनमें गुप्त काल की सर्वांग सुन्दरता नहीं दिखलाई पड़ती है बहुत
सी मूर्तियों में मौलिकता का अभाव है। तथापि इन
मूर्तियों का एक अपना सौंदर्य है। मथुरा कला की
मध्य कालीन प्रतिमाओं की मुख्य रुप
से अधोलिखित विशेषताएँ गिनाई जा
सकती हैं -
- मथुरा की कलाकृतियों के
लिए आब तक जहाँ चिट्टेदार लाल प्रस्तर का प्रयोग होता था वहाँ अब
मध्य काल में पहुँचत-पहुँचते भूरे
रंग के बलुए प्रस्तर का प्रयोग होने
लगा और कलाकारों ने लाल प्रस्तर की
मूर्तियाँ गढ़ने के लिए आश्रय देना
समाप्त सा कर दिया।
- इस काल की प्रतिमाओं
में मांसलता और छोटा कद अधिक दिखलाई पड़ता है।
साथ ही कवि-संकेत-सिद्ध सौंदर्य के
मानदण्डों को जैसे विशाल आकर्षक-नेत्र,
शुक-चंचु के समान नासिक, निकली हुई कोनेदार ठोड़ी, स्रियों के अविरल स्तन-युग्म, इत्यादि को प्रमुख
रुप से अपनाया गया।
- इसके साथ-साथ अलंकारों के अंकन की
मात्रा भी बढ़ गई। भारी कंठ-भूषण, अलंकारों
से
भरे हुए हाथ, भारी वजन की मेखलाएँ
या रसना-जाल, ऊँचे हुए मुकुट, पुष्पों
से शोभित धमिल्ल एवं नयनरम्य केशभार इस काल की
मूर्तियों में बड़ी ही रुचि से बनाए जाते थे।
- मथुरा की मध्य कालीन
मूर्तियाँ अधिकतर समूचे प्रस्तर की पटिया पर
उकेर कर निर्मित की गई हैं, चारों ओर से देखी जाने
वाली मूर्तियाँ कम हैं।
- इस समय की पुरुष
मूर्तियों में मस्तक के केशों का अंकन
भी ध्यान देने योग्य हैं। कुषाण काल
में मुकुट के नीचे कानों के ऊपर थोड़े केश दिखलाए जाते थे। गुप्त काल
में मुख पर इस प्रकार के बाल दिखलाना
बन्द हो गया, उन्हें कन्धों पर विपुलता
से लहराते हुए दिखलाने लगे थे। गुप्तोत्तर काल
में भाल के ठीक ऊपर काढ़े हुए बालों की एक छोटी
सी पंक्ति दिखलाई पड़ने लगती है।
- इस काल की मूर्तियों की दृष्टि
में भी उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं। अब इनकी दृष्टि
अन्तर्मुखी नहीं है, अपितु दर्शक या
भक्त की ओर पूरी तरह अवलोकन करने
वाली है।
उस काल तक पहुँचते-पहुँचते
बौद्ध, जैन और ब्राह्मण धर्म के मूर्ति
शास्र बहुत अधिक विकसित हो चुके थे और विभिन्न देवी-देवताओं के
अनेक ध्यान लोकप्रिय हो रहे थे। इस
बदलती हुई परिस्थिति के फलस्वरुप हमें यहाँ
अनेक नवीन प्रकार की मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। इनमें कतिपय महत्वपूर्ण प्रतिमाओं की यहाँ चर्चा की जा रही है।
(क) जैन सम्प्रदाय की प्रतिमाएँ - इस काल की
बनी जैन मूर्तियों के भाव पक्ष तो निर्बल हैं पर
वे मूर्तिशास्र की दृष्टि से वे अधिक पूर्ण हैं। अब केवल तीर्थकरों के
लांछन ही नहीं अपितु कहीं, कहीं उनके
साथ के पक्ष आदि भी बने रहते हैं। इससे तीर्थकर की पहचान करना सहज हो जाता है। इन प्रतिमाओं की दूसरी
विशेष बात यह है कि अब बुद्ध और जैन प्रतिमा के
मस्तकों में विशेष अन्तर नहीं दिखलाई पड़ता। प्रभामण्डल, उष्णीस, छत्रावलि, विधाधर आदि
वस्तुएँ दोनों में पाई जाती हैं।
समय के साथ-साथ जैनों का देवता-संघ
भी बढ़ता गया और उनकी मूर्तियाँ निर्माण होती गई।
मथुरा के संग्रहालय में जैनों के एक देवता क्षेत्रपाल की एक प्रतिमा विद्यमान है (चित्र-९७)। यह
भैरव का ही एक रुप है। इसी प्रकार जैनों की एक प्रसिद्ध देवी
'चक्रेश्वरी' की एक मूर्ति यहाँ देखी जा
सकती है (चित्र-९३)। जिसके सभी हाथों
में चक्र बने हैं। अन्य देवताओं में
सिंहारुड़ अम्बिका (चित्र-९८) एवं कल्पवृक्ष के नीचे
बैठे हुए स्री-पुरुष या 'युगलिया'६३ प्रतिमा (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या-१५.११११) दर्शनीय है।
(ख) बौद्ध मूर्तियाँ - इस काल में
मथुरा में बनी बुद्ध मूर्तियों की संख्या अधिक नहीं है। कुछ के टूटे हुए सिर संग्रहालय
में हैं जिन पर क्वाचित उष्णीश और उर्णा विद्यमान है।
बोधिसत्वों ६३. इसकी पहचान डॉ. जोती प्रसाद जैन,
लखनऊ संग्रहालय ने की।
की स्वतंत्र मूर्तियाँ बनना इस काल
में मथुरा में बन्द सा हो गया था। इतिहास
भी हमें बतलाता है कि आठवीं शताब्दी के पश्चात
अर्थात शंकराचार्य के समय में बौद्ध धर्म
भारत से लगभग उठ गया था। इसलिए इन
मूर्तियों का न मिलना स्वभाविक ही है।
(ग) वैष्णव मूर्तियाँ - मथुरा कला की
मध्यकालीन वैष्णव प्रतिमाओं में
सबसे महत्वपूर्ण मूर्ति आसनस्थ चतुर्भुज विष्णु ही है (चित्र-९४)। इस काल
में खड़े या शेष नाग पर लेटे हुए विष्णु की प्रतिमाएँ
साधारण रुप से बनती थीं, पर बैठे हुए विष्णु जिन्हें
बुद्ध अवतार का प्रतीक समझते हैं कम दिखलाई पड़ते हैं। प्रस्तुत
मूर्ति अपनी पूर्णता के कारण विशेष
रुप से दर्शनीय है। अन्य प्रकार की विष्णु
मूर्तियों में गुप्त काल की अपेक्षा अलंकरणों की विपुलता है।
साथ ही साथ ब्रह्मा, शिव, आयुध पुरुष,
श्री देवी व भू देवी, नवग्रह, दस अवतार आदि
अनेक छोटी मूर्तियाँ आस-पास बनी दिखलाई पड़ती है। इस काल की एक
अन्य विशेषता विष्णु के वक्षस्थल पर दिखलाई पड़ने
वाला चतुर्दल कुस्तुभ है जो मथुरा की कुषाण और गुप्त कालीन कला
में अदृश्य था।
अन्य प्रकार की वैष्णव मूर्तियों में
शेषशायी विष्णु (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या-१२.२५६), वामन अवतार (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या-१८.१११४) व बलराम (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या-१८.१५१५) की मूर्तियाँ मुख्य हैं।
(घ) शैव व अन्य मूर्तियाँ - इनमें आलिंगन
मुद्रा में उमा माहेश्वर (००.डी ४३.४४), हरगौरी (१०.१३९) आदि
मूर्तियाँ व कतिपय शिवलिंगो को गिनाया जा
सकता है। अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों
में विशेष रुप से ध्यान देने योग्य निम्नांकित प्रतिमाएँ हैं -
नृत्यरत गणेश (मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या-१२.१८९), आलिंगन
मुद्रा में सपत्नीक गणेश (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या-१५.१११२), देवा सेनापति कार्तिकेय को
ब्रह्मा व शिव द्वारा अभिषेक (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या-१४.४६६), अग्नि जिसमें उसके वाहन मेष को पुरुष
रुप में दिखलाया गया है (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या-००.डी.२४), हनुमान (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या-००.डी.२७), कुबेर और गणेश के
साथ लक्ष्मी
(मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या-१५.१११९),
शिवलिंग और गणेश से युक्त तपस्या
में लीन पार्वती (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या-१५.१०१४), तीन पैरों वाले
भृंगी ॠषि (मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या-१७.१२८९), महिषासुरमदिजी (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या-१५.४४१), वीरभद्र और गणेश के
मध्य सप्त मात्रिकाएँ (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या-१५.५५२), उषा व प्रत्यूषा के
साथ रथ पर बैठे सूर्य (मथुरा संग्रहालय
मूर्ति संख्या-००.डी.४५), दण्ड पिंगल के साथ खड़े
सूर्य (मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या-१६.१२२०) आदि।
१ .
ये चार मूर्तियाँ हैं -
(i) सांची की स्तूप २६ की
बुद्ध मूर्ति।
(ii) अमरावती की खड़ी
बुद्ध प्रतिमा।
(iii) इलाहाबाद की खड़ी
बुद्ध प्रतिमा।
(iv) सांची के महा स्तूप की आसनस्थ
बुद्ध प्रतिमा।
२. के. डी. बी. काकिंड्रगटन,
MATHURA OF THE GODS ,
मार्ग खण्ड-९, संख्या-२, मार्च १९५६, पृ.४।
३.
मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या-३९-४०.२८३१।
४. आनन्द कुमार
स्वामी, HIIA, पृ. ७२।
५. स्टेला क्रेमरिच,
INDIAN SCULPTURE, पृ. ६३।
६.
मुण्डित मस्तक युक्त बुद्ध प्रतिमा का केवल एक ही नमूना अब तक ज्ञात है जो
लखनऊ के राज्य संग्रहालयों में सुरक्षित है और
मानकुवर बुद्ध प्रतिमा के नाम से पहचाना जाता है। (लखनऊ
राज्य संग्रहालय मूर्ति संख्या ओ. ७०)
७.
मथुरा संग्रहालय मूर्ति संख्या ००.ए.१, ३९.२८३१, ००.ए.५ आदि।
८. नीलकंठ पुरुषोत्तम जोशी,
मथुरा की मूर्तिकला, पृ. ९, २१।
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