ब्रज-वैभव

मथुरा मूर्ति कला

मथुरा कला से सम्बन्धित अन्य ज्ञातव्य विषय


पिछले अध्यायों में मथुरा की कला-विशेषतया पुरातत्त्व संग्रहालय मथुरा में प्रदर्शित पाषाण मूर्तियों की कला-का परिचय पूरा हुआ। यह तो स्पष्ट ही है यह परिचय अतिशय संक्षिप्त है और इसलिए इसमें माथुरी कला और इससे सम्बन्धित अनेक बातों का केवल संकेत ही किया गया है। तथापि साधारण पाठक के लिए कुछ बातें ऐसी बच जाती हैं जिनकी किंचित विस्तार से चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है।

मथुरा कला का माध्यम

उत्तर गुप्तकाल के प्रारम्भ तक मथुरा के कलाकारों ने जो मूर्तियाँ बनाई या भवन निर्माण किए उनके लिए उन्होंने एक विशेष प्रकार का लाल चित्तेदार पत्थर काम में लाया। यह पत्थर मथुरा में अब भी विपुलता से व्यवहृत होता है। इसकी प्राप्ति रुपवास, टंकपुर और फतेहपुर सीकरी की खानों में होती है। मूर्ति गढ़ने की दृष्टि से यह पत्थर पर्याप्त मृदु होता है, पर इस पर लोनों का असर अधिक होता है। इसी का फल यह है कि कितनी ही मूर्तियाँ काल के प्रभाव से अब गली जा रही हैं। संभव है कि इसके दुर्गुण को देखकर ही मध्यकाल के प्रारम्भ से कलाकारों ने मूर्तियों के लिए उसका प्रयोग करना छोड़ दिया हो।



मथुरा कला का विस्तार

कुषाण और गुप्त काल में कला-केन्द्र के रुप में मथुरा की प्रसिद्धि बहुत बढ़ गई थी। यहाँ की मूर्तियों की मांग देश भर में तो थी ही पर भारत के बाहर भी यहाँ की मूर्तियाँ भेजी जाती थीं। मथुरा कला का प्रभाव दक्षिण पूर्वी एशिया तथा चीन के शाँत्सी स्थान तक देखा जाता है।१ अब तक जिन विभिन्न स्थानों से मथुरा की मूर्तियाँ पाई जा चुकी हैं, उनकी सूची निम्नांकित है :

यह तालिका निम्नांकित आधारों पर बनाई गई है-

१-तक्षशिला ...... तक्षशिला, पश्चिमी पाकिस्तान

२-सारनाथ ...... वाराणसी के पास, उत्तर प्रदेश

३-श्रावस्ती ...... सहेतमहेत, जिला गोंडा--बहराइच

४-भरतपुर ...... भरतपुर, राजस्थान

५-बुद्ध गया ...... गया, बिहार

६-राजगृह ...... रजागीर, बिहार

७-साँची या श्री पर्वत ...... सांची, मध्य प्रदेश


८-बाजिदपुर ...... कानपुर से ६ मील दक्षिण, उत्तर प्रदेश

९-कुशीनगर ...... कसिया, उत्तर प्रदेश

१०-अमरावती ...... अमरावती, जिला गुन्तुर, मद्रास राज्य

११-टण्डवा ...... सहेत-महेत के पास, उत्तर प्रदेश

१२-पाटलीपुत्र ...... पटना, बिहार

१३-लहरपुर ...... जिला सीतापुर, उत्तर प्रदेश

१४-आगरा ...... आगरा, उत्तर प्रदेश

१५-एटा ...... एटा, उत्तर प्रदेश

१६-मूसानगर ...... कानपुर से ३० मील दक्षिण-पश्चिम, उत्तर प्रदेश

१७-पलवल ...... जिला गुड़गाँव, पंजाब

१८-तूसारन विहार ...... प्रतापगढ़ से तीस मील दक्षिण-पश्चिम, उत्तर प्रदेश

१९-ओसियां ...... जोधपुर से ३२ मील उत्तर-पश्चिम, राजस्थान

२०-भीटा ...... देवरिया के पास, जिला इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश

२१-कौशाम्बी ...... इलाहाबाद के पास, उत्तर प्रदेश


मथुरा में कला के प्राचीन स्थान

यद्यपि मथुरा कला की कृतियाँ आज भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं, तथापि यह ध्यान देने योग्य बात है जिन स्थानों पर ये मूर्तियां विद्यमान थीं या पूजित होती थीं उन विशाल भवनों, स्तूपों और विहारों का अब कोई भी चिह्म विद्यमान नहीं है। केवल कहीं-कहीं पर टीले बने पड़े हैं। इसलिये इन स्थानों के प्राचीन नाम आदि जानने के लिए हमें उन शिलालेखों का सहारा लेना पड़ता है जो मथुरा के विभिन्न भाग से मिले हैं। साधारणतया यह अनुमान किया गया है कि जिस स्तूप या विहार का नाम जिस लेख या लेखांकित मूर्ति से मिला है, संभवत: उस विहार के टूटने पर वह मूर्ति वहीं पड़ी रही होगी। अतएव हम मूर्ति के प्राप्ति-स्थान को ही उसमें उल्लेखित स्तूप या विहार की भूमि कह सकते हैं। यदि यह अनुमान सत्य है तो प्राचीन मथुरा के उन सांस्कृतिक केन्द्रों के स्थान कुछ निम्नांकित रुप से समझे जा सकते हैं२ :

(क) मथुरा तथा लअनऊ संग्रहालयों की पंजिकाएँ।
(ख) कुमारस्वामी, क्तक्ष्क्ष्ॠ., पृ. ६०, पा. टि. १।
(ग) वही, पृ. ६६, पा. टि. २, ३।
(घ) फेब्री, सी. एल., ग्ठ्ठेद्यण्द्वेद्ध दृ द्यण्e क्रंदृड्डीs, मार्ग, मार्च १९५४, पृ. १३।
(ङ्) संपादकीय, मार्ग, खण्ड १५, संख्या २, मार्च १९६२।
(च) प्रायग संग्रहालय के अध्यक्ष डॉ. सतीशचन्द्र काला की सूचनाएँ।


जैन स्थान

१. देवनिर्मित बौद्ध स्तूप ... ... कंकाली टीला

बौद्ध स्थान

१. यशाविहार ... ... कटरा केशवदेव

२. एक स्तूप ... ... कटरा केशवदेव

३. एक स्तूप ... ... जमालपुर टीला

४. हुविष्क विहार ... ... जमालपुर टीला

५. रौशिक विहार ... ... प्राचीन आलीक, संभवत: वर्तमान अड़िग

६. आपानक विहार ... ... भरतपुर दरवाजा

७. खण्ड विहार ... ... महोली टीला

८. प्रावारक विहार ... ... मधुवन, महोली

९. क्रोष्टुकीय विहार ... ... कंसखार के पास

१०. चूतक विहार ... ... माता की गली

११. सुवर्णकार विहार ... ... जमुना बाग, सदर बाजार

१२. श्री विहार ... ... गऊघाट

१३. अमोहस्सी (अमोघदासी) का विहार ... कटरा केशवदेव 

१४. मधुरावणक विहार ... ... चौबारा टीला 

१५. श्रीकुण्ड विहार ... ... हुविष्क विहार के पास 

१६. धर्महस्तिक का विहार ... ... नौगवां, मथुरा से ४१/२ मील द.प.

१७. महासांधिकों का विहार ... ... पालिखेड़ा, गोवर्धन के पास

१८. पुष्यद (त्ता) का विहार ... ... सोंख

१९. लद्यस्क्कविहार ... ... मण्डी रामदास

२०. धर्मक की पत्नी की चैत्य-कुटी ... ... मथुरा जङ्कशन

२१. उत्तर हारुष का विहार ... ... अन्योर

२२. गुहा विहार ... ... सप्तर्षि टीला


ब्राह्मण सम्प्रदाय

१. दधिकर्ण नाग का मन्दिर ... ... जमालपुर टीला

२. वासुदेव का चतु:शाल ... ... कटरा केशवदेव

३. गुप्तकालीन विष्णु मन्दिर ... ... कटरा केशवदेव

४. कपिलेश्वर व उपमितेश्वर के मन्दिर ... ... रंगेश्वर महादेव के पास

५. यज्ञभूमि ... ... ईसापुर, यमुना के पार कृष्ण गंगा घाट के सामने

६. पंचवीर वृष्णियों का मन्दिर ... ... मोरा गाँव

७. सेनाहस्ति व भोण्डिक की पुष्करिणी ... ... छड़गाँव, मथुरा से दक्षिण


अन्य

कुषाण राजाओं के देवकुल ... ... माँट तथा गोकर्णेश्वर


मथुरा कला की प्राचीन मूर्तियों का पुन: उपयोग

मथुरा की कई प्राचीन मूर्तियाँ ऐसी भी है जिनका एक से अधिक बार उपयोग किया गया है। ऐसे कुछ नमूने इस संग्रहालय में, कुछ कलकत्ते के और कुछ लखनऊ के राज्य संग्रहालय में है। मूर्तियों का इस प्रकार का उपयोग तीन रुपों में किया गया है। एक तो टूटी हुई मूर्ति को पत्थरों के रुप में पुन: काम में लिया गया है। कुछ टूटी हुई तीर्थकर प्रतिमाओं तथा जैन कथाओं से अंकित शिलपट्टों पर लेख लिखे गये हैं और कुछ को काट-छांट कर उन्हें वेदिका स्तंभ या सूचिकाओं में परिवर्तित कर दिया गया है।३ हो सकता है कि यह कार्य जैन और बौद्धों के परस्पर संघर्ष के फलस्परुप किया गया हो। ऐसे संघर्ष के प्रणाम जैन साहित्य में विद्यमान हैं।४

दूसरे रुप का उपयोग इससे सर्वथा भिन्न है। इसमें निहित भावना द्वेष मूलक नहीं है, पर बहुधा पहले से बनी बनाई मूर्ति के सौन्दर्य पर रीझकर उसे अपने सम्प्रदाय के अनुकूल बना लेने की है। इसका सबसे सुन्दर उदाहरण मथुरा संग्रहालय की एक बोधसत्त्व की मूर्ति (सं. सं. १७.१३४८, चित्र १००) है जिसे वैष्णवों ने त्रिपुँड्र आदि लगाकर अपने अनुकूल बना लिया है।

मूर्तियों के पुनरुपयोग के तीसरे रुप में घिसी या टूटी हुई मूर्ति को अधिक बिगाड़ने की नहीं पर उसको पुन: बनाने की भावना काम करती थी। इसका सबसे अच्छा उदाहरण एक शालभंजिका की विशाल प्रतिमा (सं. सं. ४०.२८८७) है जिसके पैर पुन: गढ़ गये हैं, भले ही यह गढ़ान अपने मूल सौन्दर्य के स्तर नहीं पा सकी है।



माथुरी कला पर प्रकाश डालने वाला प्राचीन साहित्य

मथुरा के इस विशाल कलाभण्डार को समझने के लिए प्राचीन साहित्य की ओर दृष्टिक्षेप करना अत्यन्त आवश्यक है। सबसे अधिक उपयोगी समकालीन साहित्य है, इसके बाद पूर्ववर्ती और परवर्ती साहित्य आता है। माथुरीकला में प्रयुक्त विभिन्न अभिप्रायों की कुंजियाँ इसी साहित्य में छिपी पड़ी हैं। इस कला में प्रदर्शित अभिप्रायों को समझने के लिए तथा इसमें प्रदर्शित वस्तुओं के मूल नाम जानने के लिए हमें साहित्य के पन्ने ही उलटने पड़ते हैं। मथुरा में जैन, बौद्ध व ब्राह्मण तीनों धर्म पनपे, अतएव इन तीनों धर्मों के प्राचीन धर्मग्रन्थ, कलाग्रन्थ, आख्यान और उपाख्यान हमारी बड़ी सहायता करते हैं। इनमें बी निम्नांकित ग्रन्थ इस दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं-१. ललितविस्तर, २. रायपसेंणिय सुत्त, ३. अंगविज्जा, ४. विनयपिटक-महावग्ग और चुल्लवग्ग, ५. अश्वघोष का बुद्ध चरित्र, ६. अश्वघोष का सौदरानन्द, ७. अग्नि, लिंग, मत्स्य, वायु, कूर्म, वाराह, वामन आदि पुराणों के कुछ अंश, ८. महावस्तु, ९. पंचतन्त्र, १०. दिव्यावदान, १२. जातक कथाएं।



समापन

मथुरा कला का यह सामान्य परिचय है। भारतीय कला के इस महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में अब तक कई समस्याएं नवीन प्रकाश की अपेक्षा रखती हैं। मथुरा के क्षेत्र में शास्रीय ढंग का उत्खनन, समूचे कलासंग्रह का विस्तृत अध्ययन और प्रकाशन आदि कार्य कदाचित् इन समस्याओं को सुलझाने में सहायक हो सकेंगे।

 

 

 

१. मार्ग, खण्ड १५, सं. २, मार्च १९६२, पृ. ३ संपादकीय।

 

२. प्रस्तुत तालिक निम्नांकित आधारों पर बनाई गई हैं :


(क) वासुदेवशरण अग्रवाल,
Catalogue of the Mathura Museum, FUPHS.
(ख) जेनेर्ट, के. एल.
Heinrich Luders, Mathura Inscriptions, गाटिंजन, जर्मनी, १९६१।
(ग) अन्य सम्बन्धित लेख व पंजिकाएं।

श्री कृष्णदत्त बाजपेयी ने दो और विहार, मनिहिर और ककाटिका विहार भी गिनाये हैं, पर उनके स्थान नहीं दिये हैं,-वृज का इतिहास, भाग २, पृ. ६६।

३. लखनऊ संग्रहालय, मूर्ति संख्या जे ३५४ से जे ३५८ तक।

४. नीलकंठ पुरुषोत्तम जोशी, जैनस्तूप और पुरातत्त्व, श्रीमहावीर स्मृति ग्रंथ, खण्ड १, १९४८-४९ , पृ. १८८८।

 

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