ब्रज-वैभव |
भारतीय संगीत को ब्रज की देन ब्रजी संगीत का व्यापक प्रभाव |
इस प्रकार संगीत के रथ पर चढ़कर ब्रजी गुजरात से बंगाज, पंजाब से महाराष्ट्र और काठियावाड़ से कच्छ तक प्रचलित हुई। समग्र राष्ट्र ब्रजी के मधुमय स्वरों की ओर एक चित्त से आकृष्ट था। इन भक्त- कवियों की ब्रजी- रस पगी वाणी देश के कोने- कोने में गूँजने लगी, जिसकी सबसे बड़ी विशेषता उसके संगीत में निहित थी। ब्रजी के भक्तिगीतों के साथ जितना रगमगा बना उतना संभवतः संगीत अन्य किसी भाषा के साथ नहीं। यही कारण है कि यदि ब्रजी की भक्ति काव्यधारा को संगीत की दृष्टि से ओझल कर नहीं समझा जा सकता, तो उत्तर भारत के शास्रीय संगीत पर जो कुछ भी "नदीदी कौ धन' है, वह ब्रजी की ही धरोहर है। इसका एक कारण यह भी है कि भक्तिकाल के सभी कवि प्रायः संगीतज्ञ थे तथा सभी गायक कवि। अतएव भक्तिकाव्य में संगीत के प्रभूत तत्व उपलब्ध होते हैं।
गानकला- गंधर्व स्वामी हरिदासजी तो ध्रुवपद गायकी के लिए ही नमस्कृत हुए -- "सूरज कौ पद औ ध्रुपद हरिदास कौ'। इसी प्रकार सभी भक्तकवियों ने "धमार गीत' भी लिखे, जिनमें प्रयुक्त लय- योजना होली के उल्लास को मुखर करती है। गोविंद स्वामी के धमारों की विशेष रुप से जन- मन मान्यता थी।
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