ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

भारतीय संगीत को ब्रज की देन

ब्रज-संगीत के वाद्ययंत्र


इस प्रकार ब्रजी के कृष्णभक्ति काव्य में संगीत संबंधी सामग्रियों का उल्लेख हुआ है, जिसके मंथन से तत्कालीन संगीत के अनेक भूले- बिसरे तथ्यों के साथ संगीत- इतिहास की रहस्यमयी गुत्थियाँ सुलझती हैं। संगीत के सप्तस्वर, नाद, ग्राम २१ मूर्छना, ४९ तान, राग- रागिनियों के उल्लेख के साथ तत्कालीन वाद्ययंत्रों का भी उल्लेख है, जिसके आधार पर स्व. चुन्नीलाल "शेष' ने "अष्टछाप के वाद्ययंत्र' पुस्तक अ. भा. ब्रज साहित्य मंडल से प्रकाशित कराई। इतना ही नहीं, संगीत के तीसरे अंग नृत्य पर भी कृष्णभक्ति गीतों के अध्ययन से अच्छा प्रकाश पड़ता है। शास्रीय नृत्य की मुद्राओं और गति का चित्रण कुंभनदास की इन पंक्तियों में देखिए --

चल नितंब किंकिनि कटि लोल बंक ग्रीवा।
राग तान मान सहित बैनु नाद सीवां।।

किसी- किसी पद में तो मृदंग- पखावज की ध्वनि, घुँघरुओं की झनकार के साथ शास्रीय राग- रागिनियों में बंधी तानों में कत्थक तानों में कत्थक नृत्य के बोल और मुद्राओं के थिरकते रुप दृष्टिगत होते हैं --

गिड़ि गिड़ि तत थुंग थुंग तत्तत्थेई
गावत मिलि राग रास रस तान लीने।
......... ......... ..........
धिधिकिट सुधि किट मृदु मृदंग बाजै
बृखभान कुंवर गान तान सुर बंधान मान
गोविंद गिरिधर प्रसंसि अद्भुत छबि छाजै।

-- गोविंदस्वामी

इस प्रकार कृष्णभक्त कवियों की कोमलकांत पदावली में तत्व- चिंतन, भक्तिभाव और रसमयी कल्पना के साथ संगीत की दिव्य नभ- गंगा के पथ से पृथ्वी पर स्वर्ग की अवतारणा हुई, वह स्वर्ग आज भी उतना ही सुखद और आकर्षक है, जितना उनके युग में था। इसी का बिंब आज हम वल्लभ कुल के मंदिनों की कीर्तन प्रणाली, जिसे संगीत मर्मज्ञों ने "हवेली संगीत' की संज्ञा दी है, में तथा हरिदासी संप्रदाय की विरक्त परंपरा में तटीय स्थान की सात्विकी गायन शैली में पाते हैं। वल्लभीय मंदिरों में जहाँ- तहाँ दिलरुबा, हार- मोनियम, तानपूरा, इसराज, मृदंग, बांसुरी, पखावज और झांझों के साथ जो दिव्य वाणी साकार होती है, बहीहरिदासी तटीस्थान गायन में "अरी ए हो नवल नव नागरि हे' के संपुट के साथ ध्रुपद गायन में। संगीत- विद्वानों का अभी इस ओर विशेष ध्यान नहीं गया है।

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ईरानी पद्धति

दूसरी ओर लघुत्रयी की वह अधूरी कहानी अलाउद्दीन खिलजी ( सं. १२९४ ) के दरबार में आकर पलने लगी क्योंकि भारतवर्ष राजनीतिक दृष्टि से उस समय विश्रृंखल था। यादव वंश के समाप्त होने पर यवनों का प्रभाव बढ़ रहा था तथा वे इस देश को ही अपना घर समझ कर बसने लगे थे। मुसलमान शासक भी भारतीय साहित्य ओर संगीत का यह उन्नत स्तर देखकर रीझे और उन्हें अपने दरबारों की शोभा बनाने को उतावले हुए। मुस्लिम दरबार में आकर भारतीय संगीत पर फारसी प्रभाव प्रचुर रुप से पड़ा। इस समय गीत- रचना का माध्यम उपभ्रंश था, जो बादशाहों की समझ में न आता था, अतः भाषा को बोधगम्य बनाने की आवश्यकता हुई। यह कार्य अलाउद्दीन खिलजी के दरबार के कुशल, गायक और कवि अमीर खुसरो ने किया। जहाँ खुसरो ने भारतीय संगीत में ईरानी परंपरा का मिश्रण कर राग में विवादी स्वर की भांति एक नया ही रंग पैदा किया, वहीं प्रचलित भाषा को गीतों में लाकर उन्हें नया रुप दिया --

अरी आवौ बधावौ गावौ सोहिलरा, खुसरो लोग बुलावौ
मोरा जोवना नवेलरा भयौ है गुलाल
कैर्तृ गर दीनी बकस मोरी माल
सूनी सेज डरावन लागै बिरहा अगन मोहि डस डस जाय।

अतः ब्रजी की यह कोमल प्रकृति नव रुप से रहे संगीत की भाषा के रुप में खूब फबी। उर्दू- फारसी के माधुर्य के कायल भी एक ग्राम्य छोकरी के मुख से "माय री मोय मग सांकरि मांहि पग कांकरी गड़तु है' को सुन कर ब्रजी की नाजुक नजाकत को देख दांतों तले उंगली दबा गए। खुसरो भारतीय संगीत से बहुत प्रभावित थे, भारतीय संगीत की परंपरा उन्होंने महान संगीतज्ञ ध्रुवपद के प्रथम विधायक गोपाल नायक ( देवगिरि के राजा रामदेव यादव, १२९४ ई., के दरबारी गायक ) से ग्रहण की जिनकी वे बहुत प्रतिष्ठा करते थे। गोपाल नायक के ध्रुवपदों की भाषा ब्रजी ही थी

कहाबै गुनीजन जो साधै नाद सबद जाल कर ठोस गावै।
मारगी देसी कर मूच्र्छना गुन उपजाबै।
उक्त जुक्त मुक्त भुक्त ह्मवै करि इनमें ध्यान लगाबै
तब "गुपालनायक' कहै अष्टसिद्धि नवौनिधि जगति मेह पावै।

इस प्रकार संगीत में ब्रजी की कोमल प्रकृति अमीर खुसरो और गोपाल नायक द्वारा और आगे सन १४५८ के लगभग जौनपुर के बादशाह सुलतान हुसेन शर्की के दरबार में कलावंती और ख्याल रुप में मुस्लिम रंग लाती सन १४८५ में ग्वालियर राजा मानसिंह द्वारा पुनः संशोधित होकर अकबरी दरबार में विकसित हुई। "आइने अकबरी' के अनुसार अकबर के दरबार में छत्तीस निपुण संगीतज्ञ थे, जिनमें मुख्य थे तानसेन, बैजू, रामदास, तानतरंग खां। इनमें तानसेन आदि कई गायक अच्छे कवि थी थे, अतः उनके संबंध से संगीत का पासपोर्ट लेकर ब्रजी जो राजदरबार में घुसी सो अपने गुणों के कारण राजभाषा बनकर प्रतिष्ठित हुई।

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अकबर के काल में

अकबर स्वयं बड़ा गुणग्राही और गुणी था। उसका ध्यान ब्रजी की ओर गया। वह स्वयं भी ब्रजी में काव्य- रचना करने लगा। जहाँ अकबरी दरबार ने संगीत को विभिन्न वाद्यों के साथ अनेक राग और गायन शैली दी, अकबरी दरबार में ही डागौर, पागौर, ढ़???़हार और खंडहार ध्रुवपद की चार वाणियों के रुप में निखरे, तानसेन के संदिग्ध पद में --

बानी चारोंन के व्यौहार सुन लीजै हो गुनीजन तब पाबौ यै विद्यासार।
राजा गुबर हार फौजदार खंडहार दीवार डागौर बकसी नौहार।
अचलसुर पंचम चलसुर रिसभ मध्यम धैवतनिषाद गंधार।
सप्तक तीन इकईस मूच्र्छना बाइस श्रुति उनचास कोट तान तानसेन आधार।

वहीं ब्रजी तो संगीत के ही कारण उस समय बहु प्रचलित थी को प्रश्रय दिया। इस कारण मुसलमानों की जहाँ भारतीय संगीत के प्रति रुचि बढ़ी वहीं ब्रजी के प्रति प्रगाढ़ आस्था। यही कारण था कि मुस्लिम सहृदय कवियों की लेखनी ब्रजी में कुछ लिखने को मचल उठी।

हिंदू राजाओं ने भी शाही दरबारों के अनुकरण पर अपने यहाँ ब्रजी के कवि और गायकों को स्थान दिया। जो ब्रजी के रीति साहित्य की पृष्ठभूमि बना। इन दरबारों में गायकी के लिए विभिन्न शैलियों के गीत रचना हुई वही संगीत संबंधी शास्र- ग्रंथ लिखे गए, जिनके ऊपर अलग से प्रकाश डालने की आवश्यकता है। तानसेन की रागमाला, संगीतसार के राग- बिबोध, सदारंग, चंद्रोदय, रागमंजरी तथा अंत में संगी तमातर्ंड चौबे गणेशीलालजी के समसंगीत निर्णय तथा आचार्य उत्तमराम शुक्ल के "भारतीय संगीत' तक अनेक ग्रंथ लिखे गए। रागों के लक्षण- गीतों की भी रचना ब्रजी में ही हुई यथा --

चतुर सुजन राग कहत बागेस्वरि सास्र विहित
खरहर प्रिय मिल जमित पंचम अति अल्प कहत
मध्यम सुर वादी कहत संवादी खरज रहत
रात तृतीय प्रहर मन म- ध संगत को हरत

रागानुसार चित्रों की भी कविता हुई, जिनसे रागों के रुपरंग व प्रकृति का आभास होता है।

 

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