ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

ध्रुवपद- धमार का केंद्र -- ब्रज


ब्रज की सांगीतिक परंपरा का उन्मुक्त वर्णन श्रीमद भागवत में विस्तार से दिया गया है। श्री कृष्ण की लीला- स्थली के रुप में महाभारत काल से ही इस क्षेत्र में लोक संगीत और शास्रीय संगीत के वर्णन हमारे ग्रंथों में मिलते हैं। गायन, वादन और नृत्य के इतने सजीव वर्णन भारत के किसी क्षेत्र से संबंधित साहित्य में हमें नहीं प्राप्त होते। रामायणकालीन भारत में भी संगीत का विकास, विस्तार और प्रचार सामान्य जनता से लेकर प्रबुद्ध अभिजात्य वर्ग में था, ऐसा वर्णन वाल्मीकि रामायण में हैं। परंतु महाभारत कालीन साहित्य में संगीत का वर्णन बहुत विशद हुआ है और उसमें ब्रज का विशेष स्थान रहा है। हम इस लेख में उस प्राचीन काल के बारे में विचार न करने आज की प्रचलित संगीत परंपरा और पद्धति में ब्रज का जो योगदान रहा है, उस पर ही विचार कर रहे हैं। 

हमारी प्रचलित संगीत पद्धति का विकास- विस्तार सभी कुछ ध्रुवपद के माध्यम से ही हुआ है। मुस्लिम आक्रांताओं ने उत्तर भारत को पद- दलित करके यहाँ की सभी विद्याओं, कलाओं, परंपराओं, श्रद्धा- केंद्रों को नष्ट- भ्रष्ट कर दिया। इन धमार्ंध बर्बर आक्रांताओं के आक्रामक का विशेष लक्ष्य उत्तर भारत ही रहा। मंदिरों को गिराना, रंगशालाओं को भूमिसात करना इनके धर्म का विशेष अंग रहा। गाना- बजाया कुफ्र था। जिस प्रकार तिलक- जनेऊ प्राणलेवा थे, उसी प्रकार मृदंग और तानपूरा मारकेश बन गए थे। महमूद गजनबी के आक्रमण काल से गायन- वादन का सार्वजतिक प्रदर्शन बंद हो गया। विद्वानों ने संगीत का मनन- चिंतन भी छोड़ दिया। "संगीत- रत्नाकर' के बाद कोई भी प्रामाणिक मौलिक ग्रंथ नहीं लिखा गया। रत्नाकर भी उत्तर भारत में नहीं लिखा गया। भारतीय संगीत भी दो धाराओं में बँट गया -- दक्षिण और उत्तर।

 

वर्ण संकर पद्धति

लगभग २०० वर्ष के अंधे युग के बाद मुस्लिम सुल्तानों में जब सांगीतिक प्रवृत्तियाँ कुछ जगीं तब उन्होंने हमारी ग्राम- मूच्छना पद्धति को नष्ट करके ईरानी संगीत पद्धति को हमारे संगीत पर तलवार के जोर से लाद दिया। इस प्रकार एक नई वर्ण संकर बारह मुकामों वाली पद्धति देश में उपजी। इस कुकृत्य में संत कहलाने वाले मुस्लिम सूफी और शेखों ने भी पूरा हाथ बँटाकर पुण्यार्जन किया। संस्कृत भाषा अज्ञेय हो गई। हमारी सांस्कृतिक समृद्धि को नष्ट करने का योजक, चतुर कूटनीतिज्ञ, भारतीय संगीत का रसिक श्रोता, ईरानी संगीत का ज्ञाता, जिसका नाम संगीत क्षे में बहुधा लिया जाता है और जिसको विभिन्न रागों, तालों तथा वाद्यों का मि आविष्कारक कहा जाता है, अमीर खुसरो था। 

अमीर खुसरों के काल में ही गोपाल नायक को दक्षिण से बंदी बनाकर खिलजी के दरबार में लाया गया। गोपाल नायक से अलाउद्दी की प्रशस्ति में गवाया गया। उसने संस्कृत भाषा में प्रशस्ति गाई जो सुल्तान को समझ नहीं आई। अतः हिंदी भाषा में गाने का आदेश हुआ। बंदी नायक ने आज्ञा पूर्ति की, परंतु इस प्रकार तलवार के जोर से जो पद गवाया गया, उसकी भाषा साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत निम्न स्तर की थी। उसमें तुकबंदी तो थी, परंतु रस नहीं था। विरुद तो था, परंतु रस, दीप्ति, ओज आदि कवित्व के अंग नहीं थे। इतना सब होते हुए भी इस बंदिश का ऐतिहासिक महत्व अवश्य है। 

मेरी दृष्टि में संभवतः यह पहला ध्रुवपद है। यह बात अलग है कि इसकी भाषा चंदरवरदाई के रासो की भाषा के समीप है और इसका गायन मूच्र्छना पद्धति के अनुसार ही हुआ होगा, क्योंकि गोपाल नायक संभवतः ग्राम मूच्र्छना पद्धति के अंतिम अधिकारी गायक थे। उनका परिचय अभी तक ईरानी पद्धति से नहीं हुआ था। एक बात और ध्यान देने योग्य है, उन्होंने उस दिन और उसके बाद जो भी रचनाएँ गाई, उनकी भाषा उत्तर भारतीय थी। इससे यह परिलक्षित होता है कि ये संभवतः मूलतः उत्तर भारतीय थे। आक्रांताओं के भय से गोपाल नायक और उनके पूर्वज दक्षिण भारत को पलायन कर गए थे। बाद के काल में गोपाल नायक वृंदावन में कुछ काल तक आकर रहे थे।

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देवाराधन से सुल्तानाराधन

प्रबंध गायन अब समाप्त हो चुका था। संस्कृत भाषा अपने स्थान से भ्रष्ट हो चुकी थी। अष्टपदी और स्रोतों का गान बंद हो गया। मंदिर ओर रंगशाला सांगीतिक केंद्र नहीं रहे। लोक- भाषा में गेय पदों की रचना हुई। सुल्तानों के दरबार सांगीतिक गतिविधि के केंद्र बन गए। देवाराधन का स्थान सुल्तानाराधन ने ले लिया।

प्रबंधगान के ह्रास के साथ, जिसमें मुस्लिम आक्रमणकारियों का विशेष योगदान था, देश में गायन की एक और शैली धीरे- धीरे उभर रही थी जिसमें संस्कृत का स्थान भाषा ले रही थी। मानव का आदिकाल से सांगीतिक स्वभाव है और भारतीय के तो जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत के सारे संस्कार बिना संगीत हाँ, उसने अब धीरे- धीरे विवश होकर ईरानी पद्धति अपना ली थी। तलवार के जोर से उसको शास्रीय रुप देने का प्रयत्न प्रारंभ कराया गया श्री गोपाल नायक के द्वारा। खिलजी दरबार में संगीत ने भारतीय परिधान उतारकर ईरानी पोशाक पहन ली। ध्रुवपद विकसित होने लगा।

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ब्रजभाषा का चलन

संस्कृत अब लोक- भाषा नहीं थी। संगीत के लिए अब एक ऐसी भाषा की आवश्यकता थी, जिसमें जन- जन का हृदय छूने की शक्ति हो, माधुर्य हो और जो रसाभिव्यक्ति का माध्यम बन सके। कविता और उसमें भी गेय पद- रचना के लिए ऐसे शब्दों का बाहुल्य हो, जिसमें टकार, त्रकार आदि का प्रयोग न्यूनतम हो। गेय कविता के लिए प्रीतम अथवा प्रियतम प्रयोज्य नहीं हो सकते। पिया, पीयु, पियरवा का रस प्रियतम में नहीं है। मित्र, मितवा की आत्मीयता प्रदर्शित नहीं कर सकता। सभी हिंदू वाग्गेयकारों ने यह अनुभव किया। उसके बाद उनके पुत्र और शिष्य परंपरा के मुस्लिम धर्म स्वीकार करने वाले मुस्लिम कलाकारों ने भी गेय पद- रचना के लिए हमारी रसमयी माधुर्य से ओत- प्रोत मृदुल शब्दों से भरपूर ब्रजभाषा को नमन किया, भगवती राधिका की जय बोलकर उनकी क्रीड़ास्थली की भाषा को ही अपनी सांगीतिक संपदा सौंप दी। गेय पद- रचना के लिए ब्रजभाषा का ही प्रयोग किया गया, यह सभी कुछ दिल्ली में प्रारंभ हुआ। और सुदूर मांडू, गुजरात और दक्षिण में फैल गया। यह पंरपरा आज तक चली आती है।

स्वर्गीय भातखंडेजी ने तो इस भाषा की रसवत्ता देखकर महाराष्ट्र के संगीतज्ञों और वाग्गेयकारों को विधि- निषेध दिया है कि वे ख्यालों की रचनाएँ ब्रजभाषा में ही करें, मराठी में नहीं। ब्रज की संगीत को इससे श्रेष्ठ और कौन- सी देन हो सकती है ?

 

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