इस युग में उद्भूत गायन
शैली को हमारे विद्वानों ने ध्रुवपद का नाम दिया। ध्रुवपद का निर्माण गोपाल नायक ने तथा परवर्ती आचार्य
बैजनाथ ने गान के आधारभूत अंग धातु और
मातु के ही सहारे से किया। प्रबंध की चार धातुएँ पूर्वाचार्यों ने निश्चित की थीं -- उदग्राह,
मेलापक, ध्रुव और आभोग। ध्रुवपद में
भी न्यूनाधिक रुप से लगभग उन्हीं को
रखा गया। उनके नामों में अंतर आ गया। ध्रुवपद का नामाकरण
भी ध्रुव के आधार पर हुआ होगा। गायन
शैली के अंग भी प्रबंध की तरह से
स्वर, विरुद, पद, तेन, पाट और ताल पर
रखे गए।
प्रारंभ में प्रत्येक कला- शैली अपने मूल और असंस्कृत
रुप में रहती है। फिर धीरे- धीरे
संस्कारित और परिमार्जित होती है। ध्रुवपद के
साथ में भी ऐसा ही हुआ। अलाउद्दीन खिलजी के दरबार
में गाए गए एक पद के रुप में ध्रुवपद गान-
शैली का जन्म हुआ। जन्म के समय संभवतः वह पद बहुत
रुखा था, पंरतु गायक था गोपाल नायक।
सोलह सौ शिष्यों के सिर पर सांगीतिक
सामग्री और संपदा लाद कर चलने वाले नायक गोपाल ने ध्रुवपद का आधार
भारतीय रखा।
संगीत पद्धति शासकों के आदेश
से ईरानी रही। समय और परिस्थिति की आवश्यकतानुसार ध्रुवपद गायन प्रस्फुटित हुआ,
सजा- संवरा। इसको सजाया महान कलाकारों व
वाग्गेयकारों ने गांधर्व, गान, प्रबंध की परंपा के आधार पर।
इस गायन के चार खंड रचे गए -- स्थायी, अंतरा,
संचारी और आभोग। ध्रुवपद की पद-
रचना के लिए एक नया छंद उन्होंने निर्माण किया
""घनाक्षरी'। इस छंद के लालित्य, हृस्व
अक्षरों को भी दीर्घाक्षरों के समान उच्चारण करने की छूट और ब्रजभाषा ने ध्रुवपद की गेय
रचनाओं की जमीन बन गया ओर भवन निर्माण किया ब्रजभाषा ने। कई छंदशास्री तथा कवियों ने इस छंद का जन्मदाता कविवर
सूरदासजी को माना है। हमारा उनसे निवेदन है कि
बैजू, बख्शू का काल ऐतिहासिक साक्ष्य
से सूरदाजी से काफी पहले का सिद्ध होता है। नायक
बैजू ओर नायक बख्शू का काल ऐतिहासिक
साक्ष्य से सूरदासजी के काल से पहले घनाक्षरी छंद
में लिखे जा चुके थे। हाँ, गोपाल नायक की
लड़ैती, बैजू और बख्शू की गोद में खेली
बेटी ब्रजभाषा के रुप- माधुर्य पर
युवा होते- होते बड़े- बड़े भक्तिकालीन
संत मुग्ध हो गए ओर कर दिया सब कुछ इसी पर निछावर--
""मेरी सीख मानकर,
मान न करो तुम ऐते,
बैजू प्रभु प्यारे सों, वहियां गहाऊँ हूँ''।
ऐसी बैजू की घनाक्षरी को कविगण
ले गए साहित्य में और घनाक्षरी कवियों की
लाडली हो गई। संगीत ने आज साहित्य पर विजय प्राप्त की। ब्रजभाषा के ध्रुवपद की यह विजय
यात्रा थी।
ध्रुवपद की परिभाषा, लक्षण आदि के विषय में हमें पंडित
भावभ के "अनूप- विलास' के अतिरिक्त कहीं कुछ प्रामाणिकता
से लिखा हुआ नहीं मिलता। निम्न श्लोकों
में ध्रुवपद की सुंदर व्याख्या की गई है --
""गीर्वाणी मध्येदेशीच भाषा साहित्यराजितम्।
द्विचतुर्वाक्य समपंन नरनारी कथा श्रयम्।।
श्रृंगार रसभावादयम् रागालाप पदात्कम्।
पादान्तानुप्रासयुक्तम् पादांतयुगकंचवा।।
प्रतिपादं यत्रबद्धम् एवं पाद चतुष्टयम्।
उदग्राह ध्रुवकाभोगतंर ध्रुवपदम्स्मृतम्।।
यह व्याख्या हमें ध्रुवपद की पद-
रचना, गायन शैली सभी का स्पष्ट रुप प्रकट कर देती है। ध्रुवपद की चार
वाणियाँ प्रसिद्ध हैं। विद्वान उनको प्राचीन गीति प्रकारों
से संबंधित करते हैं।
ध्रुवपद गायन शेली का स्वरुप "संगीत-
रत्नाकर' की आलाप्ति के आधार पर ही आचार्यों ने निर्धारित किया --
(१.) पहले रागालाप्ति, नोम- तोम आदि स्तोभाक्षरों द्वारा
विलंबित लय में मींड़ और कणों के प्रयोग
से सजाकर आलाप किया जाता था। गमक के प्रकारों का इसमें प्रयोग होता था। आलाप प्रारंभ
में लय रहित फिर लयबद्ध होता था। धीरे- धीरे आलाप की गति
बढ़ाई जाती थी। ध्रुवपद के चारों खंडों के
अनुसार स्वर विस्तार होता था। कई श्रेष्ठ गायक
वीणा के जोड़ालाप के समान इस गायन
में भी आलाप करते थे।
(२.) दूसरा खंड था प्रबंध या गीत, गेय- पद के चारों
वणाç -- स्थायी, अंतरा, संचारी और आभोग का गान होता था। प्रबंध गायन के
समान ही स्वरों की शुद्धता पर विशेष ध्यान ध्रुवपद गायक देते थे।
(३.) गायन शैली का तीसरा अंग था लय-
बाँट, जिसमें विविध प्रकार की लयों का प्रयोग गायक करता था।
लय के सरल तथा क्लिष्ट रुपों से गायक अपना ज्ञान प्रदर्शित करते थे।
(४.) चौथा और अंतिम चरण था बोल- बाँट।
संगीत- रत्नाकर की स्थायीभंजी और
रुपकभंजनी का ही रुप इसमें दिखाई देता था।
बायक पद के कुछ अंशों को लेकर उनके
स्वर सन्निवेशों को बदल- बदल कर गाते थे।
रत्नाकर ने शब्दों का मान मूलवत रखने का ही आदेश दिया है, परंतु श्रेष्ठ गायक शब्दों का
मान भी बदल कर विचित्रता उत्पन्न करके
रस की अभिव्यक्ति करते थे। हमनें इस
शैली के विभिन्न तत्वों की ओर इंगित
मात्र ही किया है।
कला का सुसंस्कृत रुप न तो एक दिन में
सजता है और न ही एक व्यक्ति उसको सजा
सकता है। गोपाल नायक को मलिक काफूर (
सन १३०८- १३१२ ई. में किसी दिन ) दिल्ली लाया था। इसी काल
से ब्रजभाषा में ध्रुवपदों की रचना करके
उनकी स्वर रचना ईरानी संगीत पद्धति के आधार पर बारह
स्वरों में विद्वानों ने की, परंतु आधारशिला प्राचीन प्रबंध गान पर ही
रखी गई। शासकों की प्रसन्नता के लिए
रागों और तालों के नाम बदले जा रहे थे।
बाईस श्रुतियों का नाम लेना पाप हो गया था, परंतु श्रेष्ठ गायक-
वादक मींड़, गमक आदि के द्वारा उनका प्रयोग अवश्य करते रहे।
स्वरों के कोमल, कोमलतर तथा कोमलतम
रुपों का प्रयोग बिना विज्ञापित किए हो रहा था।
मुस्लिम शासक प्रसन्न थे कि ईरानी पद्धति की श्रेष्ठता स्थापित हो गई। गायन
शैली का विकास हो रहा है या नहीं, इसकी उन्हें कोई जिज्ञासा नहीं थी।
विवश हिंदू कलाकार बराबर उस शैली को
सजाने में लगे रहे। अमीर खुसरो अपने कोल,
सोज, कव्वाली, गजलों में व्यस्त रहा।
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