ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

ध्रुवपद- धमार का केंद्र -- ब्रज

ध्रुवपद को राज्याश्रय


ध्रुवपद गायन शैली का पूर्ण विकास बिना राजाश्रय के संभव नहीं था। इसके लिए शांत वातावरण, कलाप्रेमी, मर्मज्ञ, जिज्ञासु आश्रयदाता की खोज थी। ग्वालियर नरेश महाराज मानसिंह तोमर के रुप में आदर्श आश्रयदाता इसको मिला। मानसिंह संगीत- शास्र का मर्मज्ञ, चिंतक और लेखक था। उसने ""मान- कौतुहल'' ग्रंथ की रचना की थी। नायक गोपाल यदि ध्रुवपद के जनक थे, तो ध्रुवपद के संरक्षक मानसिं ह तोमर थे। लगभग २०० वर्ष बाद एक हिंदू राजा के राज्यकाल में फिर नायक बैजू और उनके शिष्य बख्शू के द्वारा ध्रुवपद जवान हुई, सजी- संवरी और प्रसिद्ध हुई। इस ध्रुवपद में भारतीय प्रबंध गायकी के सभी तत्वों का उचित रुप से समावेश किया गया था और गेय पद या जन- जन की लाड़ली ब्रजभाषा में छंद इसके लिए रचा गया -- घनाक्षरी। ""सहसरस'' के हजार ध्रुवपद इसी में लिखे गए। नए रागों का निर्माण हुआ, गूजरी, मंगला, मंगला- गूजरी, बहादुरी- तोड़ी, लक्ष्मी- तोड़ी आदि रागों का निर्माण इसी काल में हुआ। यह गायकी जन- जन की भाषा में रची गई थी, अतः अल्पकाल में ही ब्रज से दिल्ली, राजस्थान, मालवा, गुजरात आदि में फैल गई। अगले पचास वर्ष में यह उत्तर भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक तथा दक्षिण में नर्मदा के उत्तर तट तक, ब्रजभाषा की यशस्विनी बेटी ध्रुवपद का सांगीतिक साम्राज्य फैल गया, जिसकी आत्मा भारतीय थी। वर्ण्य- विषय देवस्तुति, आध्यात्म नर- नारी प्रणय निवेदन, सांगीतिक तत्वों का वर्णन और आश्रमदाता की प्रशंसा था। तानसेन द्वारा रचित ३०० ध्रुवपदों में केवल १० बंदिशों में ही इस्लाम की प्रशंसा की गई है, अन्य वर्ण्य- विषय हिंदू- धर्म परक हैं। तानसेन के हिंदू ही रहने का इससे बड़ा साक्ष्य नहीं हो सकता।


गोपाल नायक ?

इस लेख में गोपाल नायक का नाम कई बार आया है, अतः गोपाल नायक, नायक बैजू, हरिदास स्वामी तथा तानसेन के विषय में कुछ संक्षेप में लिखना आवश्यकता है। यह नाम ऐतिहासिक हैं और ध्रुवपद गायन में इनका विशेष योगदान रहा है। इनके अस्तित्व, जीवनकाल, संगीत- ज्ञान आदि पर मतभेद हैं। सांप्रदायिक दृष्टिकोण से लिखने वाले मुस्लिम इतिहासकारों ने तो इनके ज्ञान और चरित्र को धूमिल किया ही है, परंतु खेत है कि वर्तमान काल में ही मुस्लिम- भक्त आचार्यों ने भी कम भ्रमोत्पादन नहीं किया है। इनकी दृष्टि में केवल मुस्लिम ही भारतीय संगीत के कलाकार थे और किसी नगर विशेश से संबंधित मुस्लिम घराना ही स्तुत्य है। वे किसी भी हिंदू ( भूत अथवा वर्तमान ) कलाकार को हेय समझते हैं। वे इन नायकों को भी अयोग्य अथवा किंवदतियों के नायके के रुप में ही प्रस्तुत करते हैं। वे उन शेखों और कथित मुस्लिम संतों को जो मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा सामाजिक षडयंत्र तथा धर्म परिवर्तन कराने के लिए सेना के अग्रिम दस्ते के रुप में भेजे जाते थे, की प्रशंसा करते नही अघाते। गोपाल नायक ऐतिहासिक व्यक्ति के रुप में अलाउदृछीन के दरबार में ई. १३०८ से १३१२ के बीच में प्रकट होते हैं। गोपाल नामक "तौर्यत्रिकसार' नामक ब्रजभाषा में लिखित ग्रंथ के लेखक हैं और बैजू नामक किसी श्रेष्ठ 
विद्वान के शिष्य हैं। बैजू उनके वियोग में बावला हो गया था। मुस्लिम लेखकों और जनता में गोपाल का गुरु बावरा कहलाया। इसके लगभग २०० वर्ष बाद हमें फिर एक बैजू के दर्शन होते हैं। 

निश्चित है कि यह दोनों बैजू एक नहीं हो सकते। पहले बैजू के शिष्य गोपाल हैं, जिन्हें बैजू डांटता है कि ""विधर्मी को विद्या मत देना और गुपला कहकर संबोधन करता है'', दूसरे १८५ वर्ष बाद के बैजू, बख्शू को लोग नाम के कारण मुस्लिम कहते हैं। आज भी रामगुलाम, तेग बहादुर, शिवबख्श, दागाही, जुमराती, गुलशन आदि नाम हिंदुओं मं प्रचलित हैं। मुस्लिम राज्यकाल में तो ऐसा था ही। बख्शू की कविता का विषय उनको हिंदू ही सिद्ध करता है। उनका पुत्र हुसेनी मुस्लिम बादशाहों द्वारा मुस्लिम अवश्य बनाया गया। ऐसा होता रहा है। 

 

 

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