ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

ध्रुवपद- धमार का केंद्र -- ब्रज

धमार का जन्म


ब्रज ने ही दूसरी गायन शैली धमार को भी जन्म दिया। होरी गायन का प्रचलन ब्रज के क्षेत्र में लोक- गीत के रुप में बहुत काल से चला आता है। इस लोकगीत में वर्ण्य- विषय राधा- कृष्ण के होली खेलने का रहता था। रस श्रृंगार था और भाषा थी ब्रज। ग्रामों के उन्मूक्त वातावरण में द्रुत गति के दीपचंदी, धुमाली और कभी अद्धा जैसी ताल में युवक- युवतियों, प्रौढ़ और वृद्धों, सभी के द्वारा यह लोकगीत गाए और नाचे जाते थे। ब्रज के संपूर्ण क्षेत्र में रसिया और होली जन- जन में व्याप्त है। लोक संगीत ही परिष्कृत होकर शास्रीय नियमों में बंध जाता है, तब शास्रीय संगीत कहलाता है। शास्रीय संगीत की जीवनदात्री पयस्विनी लोक संगीत की धारा ही है, जिसने अति प्राचीनकाल से ही भारतीय संगीत को निरंतर प्रभावित किया है, पुष्ट किया है। देशी गान, भाषा गान, धमार गान, ठुमरी आदि इसके उदाहरण हैं। लोक संगीत जन- जन की भावना का प्रतीक है।

हमारे श्रेष्ठ पुर्वांचार्यों ने इसका अनुभव किया है और लोक संगीत को नियमों में बांध कर परिष्कार करके शास्रीय रुप में प्रस्तुत किया है। पंद्रहवीं शताब्दी के अंत और सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ तक कव्वाली, गजल गायन काफी प्रचलित हो गए थ। शास्रीय संगीत के नाम पर ख्याल गायकी, जिसको हम छोटा ख्याल कहते हैं और पचास वर्ष पूर्व के संगीतज्ञ ठुमरी पद्धति का ख्याल कहते थे, प्रचलित हो गया था। 

जौनपुर के शर्की सुलतानों द्वारा ख्याल का प्रचार- प्रसार किया गया। यह गायकी सरल थी व द्रुत गति में गाई जाती थी। जनता का आकर्षित करके मुस्लिम प्रभाव और संस्कार डाल रही थी। संभवतः इन्हीं कारणों से प्रभावित होकर मानसिंह तोमर और नायक बैजू ने धमार गायकी की नींव डाली। उन्होंने होरी नामक लोकगीत ब्रज का लिया और उसको ज्ञान की अग्नि 
में तपाकर ढ़ाल दिया। प्राचीन चरचरी प्रबंध के सांचे में, जो चरचरी ताल में ही गाए जाते थे। होरी गायन का प्रिय ताल आदि चाचर ( चरचरी ) दीपचंदी बन गया।होरी की बंदिश तो पूर्ववत रही, वह विभिन्न रागों में निबद्ध कर दी गई। गायन शैली वही लोक संगीत के आधार पर पहले विलंबित अंत में द्रुत गति में पूर्वाधरित ताल से हट कर कहरवा ताल में होती है और श्रोता को रसाविभूत कर देती है।

नायक बैजू ने धमारों की रचना छोटी की। इसकी गायन शैली का आधार ध्रुवपद जैसा ही रखा गया। वर्ण्य- विषय मात्र फाग से संबंधित और रस श्रृंगार था, वह भी संयोग। वियोग श्रृंगार की धमार बहुत कम प्राप्त हैं। इस शैली का उद्देश्य ही रोमांटिक वातावरण उत्पन्न करना था। ध्रुवपद की तरह आलाप, फिर बंदिश गाई जाती थी। पद गायन के बाद लय- बाँट प्रधान उपज होती थी। विभिन्न प्रकार की लयकारियों से गायक श्रोताओं को चमत्कृत करता था। पखावजी के साथ लड़ंत होती थी। सम की लुकाछिपी की जाती थी। 

श्रेष्ठ कलाकार गेय पदांशों के स्वर सन्निवेशों में भी अंतर करके श्रोताओं को रसमग्न करते थे। इस प्रकार धमार का जन्म हुआ और यह गायन शैली देश भर के संगीतज्ञों में फैल गई। सभी श्रेष्ठ कलाकारों ने इसे गाया। गत एक शताब्दी में धमार के श्रेष्ठ गायक नारायण शास्री, धर्मदास के पुत्र बहराम खाँ, हमारे प्रपितामह पं. लक्ष्मणदास, जिनकी रची धमारें मारकुन्नगमात में लखनदास के नाम से अंकित हैं, गिद्धौर वाले मोहम्मद अली खाँ, आलम खाँ, आगरे के गुलाम अब्बास खाँ और उदयपुर के डागर बंधु आदि हुए हैं। ख्याल गायकों के वर्तमान घरानों में से केवल आगरे के उस्ताद फैयाज खाँ की नोम- तोम से अलाप करते थे और धमार गायन करते थे।

इसी प्रकार समय के साथ- साथ ही मृदंग और वीणा वादन में भी परिवत्रन होता गया। मृदंग और वीणा प्राचीन काल से ही अधिकांशतया गीतानुगत ही बजाई जाती थीं। मुक्त वादन भी होता था। मृदंग और वीणावादकों ने भी ध्रुवपद और धमार गायकी के अनुरुप अपने को ढ़ाला। वीणा में ध्रुवपदानुरुप आलाप, जोड़ालाप, विलंबित लय की गतें, तान, परनें और झाला आदि बजाए गए। धमार के अनुरुप पखावजी से लय- बाँट की लड़ंत शुरु हुई। पखावजी ने भी ध्रुवपद- धमार में प्रयुक्त तालों में भी अभ्यास किया, साथ संयत के लिए विभिन्न तालों और लयों की परनों को रचा।

 

 

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