ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

ब्रज-संस्कृति का अविभाज्य अंग-संगीत


भारतीय कला एवं संस्कृति की चिंतनधारा सदैव से आध्यात्मवादी रही है। आध्यात्मवाद में "आनंदमय' की प्रतिष्ठा होती है और इस आनंदमय से "परमब्रह्म' की प्राप्ति होती है। अतः सर्वप्रथम यदि आनंदमय की उपलब्धि के साधन को खोजा जाए, तो उसका मूल है "संगीत'। संगीत परमानंद की पराकाष्ठा पर पहुँचाकर परमतत्व की अनुभूति एवं साक्षात्कार कराने की अपूर्व क्षमता रखता है। रवींद्रनाथ टैगोर ने भी परमब्रह्म तक पहुँचने के लिए संगीत को ही एकमात्र साधन कहा है -- ""Only as a musician can I come in to thy presence.'' संगीत हमारी चित्तवृत्ति को अंतर्मुखी बनाकर हमें आत्मस्वरुप का नैसर्गिक बोध कराता है और आत्मस्वरुप का यह बोध ही मनुष्य को परमतत्व से जोड़ता है।

 

संगीत की उत्पत्ति

जब परमतत्व अनादि है, तो संगीत भी अनादि है। यों भारतीय संगीत का मूल रुप वेदों में परिलक्षित होता है। वेद भी अनादि अपौरुषेय कहे गए हैं। वैसे भारतीय संगीत की उत्पत्ति एवं विकास की अनेक कथाएँ प्रचलित हैं, किंतु आदिनाम एवं वेद से ही भारतीय संगीत के जन्म का संबंध मानना उचित जान पड़ता है --

आदिनाद अनहद भयो, ताते उपज्यो वेद।
पुनि पायो वा वेद में, सकल सृष्टि को भेद।।

उपर्युक्त पंक्तियों में आदि ( अनहद ) नाद से वेद की उत्पत्ति बताई गई है, अतः इस प्रकार से संगीत की सत्ता वेद से भी पूर्व सिद्ध होती है, क्यों नाद ही संगीत है, संगीत ही नाद है।

इस विराट ब्रह्मांड के पावन दिव्य घोष निनाद से मुखरित मानव का यह आत्मानुभूत सुललित संगीत अमृत का वह स्रोत है, जो प्राण एवं आत्मा को नवचेतना प्रदान करता है। यही संगीत पुरुषार्थ चतुष्टय ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ) का एकमात्र साधन है। एसे संगीत ( गीत ) के माहात्म्य की प्रशंसा करने में किसकी वाणी समर्थ हो सकती है --

तस्य गीतस्य माहात्म्यं के प्रशंसितुमीशते।
धर्मार्थकाममोक्षाणामिदमेवैक साधनम्।।

इसी कारण भारतीय संस्कृति में पुरातन काल से ही संगीत का अपना विशेष महत्व रहा है। इस महान कला के आदि आचार्य भरतमुनि हैं। इनके नाट्यशास्र में संगीत का वास्तविक स्वरुप मुखरित हुआ है। संगीत कला की मीमांसा का आदिशास्र "नाट्यशास्र' ही है। उसके पश्चात तो फिर मतंग, नंदिकेश्वर, शारंगदेव आदि के ग्रंथ भी भारतीय संगीत का विशद विवेचन प्रस्तुत करते हैं। यहाँ तक ध्यातव्य है कि भरतमुनि के नाट्यशास्र की रचना के पूर्व भी संगीत कला अपने पूर्ण विकसित रुप में नारद, स्वाति, तंडु, वासुकि आदि मनीषियों की वाणी में व्याप्त थी। ऐसी गौरवमयी संगीत कला पर ब्रज का क्या प्रभाव पड़ा, यह विषय यहाँ विचारणीय है।

 

संगीतमय ब्रज

भगवान कृष्ण की ब्रजभूमि का कण- कण संगीतमय रहा है। संस्कृति एवं साहित्य के साथ- साथ कला का भी केंद्र अत्यंत पुरातन काल से ब्रज वसुंधरा ही है। नाट्यशास्र एवं संगीत- रत्नाकर जैसे प्रामाणिक ग्रंथों के युग के संगीत का यथार्थ स्वरुप जानने का कोई साधन यदि हमें प्राप्त हो सकता है, तो वह है -- ब्रज का साहित्य एवं संगीत। मुगल युग में अनेक प्राचीन संगीत- ग्रंथ नष्ट हो गए थे। जो ग्रंथ सौभाग्यवश आज उपलब्ध हैं, उन्हें सुदीर्घकाल तक विद्वत्परंपरा ने कंठस्थ कर सुरक्षित रखा तथा सुविधा न अवसर पाकर उन्हें पुनः लिपिबद्ध करलिया गया। किंतु उनमें भी प्राचीन वैदिक संगीत का यथार्थ स्वरुप ज्यों का त्यों स्पष्ट न हो सका। उस संगीत की वास्तविक गरिमा यदि सुरक्षित एवं विकसित हो सकी, तो उसका श्रेय ब्रज को ही है। ब्रज के भक्त, संगीतज्ञ, कवि, संत आदि ने युग- युग में संगीत का सांगोपांग विकास एवं प्रसार किया। इसी कारण भारतीय संगीत पर ब्रज- वसुधा की अमिट छाप परिलक्षित होती है।

यदि यह कहा जाए कि भारतीय संगीत ब्रज- संस्कृति का एक मुख्य एवं अविभाज्य अंग है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। शास्रीय संगीत के पद, ख्याल, ध्रुपद आदि ब्रजभाषा में ही सुने व रचे जाते हैं। यह दूसरी बात है कि मुगलकाल में ख्याल उर्दू की शब्दावली से अछूते न रह सकें हों। किंतु पद एवं ध्रुपद परंपरा अक्षुण्ण रही। यह भी दृष्टव्य एवं आश्चर्यजनक बात है कि अनेक मुसलमान संगीतज्ञों, कवियों ने भी ब्रजभाषा में अनेक बंदिशों एवं कविता की रचना की।

जिस ब्रजभूमि में वेणुधर नटवर नागर कृष्ण जन्में हों, जिस ब्रज में उनकी मुरली के स्वर गूँजे हों, जिस ब्रजधाम के कुँजों में महारास थिरका हो, जिस ब्रज- वसुंधरा में पतित- पावनी यमुना के तट पर कल- कल ध्वनि में स्वर मिलाकर मनीषियों ने साम- गान किया हो, उस ब्रजधरा का प्रभाव भारतीय संगीत पर न पड़ा हो, यह कैसे संभव हो सकता है ? कहना न होगा कि ब्रज तो भारत की सांस्कृतिक आत्मा है।


हरिदासजी की देन

इसमें संदेह नहीं कि ब्रज के प्राचीन भक्त संगीतज्ञों की कला का प्रभाव भारतीय संगीत पर पदे- पदे पड़ा है। उन्हीं में से अग्रगण्य, वृंदावन के निधिवन निकुंज निवासी स्वामी श्री हरिदास संगीत के ऐसे महान आदर्श थे, जिनके समक्ष राग- रागिनियाँ आज्ञापालन के लिए तत्पर रहते थे। मेघ मल्हार के गायन पर वर्षा हो जाना, दीपक राग गाने पर दीप प्रज्वलित हो जाना, श्री बहार, बसंत आदि राग गाने पर वृक्षों पर बहार आ जाना आदि उनकी संगीत- सिद्धि के जीवंत परिणाम थे। ये सिद्धियाँ स्वामी हरिदास की कृपा से तानसेन, बैजू बावरा एवं गोपाल नायक को भी प्राप्त हुई थीं। हरिदासजी का संगीत दिव्य था, अनंत था, अद्भुत था। उनके रचे हुए अनेकानेक पद, ध्रुपद आदि आज भी श्रद्धापूर्वक गाए जाते हैं और जब तक पृथ्वी पर संगीत विद्यमान है, गाए जाते रहेंगे।


स्वामी हरिदास की रचनाओं में गायन, वादन और नृत्य संबंधी अनेक पारिभाषिक शब्द, वाद्ययंत्रों के बोल एवं नाम तथा नृत्य की तालों व मुद्राओं के स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं। स्वामीजी के ध्रुपद शैली में गायन में से ....एक सा अट्ठाइस माने जाते हैं, जिसमें से एक सा दस पद "केलिमाल' के नाम से तथा अठारह पद "सिद्धांत के पद' के नाम से प्रसिद्ध हैं। हरिदासजी ने ब्रज के लोकनाट्य "रास' का नवीन रुप में स्वस्थ प्रचार करने का श्रेय भी प्राप्त किया है। रास की अत्यधिक प्राचीन परंपरा ब्रज में रही है। भारतीय संगीत का समग्र रुप ब्रज का रास ही है। रास को नवीन रुप में अनुप्राणित करने का श्रेय हरिदासजी के अतिरिक्त श्री हितहरिवंश, श्री नारायण भट्ट, श्री घमंडदेव एवं श्री वल्लभाचार्य को भी है।

वल्लभाचार्य का संरक्षण

श्री वल्लभाचार्य द्वारा प्रवर्तित पुष्टिमार्ग के भारतीय संगीत को कितना संरक्षण एवं प्रश्रय दिया है, यह कौन सहृदय नहीं जानता है ? इस पुष्टिमार्गीय वल्लभकुल में अनेक आचार्य उच्चकोटि का कीर्तन करने वाले गायक हुए हैं, यथा -- श्री विठ्टलनाथ, श्री पुरुषोत्तमराय, श्री गोकुलनाथ, श्री कल्याणराय, श्री द्वारकेश प्रभु आदि। इनके द्वारा रचित पद आज भी श्रद्धापूर्वक गाए जाते हैं। इन पदों में संगीतात्मकता की गहराई है। इन गेय पदावलियों को रस, वातावरण, अवसर आदि के अनुकूल राग- रागिनियों में बद्ध किया गया है। इन पदों में स्वरों के साथ- साथ भाषा- माधुर्य एवं नाद- सौंदर्य भी कम नहीं है।

संगीत शिरोमणि सूरदास

अष्टदास के सभी भक्तकवि संगीतज्ञ एवं कीर्तनकार थे, जिनकी रचनाओं में काव्य एवं संगीत का मणिकांचन संयोग अभिलक्षित होता है। सूरदास, नंददास, कुंभनदास, कृष्णदास, परमानंददास, चतुर्भुजदास, गोविंदस्वामी एवं छीतस्वामी -- ये आठ अष्टछाप के महासंगीतज्ञ कविगण थे, जिनके पदों के शब्द- माधुर्य एवं संगीत- सौंदर्य के कारण भारतीय संगीत पर समग्र विश्व मोहित हे। ये सभी भक्त देवाराधन हेतु पद रचकर गाया करते थे। अपने इष्ट के लिए समयानुकूल नित्य नए पदों की रचना कर उन्हें इकतारे पर गाते हुए सूरदास की संगीत- मंदाकिनी में अवगाहन करते हुए कौन सहृदय विभोर नहीं हो जाता है सूरदास के विषय में किसी कवि ने ठीक ही लिखा है --

हाथ सितारों सुर कर् यों, मुख में मधुरा बोल।
कान्हरे के रंग में, सूरदास को चोल।

सूरदास के शब्दों में आराध्य को समर्पित संगीत इस भवसागर से उबारने का श्रेष्ठ साधन है --

नीके गाय गुपालहि मन रे।

जा गाये निर्भय पद पाई अपराधी अनगन रे।।
गायो गीध अजामिल गतिका, गायो पारथ धन रे।
गायो स्वपच परम अघ पूरन, सुत पायो बाम्हन रे।।
गायो ग्राह- ग्रसित गज जल में, खंभ बंधे तैं जन रे।
गायें "सूर' कौन नहिं उबरो, हरि परिपालन पन रे।।

संगीत के माहात्म्य के विषय में बताते हुए सूरदास ने संगीत कला को मन की चित्तवृत्तियों का निरोध करने के साधन के रुप में ग्रहण किया। सूरदास ने संगीत को आध्यात्मिक लोक में प्रविष्ट कराया। ब्रज की पुण्य भूमि पर संगीत की साधना करते हुए सूरदास ने भारतीय संगीत को हरिचरणों में अर्पित कर उसे दिव्य रुप प्रदान किया। सूर ने संगीत के सात स्वरों की प्रधानता को अपने काव्य में विशेष स्थान दिया है --

स रि ग मा प ध नि सां में सप्त सुरनि गाई।।
अतीत अनागत संगीत बिच तान मिलाई।
"सूर' ताल- नृत्य ध्याई, पुनि मृदंग बजाई।।

सूर के अधिकांश पद "ध्रुपद' की शैली में गाए जा सकते योग्य हैं। नाट्यशास्र के अनुसार वर्ण, अलंकार, गान- क्रिया, यति, वाणी, लय आदि जहाँ ध्रुव रुप में परस्पर संबद्ध रहें, उन गीतों को "ध्रुवा' कहा गया है। जिन पदों में उक्त नियम का निर्वाह हो रहा हो, उन्हें "ध्रुवपद' अथवा " ध्रुपद' कहा जाता है। सूर द्वारा रचित ध्रुवपद अपूर्व नाद- सौंदर्य, गमक एवं विलक्षण शब्द- योजना से ओत- प्रोत अभिलक्षित होते हैं। सूर के ज्ञान के विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने "भ्रमरगीत सार' की भूमिका में लिखा है -- ""सूर ने ऐसे रागों का निर्माण किया, जिनका नामकरण आज तक नहीं हुआ।'' सूरसागर में उल्लिखित रागों में से अनेक तो आज व्यवहार में भी नहीं हैं, यथा -- देसाख, सानुत, कर्नाट, वैराठी, षटपदी, गुंडमलार, रामगिरि, राज्ञी हठीली, राज्ञी मलार, राज्ञी श्री हठी आदि। इससे सूर के उत्कृष्ट संगीत ज्ञान का पता चलता है।

अष्टछाप के ही भक्तकवि कृष्णकवि कृष्णदास के पदों में संगीत के रागात्मक पक्ष के दर्शन होते हैं। इन पदों के शब्दों में अभिनय की गति दृष्टिगोचर होती है। इसक दृष्टांत स्वरुप अनेक संगीतात्मक चित्रों में से एक यहाँ प्रस्तुत है --

सारेगमपधनि स्वर सप्त अलंकृत,
श्री राग गावै ब्रज- भामिनी।
नृत्तति कोलकता नवल गुन सुंदरि,
सकल कामिनी महं बर- कामिनी।।
मिलवति तत्त थेई अवघर तान बंधान,
सरुद विमल ससि राका यामिनी।
तरनि- तनया- तीर मयल बहै समीर,
नाचय मुदित राजहंस गामिनी।।
सजल स्याम घन नवल नंदकिसोर,
हृदै लागि सोहे मानों सौदामिनी।
"कृष्णदास' प्रभु हरि गोवर्धनधारी लाल,
रिझये सुरति संगीत की स्वामिनी।।

सूरदास एवं कृष्णदास के अतिरिक्त परमानंददास, गोविंदस्वामी आदि अष्टछाप के अन्य कवियों के काव्य की संगीतात्मकता का प्रभाव भारतीय संगीत पर पड़ा है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

 

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