ब्रज-वैभव |
रास-नृत्य : स्वरुप और विकास रास : नियंता का शाश्वत खेल |
अपनी स्वरुपगत विकास यात्रा में रास- मंच ने यदि बहुत कुछ परंपरा से आत्मसात किया है तो कत्थक जैसी आधुनिक नृत्य- विधाओं को बहुत कुछ दिया भी है। रास- नृत्य में कोई कथ्य हो अथवा उसके प्रकटीकरण की कोई शैली विशेष -- सभी में भक्ति की अजस्त्रधारा प्रवाहित होती है। यही उसकी मूलभूत आवश्यकता भी है। रासलीलाओं की इसी मूलभूत विशेषता को ध्यान में न रख कर कुछ विद्वान इस प्रदर्शनों में मात्र कला के दर्शन करना चाहते हैं और अभीष्ट की प्राप्ति के अभाव में निराश होते हैं। वस्तुतः इस दृष्टि से रास- नृत्य का मूल्यांकन किया जाना इस विधा के साथ अन्याय ही है। वैष्णव आचार्यों ने नृत्य, गीत और वादन की त्रिवेणी के द्वारा अपने आराध्य की लीलाओं को अपने नेत्रों के समक्ष देखना चाहा है, अतः यह विधि मात्र नाअक या रुपक नहीं मानी जा सकती। यहाँ भक्त- हृदय अपने परमतत्व के दर्शन करता है, अतः यह कोई चरित रुपक न होकर मात्र लीला रुपक है, जो वैष्णवों की दृष्टि में विशुद्ध रुप से निर्हेतुक अकारण- कारण है। आधुनिक युग की बुद्धि के विलास ने रासलीली में कतिपय प्रतिकों का विधान भी घोषित किया है। किसी ने इसमें सांख्य के प्रकृति- पुरुष का मिलन बताया है तो किसी ने इसके मंडलाकृत आवर्त- प्रत्यावर्तन में अणु- सिद्धांत का विश्लेषण पाया है। सौरमंडल के केंद्रीभूत सूर्य एवं ग्रह- उपग्रह को संहालने की प्रक्रिया अथवा परमाणु में न्यूक्लियस के धनाणु और ॠणाणु का विलास अथवा आत्मा के साथ मन, बुद्धि, अंद्रिय आदि की अवस्थिति आदि में ये विद्वान इसी रासलीला की समुपस्थिति मानते हैं। इसी प्रकार रासलीला की अनेक दार्शनिक, योगिक एवं तांत्रिक परिभाषाएँ भी उपलब्ध हैं परंतु वैष्णव दृष्टि से यह लीला पूर्णब्रह्म श्री कृष्ण की लीला है। उसके नेत्रों के समक्ष सदा स्वयं सृष्टि का आदिनियंता खेलता -- इसके अतिरिक्त वह इससे कोई अन्य आशय नहीं लेना चाहता और यही रासलीला की महत्ता भी है। भारत के पूर्वांचल मणिपुर में रास की प्रथा ब्रज से भी अधिक लोकप्रिया है। वहाँ पूरी- पूरी रात तक लोग रास का आनंद लेते हैं। इनमें आम जनता ही नहीं, वहाँ के संभ्रांत नागरिक, प्रदेश के नेता और मुख्यमंत्री भी सम्मिलित होना अपनी प्रतिष्ठा का विषय समझते हैं। कुछ लोगों का तो यह भी मानना है कि ब्रज के रास- नृत्य पर मणिपुरी रास का भी प्रभाव कम नहीं पड़ा है। कुछ कहते हैं कि ब्रज का रास ही मणिपुर गया है। संदर्भ :- गोपाल प्रसाद व्यास, ब्रज विभव, दिल्ली १९८७ ई. पृ. ५३३- ५३६
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