असुर - संस्कृति
पुराणों से स्पष्ट है कि कृष्ण के उदय से पूर्व कंस ने यादव गणतंत्र के प्रमुख अपने पिता उग्रसेन को बंदी बनाकर निरंकुश एकतंत्र की स्थापना करके अपने को सम्राट घोषित किया था और यादव व आभीरों को दबाने के लिए उसने इस क्षेत्र में असुरों को भारी मात्रा में ससम्मान बसाया था, जो प्रजा का अनेक प्रकार से उत्पीड़न करते थे। श्रीकृष्ण ने बाल्यकाल में ही आभीर युवकों को संगठित करके इनसे टक्कर ली थी। ब्रज के विभिन्न भागों में इन असुरों को जागीरें देकर कंस ने सम्मानित किया था। मथुरा के समीप दहिता क्षेत्र में दंतवक्र की छावनी थी, पूतना
खेंचरी में, अरिष्ठासुर अरोठ में तथा व्योमासुर ( संभवतः वृत्रासुर ) कामवन में बसे थे। परंतु कंस के वध के साथ ही यह असुर समूह या तो मारा गया या इस क्षेत्र
से भाग गया।
नाग - संस्कृति
कृष्ण काल में नाग जाति भी, जिनकी अपनी पृथक संस्कृति थी, ब्रज में आकर बस गई थी। कालिय नाग को संघर्ष में पराजित करके श्री कृष्ण ने ब्रज से निर्वासित कर दिया था, परंतु नाग जाति यहाँ प्रमुख रुप से बसी रही। मथुरा पर उन्होंने काफी समय तक शासन भी किया। नागसेन आदिनाग नरेश ब्रज के इतिहास में उल्लेखनीय रहे, जिन्हें गुप्तवंश ने पराजित किया था। नाग देवताओं के अनेक मंदिर आज भी ब्रज में विद्यमान हैं।
शाक्त - संस्कृति
कृष्ण काल में यहाँ शाक्त- संस्कृति का भी प्रभाव बहुत बढ़ा। ब्रज में महामाया, महाविद्या, करोली, सांचोली आदि विख्यात शक्तिपीठ हैं। कंस ने वसुदेव द्वारा यशोदा से उत्पन्न जिस कन्या का वध किया था, उसे भगवान कृष्ण की प्राणरक्षिका देवी के रुप में पूजा जाता है। देवी शक्ति की यह मान्यता ब्रज से सौराष्ट्र तक फैली है। द्वारका में भगवान द्वारकानाथ के शिखर पर चर्चित सिंदूरी आकर्षक देवी प्रतिमा देखकर जब आश्चर्यचकित हमने उसका परिचय जानने की चेष्टा की तो हमें बतलाया गया कि यह भगवान कृष्ण की भगिनी हैं, जो शिखर पर विराजमान होकर सदा इनकी रक्षा करती हैं। ब्रज तो तांत्रिकों का आज से १०० वर्ष पूर्व तक प्रमुख गढ़ था। यहाँ के तांत्रिक भारत प्रसिद्ध रहे हैं। कामवन भी राजा कामसेन के समय तंत्र विद्या का मुख्य केंद्र था, उसके दरबार में अनेक तांत्रिक रहते
थे।
जैन - संस्कृति
पौराणिक युग में ब्रज की इन संस्कृतियों का समन्वय होते- होते जो ब्रज संस्कृति बनी, वह ऐतिहासिक युग में और विकसित हुई। जैसा की प्रथम शताब्दी में जैन धर्म ने ब्रज को विशेष रुप से प्रभावित किया। जैन धर्म के २२ वें तीथर्ंकर नेमिनाथजी ब्रज के शौरिपुर राज्य के राजकुमार व भगवान कृष्ण के चचेरे भाई थे। मथुरा में जब वह विवाह के लिए पधारे तब बारात के भोजन को पकड़े गए पशुओं के विशाल समूह को देखकर उन्होंने जीव- हिंसाके विरुद्ध विवाह करना ही अस्वीकार कर दिया और तप करने चले गए। बाद में उनकी अविवाहित पत्नी राजुल ने भी उन्हीं का अनुकरण किया। इससे ब्रज में जीव- हिंसा विरोधी जो प्रतिक्रिया हुइ#्र उसने पूरे समाज को ही प्रभावित किया। आज भी ब्रजवासियों का भोजन निरामिष व सात्विक है। अभी भी
अधिकांश ब्रजवासी प्याज और यहाँ तक कि कुछ तो टमाटर तक से परहेज करते हैं। मथुरा व शैरिपुर दोनों ही किसी समय जैन धर्म के गढ़ थे। बटेश्वर में तीथर्ंकर की जो दिव्य प्रतिमा है, वह आल्हा द्वारा स्थापित कही जाती है। जंबू स्वामी के कारण चौरासी तीर्थ आज भी भारत प्रसिद्ध है। कंकाली टीले पर किसी युग में जैन धर्म का प्रधान केंद्र था। यहाँ का विशाल जैन स्तूप देव निर्मित माना जाता था। जैनों का एक युग में इस क्षेत्र पर भारी प्रभाव था।
बौद्ध - संस्कृति
बौद्ध धर्म का भी मथुरा में व्यापक प्रचार था। जब भगवान बुद्ध प्रथम बार मथुरा आए तो उस समय यहाँ यक्षों का बड़ा आतंक था। वैंदा नामक यक्षिणी ने पहले भगवान बुद्ध को परेशान किया, परंतु बाद में वह उनकी भक्त हो गई। मथुरा में बौद्ध धर्म कितना फला- फूला यह फाह्यान व ह्मवेनसांग के वर्णनों से स्पष्ट हो जाता है। बुद्ध के सौ वर्ष बाद मथुरा में ही प्रसिद्ध भिक्षु उपगुप्त का जन्म हुआ था। वे सम्राट अशोक को अपना शिष्य बनाकर बौद्ध धर्म को भारत से बाहर पूरे एशिया में फैलाने मे सफल हुए। मथुरा के ही कुशल कलाकारों ने सर्वप्रथम भगवान बुद्ध की मूर्ति का निर्माण किया था। मथुरा में बुद्धों के जितने विहार और संघाराम थे, उनका वर्णन विदेशी यात्रियों ने बड़े विस्तार से किया है।
इस प्रकार जब तक भारत स्वतंत्र रहा ब्रज की संस्कृति समन्वय तथा उच्च आदर्शों को अनुप्रमाणित करती हुई विविध प्रभावों से नवीन ओज, तेज और संवुद्धिशाली बनी रही, परंतु देश पर मुसलमानी आक्रमणों के बाद स्थिति बदल गई। ब्रज की संस्कृति और संवृद्धि पर पहला आक्रमण महमूद गजनबी ने किया।
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