ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

वर्तमान स्थिति


भारत की स्वतंत्रता के उपरांत देश में जिस नवीन वातावरण का उदय हुआ है, जिसने हमारी जीवन पद्धति को विशेष रुप से प्रभावित किया है। पुरान स्तर, रहन- सहन और विचारधारा के साथ- साथ हमारा संपूर्ण जीवन नवीन युगबोध से प्रभावित है। इस बीच आर्थिक विकास की जो नवीन भाग- दौड़ प्रारंभ हुई है, उसने पुरानी परंपराओं को उलट- पुलट कर दिया है और आज जीवन के शाश्वत मूल्यों का अपमान करके हम सभी अर्थ के पीछे दौड़ पड़े हैं। मेरे विचार से इस सबका हमारी संस्कृति पर अनुकूल प्रभाव नहीं पड़ रहा है। समस्त चिंतन- क्षेत्र में हुए परिवर्तन के साथ प्रतिदिन के साथ प्रतिदिन बढ़ती हुई महंगाई और जीवनयापन की कठिनता ने जहाँ अमीरों को अमीर बनाया है, वहाँ सामान्य जन को झकझोर दिया है। इसका प्रभाव ब्रज की संस्कृति पर विशेष रुप से पड़ा है, क्योंकि यह क्षेत्र तो भारत की राजधानी के अंचल में ही बसा है और यहाँ के वातावरण का पूरा प्रभाव इस क्षेत्र पर पड़ता है। इस समय की स्थिति एकदम बदल गई है --

१. -- वर्तमान स्थिति में सामान्य जन को जीवनयापन के लिए जो संघर्ष करना पड़ रहा है, उसने उसकी रुचि व वृत्ति को अर्थ प्रधान बना दिया है। उचित या अनुचित किसी भी प्रकार से धन प्राप्त हो यहीअब जीवन मे नैतिकता का ह्रास और लोलुपता बढ़ रही है। आज कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे काम में समय नहीं ...... वह पर्व अब हार्दिक उल्लास से नहीं केवल परंपरा पालन के लिए हो रहे हैं, अतः उनकी जीवंतता जाती रही है कला की स्वान्तः सुखाय साधना समाप्त हो रही है और सभी क्षेत्रों में व्यावसायिकता बढ़ गई है। जिससे कला का विकास एक वर्ग विशेष में सीमित हो गया है।

२. -- धर्म निरपेक्ष राज्य को अधिकाधिक वयक्तियों ने धर्महीनता मान लिया है। पुरानी आस्थाएँ समाप्त हो रही हैं। आर्थिक कारणों से पारिवारिक इकाईयाँ टूट रही हैं। मस्ती का जीवन अविश्वास व जटिलता से ग्रसित हो गया है। चोरी, डाके व आतंकवाद ने जीवन की मस्ती का हरण कर लिया है।

३. -- सांस्कृतिक या धार्मिक कार्यों में अब जनसाधारण का योगदान घटता जा रहा है और नवीन धनवान वर्ग के नंबर दो के पैसे का उपयोग इन कार्यों में हो रहा है। वृंदावन में जितने मंदिर, मठ चल रहे हैं या आश्रम बन रहे हैं, यदि उनकी जाँच की जाए तो आपको स्पष्ट हो जाएगा कि यह सब नंबर दो के धन का चमत्कार है, जहाँ पाप के पैसे पर धर्म आश्रित हो जाए, वहाँ क्या परिणाम होगा ?

४. -- सबसे विशेष बात यह है कि आज की सरकार पर भी आर्थिक विकास का भूत ऐसा सवार है कि वह दूसरी ओर ध्यान देने की स्थिति में नहीं है। स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों में "अधिक अन्न उपजाओ' आंदोलन में ब्रज के लगभग सभी पुराने वन- उपवन साफ हो गए, पुरानी कदंबखंडी कट गई और ब्रज की वन्य संस्कृति अब केवल स्मृति कीही वस्तु बन गई है। हाँ, गिरिराज पर्वत पर जब श्री के. एम. मुंशी राज्यपाल थे तब उनकी प्रेरणा से भारी मात्रा में वृक्षारोपण हुआ था, परंतु वर्तमान स्थिति यह है कि जितने वृक्ष लगाए जाते हैं। उससे कहीं अधिक काट दिए जाते हैं। इससे अधिक ब्रज का सांस्कृतिक ह्रास क्या हो सकता है ?

पंचवर्षीय योजना बनाते समय भी सरकार के अर्थ विशेषज्ञ किसी क्षेत्र विशेष की संसकृति का कोई ध्यान नहीं रखते। ब्रजक्षेत्र की सांस्कृतिक या कला धरोहरों की सुरक्षा के नाम पर सरकार की चिंता केवल ताज तक सीमित है, जैसा कि आप प्रायः पत्रों में पढ़ते होंगे। ब्रज के शेष सांस्कृतिक परिवेश का उसे कोई ध्यान नहीं है। यह इसी से सिद्ध है कि दूध, दही ओर माखन के प्रदेश में सरकार ने विकास के लिए यहाँ तेलशोधक कारखाना लगाया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वतंत्रता के बाद हमारे उद्योग- धंधों का खूब विकास हुआ है। मथुरा के छपे कपड़े की माँग तो इस हद तक बढ़ी है कि उसने हमारी जीवन- प्राण यमुना तक को प्रदूषित कर दिया है। यमुना सदा ब्रज- संस्कृति की मूर्तिमान मेरुदंड रही हैं, परंतु खेद है कि उसी पावन यमुना में स्वतंत्रता के बाद एक गंदे नाले का रुप ले लिया है। यही घटना सिद्ध कर देती है कि वर्तमान में ब्रज- संस्कृति कितनी कितनी प्रदूषित हो चुकी है।

इन तथ्यों से स्पष्ट है कि स्वतंत्रता के बाद हम एक संक्रांति काल से गु रहे हैं, जिसने हमारे परंपरागत मूल्यों को छिन्न- भिन्न कर दिया है। आगे चलकर हमारी यह तथा कथित प्रगति हमारी संस्कृति को किस रुप में विकसित होने का अवसर देगी, यह अभी भविष्य के गर्भ में छिपा है। इस स्थिति को कैसे उचित मोड़ दिया जाए ? यह देशके प्रबुद्ध विचारकों व संस्कृति के अनुरागियों के सामने एक प्रश्नचिह्म है, जिस पर उन्हें विचार करना चाहिए, अन्यथा हम अपनी महान सांस्कृतिक थापी को खो देंगे। पुरतन पर नवीन की सृष्टि विकास- चरण माना जा सकता है, परंतु अपने इस अपनत्व को खोकर हम कहाँ पहुंचेंगे ? यह अवश्य ही एक चिंता का विषय है।


संदर्भ :- गोपाल प्रसाद व्यास, ब्रज विभव, दिल्ली १९८७, पृ. ५४३- ५५१

 

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