ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

ब्रज-यात्राओं की सांस्कृतिक परंपरा


ब्रज- यात्रा की परंपरा पर विचार करने के लिए हमारे पुराण ग्रंथ ही एक मात्र महत्वपूर्ण साधन है। अतः यहाँ हम प्राचन पुराणों के आधार पर ब्रज- यात्रा की परंपरा पर विचार करना चाहते हैं। इस प्रकार उपलब्ध विवरणों के आधार पर हम पहले भगवान श्रीकृष्ण के सखा उद्धवजी की ब्रज- यात्रा का वर्णन करेंगे जो भगवान के मथुरा आ जाने के उपरांत, उन्हीं की प्रेरणा से ब्रज गए थे और वहाँ उन्होंने कुछ मास रह कर ब्रज- भ्रमण किया था।

 

उद्धवजी की प्रथम ब्रज- यात्रा

श्रीमद भागवत अध्याय ४६ में लिखा है कि एक दिन शरणागतों का दु:ख हरने वाले श्रीकृष्ण ने एक बार अपने प्यारे तथा एकांत भक्त उद्धवजी का हाथ- से- हाथ पकड़ कर कहा१ कि हे सौम्य उद्धव, आप बज जाकर ऐसा उपाय करो जिससे हमारे माता- पिता प्रसन्न हों और गोपियों को मेरे वियोग का जो संताप हो रहा हे उसे भी मेरा संदेश देकर दूर करो।२ ये सुनकरवे तत्काल की यदुराज कृष्ण का संकेत शिरोधार्य कर, रथ पर सवार हो नंदरायजी के गोकुल को चल दिए।३ उद्धवजी मार्ग की शोभा देखते हुए जब संध्या समय गोकुल पहुँचे तो कृष्ण के प्रिय तथा अनुगामी उद्धवजी को आता देखकर, उन्हीं को कृष्ण समझ नंदजी ने पूजा की। श्री नंदजी कृष्ण की लीलाओं का वर्णन कर, उनका स्मरण कर अत्यंत उत्कंठा के मारे प्रेम के आवेग में व्याकुल होकर मौन हो गए। इस प्रकार के वर्णन को सुनकर श्री यशोदाजी की आँखों से आँसू बहने लगे और स्नेह से उनके स्तनों से दूध टपकने लगा।

रात्रि भर नंद- गृह में उद्धवजी ने निवास किया और प्रातः काल वह गोपियों से मिले। इस स्थान पर अत्यंत सूक्ष्म रीति से "भ्रमर- गीत' का वर्णन है। किंतु अंत में भगवान के संदेश से उनका विरह ताप दूर हो जाता है तथा कृष्ण को परमात्मा समझ कर तथा अपनी आत्मा मानकर गोपी उद्धवजी की पूजा करती हैं।

उद्धवजी गोपियों का ताप मिटाने के लिए भगवान की लीलाओं का वर्णन करते हुए कुछ मास गोकुल में रहे। ४ वे हरिभक्त उद्धवजी, नदी, वन, पर्वत की गुफाओं और फूले हुए वृक्षों को देखकर उनके विषय में पूछताछ करके भगवान का स्मरण करते हुए ब्रजवासियों को आनंद देते रहे। इस उल्लेख से स्पष्ट हैं कि उद्धवजी ने ब्रज में रहकर भ्रमण किया था, वहाँ के सब स्थलों को देखकर वे उनसे बहुत प्रभावित हुए थे और अंत में वे यह कहने को विवश हुए थे --

वंदे नंदव्रजस्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णशः।
यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम्।। ( ४७, ६४ )

""जिनका श्री भगवान की कथाओं संबंधी गायन त्रिलोक को पवित्र करता है, उन नंदरायजी के ब्रज की स्रियों के चरणों की रज की मैं बार- बार वंदना करता हूँ।''

ऐसी है यह उद्धवजी की ब्रज- यात्रा जिसको बिंदु रुप से लेकर पुराणों तथा हिंदी के भक्तकवियों ने विशद विवेचना की है।

उद्धवजी की द्वितीय ब्रज- यात्रा -- श्रीमद भागवतकार के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने जब अपनी द्वारका- लीला का संवरण किया तो उद्धवजी को बद्रिकाश्रम में तप करने की आज्ञा दी थी, परंतु स्कंद पुराण ( श्रीमद भागवत खंड ) में वज्रनाभजी की गोवर्द्धन से भेंट का उल्लेख उपलब्ध है। गोवर्द्धन में वज्रनाभ ने उद्धवजी से श्रीमद भगवान श्रीकृष्ण की वाल- लीला भूमि ब्रज को नहीं भूल सके। वे उससे अपना निकट संपर्क बनाए रहे और स्वयं यहाँ आए। यदि उद्धवजी बद्रिकाश्रम में ही स्थायी रुप से रह गए होते तो उनका राजा वज्रनाभ को गोवर्द्धन में कथा सुनाना संभव न था।

देवर्षि नारद की ब्रज- यात्रा

उद्धवजी के अतिरिक्त ब्रज के दूसरे यात्री के रुप में हम देवर्षि नारद का उल्लेख कर सकते हैं। नारदजी की ब्रज- यात्रा का यह प्रसंग पद्म पुराण और वृहद नारदीय पुराण में उपलब्ध है।

पद्म पुराण ( पाताल खंड ) में लिखा है कि जब नारद ने सुना कि भगवान श्री कृष्ण अपने परिवार सहित ब्रज में अवतार लेकर लीला विस्तार कर रहे हैं तो उनकी सहचरी, रास रसिकेश्वरी राधा के दर्शन करने वे ब्रज में पधारे। नारद घर- घर उस समय उत्पन्न होने वाली समस्त बालिकाओं के लक्षण देखते हुए ब्रज में भ्रमण करने लगे, परंतु उसमें कोई भी बालिका ऐसी न मिली, जिसके लक्षण रास- रसिकेश्वरी से मिल सकें। अंत में वह वृषभानु घोष के घर पधारे। वहाँ वृषभानु ने नारदजी को कितने ही बालकों का हाथ देखते हुए देखकर अपने पुत्र का भी हाथ दिखाया। नारदजी ने उसका हाथ देखकर बताया कि यह कृष्ण का सखा होगा। इस बात से कुछ प्रोत्साहित होकर उन्होंने अपनी मूक और बधिर लड़की को देखने की प्रार्थना की। नारद ने जाकर अंदर देखा कि एक परम ज्योतिर्मयी कन्या पृथ्वी पर पड़ी है। उसको देखते ही नारदजी पहचान गए कि यही कृष्णाद्धार्ंगिनी श्री राधा हैं। उन्होंने सबको बाहर जाने की आज्ञा दी और एकांत पाकर उनकी प्रार्थना करने लगे। श्री राधा ने प्रसन्न होकर उन्हें किशोरावस्था में दर्शन देते हुए उनसे वर माँगने का आदेश दिया। नारदजी ने उनसे रास दिखाने की प्रार्थना की। श्री राधा ने उनको रात्रि के समय कुसुम सरोवर पर पहुँचने की आज्ञा दी। नारद वहाँ पहुँच कर एक अशोक वृक्ष के सहारे खड़े हो गए। जब रास का समय हुआ तब प्रिया- प्रीतम रास- स्थल पर पधारे, तो जितने भी लता- गुल्म आदि थे सभी नारी रुप में परिवर्तित हो गए और नारदजी ने देखा कि जिस अशोक वृक्ष के नीचे वे खड़े थे, वह अशोक मंजरी नाम की सखी बन गया। नारदजी ने वहाँ रास देखकर अपने को धन्य माना।

नारदजी की एक अन्य यात्रा का उल्लेख "वृहद् नारदीय पुराण' में मिलता है जो "पद्म पुराण' से भिन्न है। इसमें नारदजी की जिस ब्रज- यात्रा का उल्लेख है, उससे उस समय के ब्रज के वन और उपवनों पर प्रकाश पड़ता है। आगे इसी पुराण के अध्याय ८० में लिखा है कि एक बार नारदजी यात्रा करते हुए वृंदावन में कुसुम सरोवर पर पधारे, जो मथुरा के उत्तर- पश्चिम में है। यहाँ अष्ट- सखियों के कुंड के पास गोवर्द्धन पर्वत है। ५ यह वृंदा की तपोभूमि गोवर्द्धन से नंदगाँव तक मथुरा के किनारे- किनारे स्थित है। यहाँ भगवान मध्याह्म के समय सखियों सहित विश्राम करते हैं। यहाँ कुसुम सरोवर का आचमन कर संध्यादि से निवृत्त होकर नारदजी ने गोपी और गोपों को जाते हुए देखा और जब दिन आधा प्रहर शेष रह गया, तो उन्होंने "अद्रुम- आश्रम' ( नारद कुंड ) में प्रवेश किया, जहाँ उस आश्रम में रहने वाली वृंदा देवी आगत भगवद- भक्तों का फलों से स्वागत करती थी। नारदजी उस तपस्विनी को प्रमाण कर पृथ्वी पर बैठ गए। वृंदा ने ध्यान- योग से उठ कर उन्हें आसन दिया, तब नारद ने कृष्ण- रहस्य जानने की इच्छा की। वृंदा ने उनका अभीष्ट जानकर अपनी सखी माधवी को ध्यान- योग से बुलाया तथा नारद की इच्छा- पूर्ति करने का आदेश दिया। माधवी ने उन्हें वृंदासर में स्नान कराया, जिससे वे नारी रुप होकर "नारदी' संज्ञा को प्राप्त हुए। ६ माधवी उसे वृंदा के पास ले आई, जहाँ वृंदा देवी उन्हें वस्राभूषण से सुसज्जित कर भगवान के रत्न- जटित महल में पहुँचा आई। उस "केलि महल' में नारद ने श्री कृष्ण को ललितादि सखियों से युक्त देखा। भगवान के बुलाने पर नारदी लज्जा से नत- मस्तक होकर उनके समीप गई जहाँ श्री कृष्ण ने उसके साथ रमण कर और आलिंगन दे विदा किया। फिर वह कुसुम सरोवर पर आ गई। यहाँ माधवी ने उन्हें दक्षिण- पश्चिम कुंड में स्नान कराकर पुनः पुरुष रुप में परिणित कर दिया। ७ वृंदा की आज्ञा से सरोवर के पूर्व दक्षिण में भगवान के दर्शन की पुनः लालसा से वे तप करने लगे। वृंदा देवी इनको नित्य- प्रति आहार के लिए फल भेजा करती थीं। एक दिन नारदजी ने आकाश- मार्ग से विचरते किसी का सुंदर शब्द सुना। नारदजी उस शब्द- रस को ढ़ूंढ़ने की चेष्टा करने लगे, किंतु उसका पता न लगने पर उन्होंने वृंदा से पूछा। वृंदा ने उन्हें कुब्जा- कृष्ण का अति गोपनीय रहस्य बताया और कहा कि उसके अतिरिक्त इस रहस्य को और कोई नहीं जानता। यदि वह इस रहस्य को जानना चाहें तो तप करें। उन्होंने यह भी कहा कि एक समय मध्याह्म में श्री कृष्ण स्वामिनीजी सहित उनके यहाँ पधारे तथा विश्राम किया।

यह एक रहस्य है, जिसे सब कोई नहीं जानते, किंतु कुछ प्रकाशित रहस्य अथवा स्थल है, जहाँ भगवान ने लीलाएँ की थीं। इसमें ब्रह्म कुंड, गोविंद कुंड, नव प्रकाशित तीर्थ अरिष्ट कंड, श्री कुंड, चंद्र सरोवर, वत्स तीर्थ, अप्सरा कुंड, रुप कुंड, काम कुंड, कदम खंडी, विमल कुंड़, भोजनथारी, बलिस्थान, वृहत्सानु ( बरसाना ), संकेत स्थल, नंदगाँव, किशोरी कुंड, कोकिलावन, शेषसायी, अक्षय वट, राम कुंड, चीर घाट, भद्रवन, भांडीरवन और विल्ववन का नाम आया है। इन स्थलों के दर्शन करने से मुक्ति प्राप्त होती है। यहाँ के समस्त पशु, पक्षी, कृमि- कीट- पतंग सदा राधा- कृष्ण का नाम उच्चारण करते रहते हैं। वृंदावन में पुरुष भाव स्वप्न में भी प्राप्त नहीं होता। यहाँ गोपियाँ सदा पहरा दिया करती हैं तथा कोई भी पुरुष इसमें प्रवेश नहीं कर सकता।

वज्रनाभ द्वारा ब्रज- यात्रा

इन पुराणों से भगवान श्री कृष्ण की नित्य- लीलाओं पर पूर्ण रुप से प्रकाश पड़ता है, किंतु कुछ पुराण उनमें ऐसे भी हैं, जो ऐतिहासिक इतिवृत्त पर प्रकाश डालते हैं। उसमें स्कंद पुराण मुख्य है। इसके ( श्रीमदभागवत खंड ) वर्णन कृष्ण के जीवन से संबंधित होने के कारण, जहाँ अपना धार्मिक महत्व रखते हैं, वहाँ उसका ऐतिहासिक महत्व भी कम नहीं है। आज के युग में यह सिद्ध हो गया है कि भगवान श्रीकृष्ण एक कल्पना की वस्तु नहीं, इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति थे। इन्हीं कृष्ण की चौथी पीढ़ी में ( कृष्ण- अनिरुद्ध- प्रद्युम्न- वज्रनाभ ) वज्रनाभका जन्म हुआ, जिसको अर्जुन ने द्वारका से लाकर मथुरा का राजा बनाया। इसी वज्रनाभ का उल्लेख स्कंद पुराण ( श्रीमद भागवत अध्याय ) में आया है। इससे विदित होता है कि महाराजा परीक्षित के मथुरा पधारने पर वज्रनाभ ने उनसे शिकायत की कि उसे एक ऐसे स्थान पर राज्य दे दिया गया है, जहाँ केवल जंगल ही जंगल है और कोई व्यक्ति उस स्थान पर नहीं रहता। ऐसे जन- शून्य राज्य का राजा होना व्यर्थ है। ८

मथुरा की यह निर्जनता अपना विशिष्ट स्थान रखती हे। यद्यपि इस पुराण में व्यावहारिक और नित्यलीला का भेद यह कह कर बताने की चेष्टा की गई है कि जिन देवता और भक्तों ने उनके साथ इन व्यावहारिक लीलाओं में योग दिया, वे यद्यपि भगवान के अंतर्धान होने के साथ ही साधारण दृष्टि से अदृश्य अवश्य हो गए हैं, फिर भी वे उनकी नित्य- लीला में आज भी विद्यमान हैं, किंतु यदि हम तनिक भी उस समय की राजनीतिक परिस्थिति पर विचार करें तो ज्ञात होगा कि जरासंध की निरंतर चढ़ाइयों से यहाँ से निश्चय ही बहुत से मनुष्य ब्रज प्रदेश छोड़कर अन्यंत्र जा बसे और मथुरा से भागते समय रणछोड़ के सहयोगी, भक्त और प्रजा उनके साथ द्वारका चली गई तथा यहाँ ब्रजमंडल में निर्जनता छा जाने के कारण यहाँ जंगल ही जंगल हो गए।

यहाँ की अवस्था देखकर राजा परीक्षित ने कृष्ण के क्रीड़ास्थलों पर उन्हीं के नाम से गाँव बसाने की सलाह दी, किंतु यह कार्य अत्यंत्र कठिन था। कृष्ण को मथुरा छोड़े लगभग सौ वर्ष हो गए थे। चारों ओर जंगल ही जंगल था। इसमें स्थान विशेष कापता लगाना कठिन था, इसलिए उन्होंने उसे गोवर्धन, दीर्घपुर डीग, मथुरा, महावन पुरानी गोकुल , नंदीग्राम नंदगाँव और वृहत्सानु बरसाना में अपनी छावनी बनाने की आज्ञा दी। इसमें यदि मथुरा और महावन को छोड़ दें, तो सभी स्थान ब्रज की उत्तरी सीमा पर पड़ते हैं। इसी में आगे चले कर लिखा है कि इन दुर्गों में रह कर उन लीलास्थलों, नदी, पर्वत, सरोवर, कुंड तथा वन आदि का सेवन करना चाहिए, किंतु प्रदेश के अंदर के लीलास्थलों का कोई पता नहीं लगता था। इस कार्य में गोपों के पुरोहित शांडिल्य ॠषि ने सहायता की ९ और उन्होंने उन सभी स्थानों को पहचान दिया, जहाँ भगवान ने लीलाएँ की थीं। राजा परीक्षित और वज्रनाभ ने उन सभी स्थान- स्थान पर स्थापना की गई। भगवान के नाम पर कुंड और कुएँ खुदवाए तथा कुंज और बगीचे लगवाए। शिवजी आदि देवताओं की स्थापना की गई तथा गोविंद, हरिदेव आदि नामों से भगवद- विग्रह स्थापित किए गए। १०

यह ब्रज की प्रथम खोज तथा वज्रनाभ की ब्रज की यात्रा कही जा सकती है।

परंतु राजा वज्रनाभ ने ब्रज के पुनस्र्थापन की जो चेष्टाएँ कीं, वे स्थायी न रह सकीं। बाद में देश में जैन धर्म और बौद्ध धर्म आदि के विकास के कारण, जिनका मथुरा स्वयं बड़ा केंद्र बन गया था, भगवान कृष्ण के लीला- स्थलों को सुविदित नहीं रखा जा सकता। मुसलमानों के आक्रमण ने यहाँ की संस्कृति और वैभव को पूरी तरह ही ध्वस्त कर दिया।

इसलिए भक्तियुग में सगुण कृष्णभक्ति का केंद्र "ब्रज' में स्थापित होने पर "ब्रज' के पुनरुद्धार की ओर फिर ध्यान दिया गया। ब्रज को कृष्णभक्ति का केंद्र बनाने का मुख्य श्रेय दो आचार्यों को है। इनमें दक्षिण की धारा के प्रवर्तक थे आचार्य महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य तथा पूर्व की ओर के थे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु। इन आचार्यों व इनके शिष्यों द्वारा "ब्रज' के पुनरुद्धार के जो प्रयत्न हुए, उन्हें ब्रज की दूसरी खोज कहा जा सकता है।

संदर्भ :-


१. तमाह भगवान् प्रेष्ठं भक्त मेकान्तिनं क्वचित।
गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रपन्नार्तिहरो हरि: ।।
२. गच्छोद्धव ब्रजं सौम्य पित्रोनौ प्रीतमावह।
गोपीनां मद्वियोगाधि ममसंदेशैर्विमोचय।।

३. इत्युक्त उद्धवो राजन् संदेश भर्तुराहतः।
आदायरथमारुह्य प्रययौ नंदगोकुलम्।
प्राप्तो नंदब्रजं श्रीमान् निम्लोचति विभावसौ।
छन्नयानः प्रविशतां पशूनां खुररेणुभि:।।

४. उवास कतिचिन्मासान् गोपीनां विनुदन् शुचः।
कृष्ण- लीला कथां गायन् रमयामारस गोकुलम्।। 

५. एकदा नारदो लोकान्पर्यटभगवत्प्रियः।
या वृदारण्यं समासाद्य: तत्स्थौ पुष्प सर तटे।
पश्चिमोत्तर तो देवि माथुरे मंडने स्थितम।
वृंदारण्यं तुरीयांशं गोपीकेशरहः स्थलम्।
गोवर्धनो यत्र गिरि: सखी स्थल समीपतः।।

६. ययौ वृंदांतिकं भद्रे संविधाय तदीप्सितम्।
अथासौ नारदस्तत्र सन्निमज्योद्गतस्तदा।।
ददर्श निजमात्मानं वनितारुपनद्भुतम्।
ततस्तुपरितो वीक्ष्य नारदी सा शुचिस्मितातम्।।

७. सा पुनस्तत्र माध्वया मज्जिता दक्ष पश्चिमे।
पुंभावमभिसंप्राप्तो नारदो विस्मितोsभक्त्।।

८. माथुरे त्वभिषिक्तापि स्थितोsहंनिज्र्जन वने।
गता वै प्रजाsत्रात्या यत्र राज्या प्ररोचते।।
-- स्कंध पुराण, श्री भागवन माहात्म्य, श्लोक १५

९. अथोरजं विहायाशु शांडिल्यः समुयागतः।
पूजितो ब्रजनामेन निषसादासनोत्तमे।

१०. गोविंद हरिदेवादिस्वरुपाssरोपणेन च।
कृष्णैक भक्ति स्वे राज्ये ततान चे मुमोदय।।

 

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