मथुरा श्रीकृष्ण-राधा की पूजा और वैष्णव धर्म का प्रमुख केन्द्र है। वाराह पुराण, अग्नि पुराण आदि अन्य ग्रन्थों में मथुरा ऐसे तीर्थ स्थल के रुप में वर्णित हुआ है जिससे प्रतीत होता है कि इनके समान महत्वपूर्ण कोई अन्य तीर्थ ही नहीं है।
श्री कृष्ण जन्मभूमि
(कटरा केशवदेव)
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सभी
प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा यह
प्रमाणित हो गया है कि कटरा केशवदेव,
राजा कंस का भवन रहा था और
भगवान श्री कृष्ण का जन्म यहीं हुआ
था। यही प्राचीन मथुरा बसी हुई
थी। इससे पूर्व मधु नाम के राजा ने
श्री मधुपुरी बसाई थी, वह आज
महोली के स्थान पर थी। यही बात
विदेशी यात्रियों की पुस्तकों से
भी प्रमाणित होती है। यहाँ पर
समय-समय पर अनेक बार भव्य मंदिरों का निर्माण होता रहा जिन्हें हर
बार विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट किया जाता रहा है।
अन्त में सन् १६६९ ई. में औरंगजेब ने इस
प्राचीन स्मारक को तोड़कर उसी के
मलबे से ईदगाह मस्जिद का निर्माण कराया जो
आज भी विद्यमान है। ब्रिटिश शासनकाल
में ही यह समस्त जगह बनारस के
राजा पटनीमल ने खरीद ली थी ताकि यहाँ फिर
से श्रीकृष्ण मंदिर का निर्माण हो
सके। महामना पंडित मदन मोहन
मालवीय एवं श्री जे.के. बिड़ला के
प्रयत्नों से एक श्री कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट
बनाया गया जिसने अब यहाँ एक
विशाल मंदिर का निर्माण कराया है। यहाँ
आयुर्वेदिक औषधालय. पाठशाला,
पुस्तकालय एवं भोजनालय और
यात्रियों के ठहरने के लिए विशाल
अतिथि गृह का निर्माण हो चुका है।
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श्रीमद् भागवत
भवन
श्री कृष्ण जन्मभूमि पर एक विशाल श्रीमद् भागवत भवन का अद्वितीय निर्माण किया गया है जिसमें श्री राधा कृष्ण, श्री लक्ष्मीनारायण एवं जगन्नाथजी के विशाल मनोहर दर्शन हैं। यहाँ पारे का एक शिवलिंग अनोखा आकर्षण है। माँ दुर्गे एवं हनुमान जी की भी मूर्तियाँ स्थापित है। महामना पं. मदनमोहन मालवीय, श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्धार एवं बिड़लाजी की आदम-कद मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। विद्युत चालित मूर्तियों से श्री कृष्ण लीलाओं के बड़े ही सुन्दर व मनोहारी दर्शन कराए जाते हैं। श्रावण मास व भाद्रपद मास में यहाँ बड़ा भारी मेला लगता है। श्रीकृष्ण जन्म का समारोह बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है एवं रास लीलाएँ कई दिनों तक होती हैं। क्वार के महीने में यहाँ के रंगमंच पर श्री राम लीलाएँ कई दिनों तक होती हैं। क्वार के महीने में यहाँ के रंगमंच पर श्री राम लीलाएँ होता हैं। ट्रस्ट द्वारा श्रीकृष्ण संदेश नामक पत्रिका एवं अन्य ग्रन्थों का प्रकाशन भी किया जाता है।
श्री द्वारिकाधीश
मंदिर
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श्री
केशवराम मन्दिर (कटरा केशवदेव) के
सन् १६६९ ई. में नष्ट हो जाने के बाद गुजराती
वैश्य श्री गोकुलदास पारिख ने इस
मंदिर का निर्माण कराके इस कमी को
पूरा किया। असकुण्डा घाट के समीप
बाज़ार में स्थित इस विशाल मंदिर का निर्माण
सन् १८१४-१८१५ ई. के लगभग हुआ। इस
मंदिर की व्यवस्था के लिए अचल सम्पति
संलग्न है ताकि उसके किराये से
मंदिर की सुचारु रुप से व्यवस्था होती रहे। इसकी
सेवा-पूजा का करौली के पुष्टिमार्गीय गोसाईंयों द्वारा होती है।
प्रसाद मंदिर में अपनी पाकशाला
में तैयार होता है।
मन्दिर १०८ फीट लम्बी और १२० फीट चौड़ी कुर्सी
पर स्थित है। स्थापत्य कला की दृष्टि
से भी मंदिर का पर्याप्त महत्व है।
कलात्मक भव्य विशाल द्वार के बाहर
अनेक दूकाने हैं। अन्दर अनेक सुदृढ़ एवं
कलात्मक स्तम्भों पर मध्य में विशाल
मण्डप है जिसमें बहुरंगी कलाकृतियों एवं
शीशे का काम देखने योग्य है। श्री द्वारिकानाथ की
सुन्दर एवं आकर्षक चतुर्भुजी पद्म
आयुध विद्यमान हैं। बाई ओर श्वेत
स्फटिक की रुक्मिणीजी की सुन्दर प्रतिमा है।
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यहाँ सावन में हिंडोले का उत्सव होता है, घटाओं के अति सुन्दर दर्शन होते हैं। जन्माष्टमी, होली, अन्नकूट आदि प्रमुख उत्सव हैं। श्री द्वारिकानाथजी की एक दिन में आठ बार झाँकियाँ होती हैं। चार बार प्रात:- मंगला, श्रृंगार, ग्वाल एवं राजभोग तथा चार बार सायं-
उत्थान, भोग, संख्या आरती एवं शयन। मंगला आरती की झाँकी ६.३० बजे होती है तथा शयन के दर्शन ग्रीष्मकाल में ७ बजे तक और शीतकाल में ६.३० बजे तक खुले रहते हैं।
दशभुजी गणेश मन्दिर
श्री द्वारिकाधीश मंदिर के पीछे गली में गणेश मंदिर है जिसमें गणेशजी के विशाल एवं भव्य विग्रह रुप के दर्शन हैं।
श्रीनाथजी का मन्दिर
मानिक चौक में ही श्री नाथजी का भव्य प्रतिमा वाला मन्दिर है। पाषाण की जाली-झरोखों की कलात्मकता देखने योग्य है। बल्ल्भ सम्प्रदायी इस मन्दिर का निर्माण कुल्लीमल वैश्य द्वारा कराया गया हैं।
वाराहजी का मन्दिर
वाराहजी के मन्दिर के लिए द्वारिकाधीशजी की बगरिया होकर जाते हैं। यहाँ मानिक चौक में वाराह भगवान की बहुत ही चित्ताकर्षक प्रतिमा विराजमान है।
गताश्रम नारायण मन्दिर
रामानुज सम्प्रदाय के आचार्य श्रीप्राणनाथ शास्री द्वारा सं. १८५७ में इस मन्दिर का निर्माण हुआ। इस मन्दिर में श्री विष्णु भगवान के दर्शन होते हैं।
विजय गोविन्द मन्दिर
विरजानन्द बाजार में श्री विरदानन्दजी के स्मारक के सामने दतिया वालों का यह मन्दिर है।
श्री लक्ष्मीनारायण का मन्दिर
छप्रा बाजार में यह मन्दिर है जिसे आगरा जिले के श्री जयरामदास पालीवाल ने निर्मित कराया था। यह मन्दिर मूँगाजी के मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध हैं।
श्री कन्हैयालालजी का मन्दिर
श्री लक्ष्मीनारायणजी मन्दिर के सामने छप्रा बाजार में यह मन्दिर स्थित है।
श्री गोवर्धन नाथजी का मन्दिर
छप्रा बाजार में ही यह स्थित है। श्री गोवर्धन नाथजी के सुन्दर श्यामल विग्रह रुप के दर्शन हैं। सेठ शिवलाल द्वारा निर्मित यह मन्दिर सवा सौ साल पुराना बताया जाता है।
श्री दाऊजी, मदनमोहन एवं गोकुलनाथजी के
मन्दिर
ये तीनों मन्दिर बंगाली घाट (राम घाट) पर स्थित है।
वल्लभ सम्प्रदाय प्रमुख गुसाइयों द्वारा
सेवित इन मन्दिरों की वास्तुकला तो आकर्षक नहीं,
लेकिन मान्यता की दृष्टि से इनका बहुत अधिक महत्व है।
ये मन्दिर प्राचीन है तथा गुजराती यात्रियों के
लिए ये आकर्षण का केन्द्र हैं। इनके गोसाइंयों द्वारा ही महत्वपूर्ण चौरासी कोस की
ब्रज यात्राएँ उठाई जाती हैं।
श्री राम मन्दिर
रामजी द्वारा गली सेठ भीकचन्द में स्थित है। इस
मन्दिर में रामनवमी का महोत्सव
बड़े ही धूम-धाम से मनाया जाता है।
श्री रामजी एवं अष्टभुजी गोपालजी के अति
सुन्दर मूर्ति का दर्शन हैं।
बिड़ला मन्दिर
यह मथुरा शहर से बाहर मथुरा
वृन्दावन सड़क पर बिड़ला द्वारा बनवाया गया है।
मन्दिर में पंञ्चजन्य शंख एवं सुदर्शन चक्र
लिए हुए श्री कृष्ण भगवान, सीताराम एवं
लक्ष्मीनारायणजी की मूर्तियाँ बड़ी मनोहारी हैं। दीवारों पर चित्र एवं उपदेशों की
रचना दर्शकों का मन मोह लेती हैं। एक स्तंभ पर
सम्पूर्ण श्रीमद् भगवद्गीता लिखी हुई है तथा स्थान-स्थान पर
मूर्तियों आदि से सुसज्जित मन्दिर यात्रियों को
भक्ति रस-विभोर कर देता है। समीप ही
बिड़ला धर्मशाला भी है।
श्रीजी बाबा मन्दिर
श्री कृष्ण जन्म स्थान एवं भूतेश्वर रोड
रेलवे स्टेशन के समीप स्थित हैं। श्रीजी
बाबा आश्रम में श्री मथुराधीश प्रभु के दर्शन हैं। आश्रम में एक
सौ आवासीय कमरे हैं, विशाल जगमोहन तथा
सत्संग भवन हैं।
श्री यमुना मन्दिर एवं विश्राम घाट
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यह प्रमुख घाट नगरी के लगभग मध्य
में स्थित है। इस घाट के उत्तर में १२
और दक्षिण में भी १२ घाट हैं। इस पर
यमुनाजी का मन्दिर तथा आस-पास
अन्य मन्दिर भी हैं। सायंकाल यमुनाजी की
आरती का दृश्य मनोहारी होता है।
ओरछा के राजा वीरासिंह देव ने इसी घाट
पर ८१ मन सोने का दान किया था।
जयपुर, रीवा, काशी आदि के राजाओं ने
भी बाद में यहाँ स्वर्ण दान किए
थे। कहा जाता है कि श्रीकृष्ण-बलराम ने कंस का संहार करने के
बाद यहीं विश्राम लिया था। चैत
सुदी छठ को श्री यमुनाजी का जन्मोत्सव होता है तथा
यमद्वितीया के दिन लाखों यात्री दूर-दूर
से आकर यहाँ स्नान करते हैं। कहा जाता है कि
अपने भाई यम से श्री यमुना महारानी ने इसी दिन
तिलक करके वरदान लिया था कि जो
भाई-बहिन इस दिन यहाँ स्नान
करेंगे, वह यमलोक गमन नहीं
करेंगे। इस घाट पर स्नान करने के
बाद भाई अपनी बहन को उपहार
स्वरुप वस्रादी भेंट करते है।
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सती बुर्ज
सन् १५७० ई. में राजा भगवानदास ने इस
बुर्ज का उस स्थान पर निर्माण कराया था, जहाँ
उनकी माँ राजा बिहारीमल की रानी
सती हुई थीं। ५५ फीट ऊँचा यह चौखण्ड
बुर्ज लाल पत्थर का बना विश्राम घाट के पास है।
शिवताल
बनारस के राजा पटनीमल ने मथुरा के कई
मन्दिरों का निर्माण और जीर्णोद्धार कराया था। कहते हे कि उस नगर की जल की आवश्यकता की पूर्ति हेतु इस
सुन्दर तालाब का निर्माण कराया और इसके पास
शिव मन्दिर भी बनवाया था। यह
विशाल ताल पक्का एवं काफी गहरा है परन्तु आज यह उपेक्षित अवस्था
में पड़ा है।
जैन-चौरासी
जैन-चौरासी मन्दिर का स्थल अति प्राचीन है। कहा जाता है कि जैन गुरु जम्बू
स्वामी ने यहाँ तपस्या की थी। इस स्थान पर प्रतिवर्ष जैन
मेला लगता है। जैन यात्री सदैव दर्शनार्थ आते रहते हैं।
मथुरा के विविध स्थानों पर खुदाई
से जैन काल के अनेकों अवशेष प्राप्त हुए हैं।
पुरातत्व
संग्रहालय
मथुरा का राजकीय संग्रहालय देश
में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता हैं। यहाँ कुषाण कालीन
अनेक महत्वपूर्ण अवशेष संग्रहीत हैं। यहाँ हिन्दू,
बौद्ध एवं जैन धर्म की अनेक मूर्तियाँ है। इनमें अधिकांश
मूर्तियाँ ४थी ई. पूर्व से लेकर १२वीं ई.
शताब्दी तक की है। श्री कृष्ण जन्म स्थान एवं कंकाली टीले से खुदाई
में प्राप्त अनेकों प्राचीन अवशेष यहाँ पर
सुरक्षित हैं।
पोतरा कुण्ड
श्रीकृष्ण जन्मभूमि के पीछे पोतरा कुण्ड नामक एक प्राचीन
विशाल तथा गहरा कुण्ड है जिसके बारे
में कहा गया है कि यहाँ श्री कृष्ण के जन्म के
समय उनके वस्र उप-वस्रों को धोया गया था। कुछ
भी हो, यह कुण्ड वास्तव में बहुत ही महत्वपूर्ण है। हो
सकता है, इसके जल से नगर की जलापूर्ति होती हो। यह कुण्ड इस
समय सूखा पड़ा है। इसका जीणोद्धार कुछ
समय पहले ही हुआ है।
वृन्दावन धाम
मथुरा से १२ किलोमीटर की दूरी पर
उत्तर-पश्चिम में यमुना तट पर वृन्दावन २७०३३'
उत्तरी अकांश एवं ७७०४१' पूर्वी देशान्तर पर स्थित है।
वृन्दावन का नाम जिह्मवा पर आते ही
मन पुलकित हो उठता है। योगेश्वर
श्री कृष्ण की मनोहारी मूर्ति आँखों के
सामने आ जाती है। उनकी दिव्य आलौकिक
लीलाओं की कल्पना मात्र से ही मन भक्ति-भावना तथा
श्रद्धा से नतमस्तक हो जाता है।
वृन्दावन ब्रज का हृदय है जहाँ श्री राधाकृष्ण ने अपनी दिव्य
लीलाएँ की हैं। इस पावन भूमि को पृथ्वी का अति
उत्तम तथा परम गुप्त भाग कहा गया है। पद्म पुराण
में इसे भगवान का साक्षात् शरीर, पूर्ण
ब्रह्म से सम्पर्क का स्थान तथा सुख का आश्रय
बताया गया है। इसी कारण यह अनादि काल
से भक्तजनों का श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है। चैतन्य महाप्रभु
स्वामी हरिदास, श्रीहित हरिवंश महाप्रभु
बल्लभाचार्य आदि अनेक गोस्वामी महान आत्माओं का इसके
बैभव को सजाने व निखारने और धर्म परायण
भक्तों के लिए संसार की एक अनश्वर सम्पति के
रुप में प्रस्तुत करने में सर्व लगा है। यहाँ आनन्द कन्द
युगल किशोर श्रीकृष्ण एवं श्रीराधा की
अद्भुत नित्य विहार लीला होता रहता है।
वृन्दावन की प्राकृतिक छटा देखने योग्य है।
यमुना जी इसको तीन ओर से घेरे हुए है।यहाँ के
सघन कुञ्ञों में भाँति-भाँति के पुष्पों
से शोभित लता तथा ऊँचे-ऊँते घने
वृक्ष मन में उल्लास भरते हैं। बसंत ॠतु के आगमन पर तो यहाँ की छटा और
सावन-भादों की हरियाली आँखों को जो
शीतलता प्रदान करती है, वह श्रीराधा-माधव के प्रतिबिम्बों के दर्शनों का ही प्रतिफल है।
इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि वृन्दावन का कण-कण
रसमय है। यहाँ प्रेम-भक्ति का ही साम्राज्य है। इसे गोलोक धाम
से अधिक बढ़कर माना गया है। यही कारण है कि हज़ारों धर्म-परायण जन यहाँ अपने-अपने कामों
से अवकाश प्राप्त कर अपने शेष जीवन को
बिताने के लिए अपने निवास स्थान यहाँ
बनाकर रहते हैं। वे नित्य प्रति रास
लीलाओं, साधु-संगतों, हरिनाम संकीर्तन,
भागवत आदि ग्रन्थों के होने वाले पाठों
में सम्मिलित होकर धर्म-लाभ करते हैं।
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