शूरसेन या मथुरा मंडल जिसमें श्रीकृष्ण के लीला स्थल विशेष रुप से सम्मिलित है, भक्तिकाल में ब्रज प्रदेश के रुप में प्रसिद्ध हुआ। पुराणकाल में यह क्षेत्र मथुरा मंडल तथा विभिन्न ग्रंथों में शूरसेन जनपद के रुप में विख्यात रहा था। वर्तमान ब्रज क्षेत्र पर यदि ऐतिहासिक संदर्भ में विचार किया जाए तो यह क्षेत्र भी कभी एक सुरम्य वन प्रदेश था, जहाँ प्रमुख रुप से आभीर निवास करते थे। मथुरा राज्य के आदि संस्थापक मधु ने हरिवंश पुराण में स्वयं कहा है कि मेरे राज्य में चारों ओर आभीरों की बस्ती है।
इतिहास से यह स्पष्ट हो जाता है कि आभीर जाति आर्यों से इतर थी और उनकी संस्कृति बहुत समृद्ध थी तथा आर्यों की संस्कृति से उसमें काफी असमानता थी। आभीरों में स्री-स्वातंत्र्य आर्यों की अपेक्षा अधिक था, वे नृत्य-गान में परम प्रवीण और दो वेणी धारण करने वाली थीं। 'हल्लीश' या 'हल्लीसक नृत्य' इन आभीरों की सामाजिक नृत्य था, जिसमें आभीर नारियाँ अपनी रुचि के किसी भी पुरुष के साथ समूह बनाकर मंडलाकार नाचती थीं। हरिवंश पुराण के हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय में उल्लेख है- कृष्ण की इंद्र पर विजय के उपरांत आभीर रमणियों ने उनके साथ नृत्य करने का प्रस्ताव किया। भाई या पति व अन्य आभीरों के रोकने पर भी वे नहीं रुकीं और कृष्ण को खोजने लगीं-
ता वार्यमाणा: पतिमि भ्रातृभिर्मातृमिस्तथा।
कृष्ण गोपांगना रात्रो मृगयन्ते रातेप्रिया:।।
- हरिवंश, हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय, श्लोक २४
आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था। नृत्य का स्वरुप स्पष्ट करते हुए नाट्यशास्र का टीका में अभिनव गुप्त ने कहा है-
मंडले च यत स्रीणां, नृत्यं हल्लीसकंतु तत्।
नेता तत्र भवदेको, गोपस्रीणां यथा हरि:।।
इसी नृत्य को श्री कृष्ण ने अपनी कला से सजाया तब वह रास ने नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ। इस नृत्य को सुकरता व नागरता प्रदान करने के कारण ही आज तक श्रीकृष्ण 'नटनागर' की उपाधि से विभूषित किए जाते हैं। द्वारका के राज दरबार में प्रतिष्ठित हो जाने के उपरान्त द्वारका आकर उषा ने इस नृत्य में मधुर भाव-भंगिमाओं को विशेष रुप से जोड़ा व इसे स्री-समाज को सिखाया और देश देशांतरों में इसे लोकप्रिय बनाया। सारंगदेव ने अपने 'संगीत-रत्नाकर' में इस तथ्य की पुष्टि की है। वह लिखते है-
पार्वतीत्वनु शास्रिस्म, लास्यं वाणात्मामुवाम्।
तथा द्वारावती गोप्यस्तामि सोराष्योषित:।।७।।
तामिस्तु शिक्षितानार्यो नाना जनपदास्पदा:।
एवं परम्यराप्राहामेतलोके प्रतिष्ठितम्।।८।।
इस प्रकार रास की परम्परा ब्रज में जन्मी तथा द्वारका से यह पूरे देश में फैली। जैन धर्म में रास की विशेष रुप से प्रचार हुआ और उसे मन्दिरों में भी किया जाने लगा, क्योंकि जैनियों के २३वे तीर्थकर भगवान नेमिनाथ भी द्वारका के ही मदुवंशी थे। उन्हें प्रसन्न करने का रास जैन धर्म में भी एक प्रधान साधन माना गया था, परन्तु बाद में अश्लीलता बढ़ जाने के कारण जैन मुनियों ने इस पर रोक लगा दी थी।
ब्रज का रास भारत के प्राचीनतम नृत्यों में अग्रगण्य है। अत: भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्र में रास को रासक नाम से उप-रुपकों में रखकर इसके तीन रुपों का उल्लेख किया है- मंडल रासक, ताल रासक, दंडक रासक या लकुट रासक। देश में आज जितने भी नृत्य रुप विद्यमान हैं, उन पर रास का प्रभाव किसी-न-किसी रुप में पड़ा है। गुजरात का 'गरबा', राजस्थान का 'डांडिया' आदि नृत्य, मणिपुर का रास-नृत्य तथा संत ज्ञानदेव के द्वारा स्थापित 'अंकिया नाट' तो पूरी तरह रास से ही प्रभावित नृत्य व नाट्य रुप है।
वर्तमान रास-नृत्य
ब्रज में आज जो नृत्य प्रचलित हैं, उन्हें दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- मंच पर प्रस्तुत किए जाने वाले नृत्य तथा लोक जीवन में विभिन्न अवसरों पर किए जाने वाले नृत्य। यहाँ पहले मंचीय नृत्यों की चर्चा कर रहे हैं। वर्तमान रास मंच को भक्ति युग में पुनर्गठित किया गया और इस काम में बल्लभ नामक नर्तक का प्रमुख योगदान था। वह वल्लभ नर्तक ब्रज के संत श्री नारायण मट्टजी का सहयोग था और उन्हीं की प्रेरणा से उसने इन रास के नृत्यों को नवीन रस दिया था। वल्लभ-नर्तक का पूरा नाम ब्रज वल्लभ था, जो जयपुर राज दरबार से संबंधित था और वहाँ से अवकाश लेकर ब्रज में आ बसा था। उसने श्री नारायण भट्टजी के सहयोग से वर्तमान रास-नृत्यों को गढ़ था। वह स्वयं भी रास में नृत्य करता था और इन नृत्यों का निर्देशक भी था। वल्लभ ने रास के नृत्यों का जो रुप दिया, वही परम्परा रास में आज भी चली आ रही है।
कत्थक नृत्य और रास
वर्तमान रास-नृत्य, कत्थक-नृत्य से प्रभावित कहे जा सकते है परन्तु हमारे विचार से यह कत्थक से संबंधित होते हुए भी स्वतंत्र है। इसका कारण शायद यह रहा कि प्राची परम्परा का प्रभाव इन नृत्यों पर भक्ति युग में भी बना रहा होगा और उसी को वल्लभ ने अपना आधार बनाया होगा। रास के प्राचीन नृत्यों में चर्चरी का उल्लेख हुआ है। यह चर्चरी नृत्य रास में आज से लगभग चालीस-पचास साल पहले तक होता रहा है, परन्तु अब लुप्त हो गया है। रास-नृत्य में धिलांग का भी उपयोग है जो बहुत ही प्रभावशाली और अनूठा है। यह कथक या किसी अन्य नृत्य-शैली में नहीं मिलता। इसी प्रकार श्री कृष्ण रास में जो घुटनों का नाच नाचते है वह भी बेजोड़ है। भरत नाट्य की भ्रमरी से उसकी तुलना हो सकती है, परन्तु उसमें वह आकर्षण नहीं, जो रास के घुटनों के नाच में है। साथ ही रास की मुद्राएँ भी सहज, साफ और सपाट हैं, जबकि कत्थक में सुन्दरता लाने के लिए उनमें सजावट के लिए जोड़-तोड़ किए गए है। इस प्रकार रास-नृत्य को कथक मूल रुप का प्रतिनिधि अथवा उसका जनक तो माना जा सकता है, परन्तु रास-नृत्य में कत्थक से काफी भिन्नता है। रास के नृत्य धमार ताल में है जबकि कत्थक की मुख्य ताल प्राय: त्रिताल है।
जैसा पहले कह चुके है, नटनागर भगवान कृष्ण रास-नृत्यों के आदि जनक हैं और उनके कलात्मक व्यक्तित्व की गहरी छाप सभी नृत्यों पर है। भरत नाट्य के प्रारंभकर्ता अर्जुन माने जाते हैं, जो श्री कृष्ण के अनन्य सखा थे। ऐसी दशा में भरत नाट्य में उनके व्यक्तित्व का प्रभाव अवश्य ही पड़ा होगा।
वर्तमान रास-नृत्य के दो रुप है- पहरा रुप जिसे नित्यरास कहते है, प्रारम्भ में नाचा जाता है, रास के दूसरे भाग में जब श्री कृष्ण की कोई लीला अभिनीत की जाती है तो उसमें ब्रज के विभिन्न लोकनृत्यों का भी समावेश कर दिया जाता है।
नरसिंह नृत्य
ब्रज में एक ओर नृत्य परम्परा नरसिंह
लीला के नाम से प्रसिद्ध है। यह लीला नरसिंह चतुर्दशी की
रात को मथुरा और वृन्दावन के कई
मुहल्ले में आयोजित होती है। नरसिंह
लीला नृत्य प्रधान होती है, जिसमें कोई नाटक
या संवाद नहीं होता। जिन मुहल्लों
में यह लीला होती हैं, वहाँ की गली का ही
मंच के रुप में प्रयोग होता है। गली के दो छोरों पर दो तखत डाल दिए जाते हों और पहले तखत
से दूसरे तखत तक लगभग डेढ़ फलार्ंग की
लम्बाई में सज्जित पात्र नृत्य करते हुए चक्कर
लगाते है। नृत्य करने वाले पात्रों की
संगत एक सामूहिक वाद्यवृंद द्वारा की जाती है जो नर्तक के
साथ ही वाद्य बजाते हुए उसके पीछे चलते हैं। इस नृत्य
में कई जोड़ी बड़े झांझ समवेत स्वर
में बजाए जाते हैं।
इस नरसिंह नृत्य में लवणासुर, शत्रुघ्न, हरण्याक्ष, वाराह,
ब्रह्मा, महादेव आदि देवता क्रमश: आकर गली
में एक छोर से दूसरे छोर तक एक-एक करके नृत्य करते है और चले जाते हैं। यह क्रम थोड़े-थोड़े विराम से पूरी
रात्रि चलता है। प्रात:काल सूर्योदय
से पूर्व लंबे-लंबे केशपाशों को
बिखेरे हुए भारी मुखौटा लगाए ताड़का का पात्र नृत्य करता है।
बाद में पीले वस्रों में माला लिए बालक प्रह्मलाद अपने
सखाओं के साथ आकर नृत्य करते हैं। इसके उपरांत
सूर्योदय हो जाने पर लगभग ८ बजे तखत पर कागज का
बना एक विशालकाय पोला खंभ खड़ा कर दिया जाता है, जिस पर हिरण्यकश्यप तलवार चलाता है। ऐसा करते ही उसे
फाड़कर उसमें से नरसिंह भगवान भयंकर
मुद्रा में नृत्य करते हुए प्रकट होता है। यह नरसिंह
वेशभूषा और अपनी नृत्य मुद्राओं से
रौद्र-रस को सकार करते हुए अपनी
फेरी पूरी करते हैं। नृत्य समाप्त करने के उपरान्त
श्री नरसिंह हिरण्यकश्यप को पकड़कर उसे अपनी जांघो पर
लिटाते है और इसके उपरांत उनकी आरती होती है। प्रह्मलाद
उनकी गोद में बैठता है और यह लीला
समाप्त होती है।
यह लीला मथुरा, वृंदावन में कब
से होती है? कुछ कहा नही जा सकता। परन्तु यह परम्परा बहुत प्राचीन है। पुराणों
में मथुरा प्रदेश को वाराह मंडल कहा गया है।
अत: वाराह और हिरण्याक्ष का नृत्य
स्वयं इस लीला की प्राचीनता का द्योतक है। इतिहास
से ज्ञात होता है कि मथुरा नगरी मधु द्वारा
बसाई गई थी और उसके अत्याचारी पुत्र
लवण को भगवान श्री राम के छोटे
भाई शत्रुघ्न ने मारकर इस नगर को पुन: स्थापित किया था और यहाँ अपनी
राजधानी बनाई थी। ऐसी दशा में जब नरसिंह
लीला में लवण और शत्रुघ्न एक दूसरे के
बाद नृत्य करते है, तब इस लीला की प्राचीनता
स्वयं ही सिद्ध हो जाती है।
नरसिंह लीला के यह नृत्य दक्षिण की कथकलीं नृत्य
शैली से बहुत साम्य रखते है। इन नृत्यों की गति पग-संचालन तथा नृत्य के
साथ बजने वाले बड़े-बड़े झांझों का तुमुल घोष जहाँ कथकली
से साम्य रखता है, वहीं भगवान नरसिंह का
मुखौटा कथकली के मुखौटों से भी कहीं अधिक
विशाल और भयंकर होता है। इस
मुखौटे को धारण करने के लिए पात्र के
मुख पर पहले चारों ओर कपड़ों के कई थान
लपेटे जाते हैं, जब वह इसे धारण कर पाता है। यह इतना
भारी होता है कि नृत्य करते हुए श्री नरसिंह को
साधने के लिए दो व्यक्ति उनकी कमर के इधर-उधर झुकते हुए उन्हें
साधकर नृत्य कराते है तथा कुछ व्यक्ति हाथ
में पंखे लिए मुखमंडल पर वायु का
संचार करते रहते हैं। नरसिंह का
स्वरुप और नृत्य इतना रौद्र-रसपूर्ण होता है कि छोटे
बच्चे तो डरकर भाग जाते है या आँखें
मींच लेते हैं।
यह नरसिंह लीला एक धार्मिक अनुष्ठान के
रस में होती है। श्री नरसिंह का मुखौटा जिसे नरसिंह
लीला में धारण कराया जाता है,
मुहल्ले के किसी मन्दिर या पवित्र स्थान पर पूरे वर्ष विराजित रहता है और उसकी
मूर्ति के समान ही पूजा जाता है और
भोग लगाया जाता है। नरसिंह लीला
से पहले इस मुखौटे का विशेष रुप
से पूजन होता है और हलुआ का प्रसाद पूरे
मुहल्ले में बाँटा जाता है, जिससे
सभी को नरसिंह लीला के आयोजन की
सूचना भी मिल जाती है और व्यापक
रुप से लीला की तैयारी होने लग जाती है। इस प्रकार नरसिंह नृत्य अपने आप
में एक विशिष्ट परम्परा संजोए हुए है।
चुरकुला नृत्य
होली ब्रज क्षेत्र का एक विशेष पर्व है, जिसमें
फागुन का उल्लास गायन के रुप में पूरे
ब्रज में एक नई उमंग पैदा कर देता है। इस अवसर पर पूरे
ब्रज में अनेक स्थलों पर नृत्य-गायन के विभिन्न समारोह होते हैं परन्तु इन नृत्यों
में चुरकुला नृत्य सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध है। यह नृत्य ऊमरु, खेमरी,
सोंख, मुखराई आदि कुछ खास गाँवों
में होता है जिसे देखने के लिए दूर-दूर
से दर्शक उमड़ पड़ते हैं। इस नृत्य के
लिए हर गाँवों में होली के आस-पास की तिथि परम्परा
से निश्चित हैं, जिनमें गाँव के किसी
विशाल प्रांगण में यह नृत्य महिलाओं द्वारा किया जाता है। कोई एक
महिला अपने मस्तक पर लोहे अथवा काष्ठ का
बना एक लंबा, गोल, चक्राकार मंडल जिस पर एक
सौ आठ जलते दीपकों की जगमग होती है, अपने सिर पर धारण करती है। उसके दोनों हाथों पर दो चमचमाते हुए
लोटों पर भी दो दीपक रखे जाते है। इस प्रकार सिर पर कई पंक्तियों
में जलते हुए मंडलाकार दीपों का चुरकुला तथा दोनों हाथों
में दीपकों के चक्करदार लहंगा-ओढ़नी
में सुसज्जित यह ग्राम वधू नृत्य करती है, तब उसकी
संगत गाँव के गायक और वादक बंब
(एक बहुत बड़ा नगाड़ा जिसके पहिये पर खींचकर चलाया जाता है और डंडों
से पीटकर सामूहिक रुप से बजाया जाता है। झांझ, चीमटा आदि
से नृत्य की संगत करते है और साखी की
होली गाते हैं। रात्रि के अंधकार में
मस्तक के ऊपर रखी हुई दीपमाला के प्रकाश
में रंगीन परम्परागत वेशभूषा में थिरकती हुई यह ग्राम
वधू अविस्मरणीय व चमात्कारिक वातावरण का निर्माण करती है। काफी
समय नाचने के बाद यह चुरकुला एक स्री
से दूसरी स्री के सिर पर भी चला जाता हो। इस नृत्य की तैयारी गाँवों
में काफी समय पहले से की जाती है। नृत्य करने
वाली महिलाओं को महीनों पहले
से दूध-घी खिलाकर चुरकुला उठाने के
लिए सशक्त किया जाता है।
होली नृत्य
होली ब्रज का ऐसा रंग-रंगीला त्यौहार है जो
संपूर्ण वातावरण को ही नृत्य-संगीतमय कर देता है।
मथुरा में इस अवसर पर चतुर्वेदी
वसनाठ्य ब्राह्मणों में तान की चौपाई निकालने की परम्परा रही है। यह ताने प्रति वर्ष कवियों द्वारा
रची जाती है जिनमें शास्रीय संगीत व
लोक संगीत का अपूर्व सम्मिश्रण रहता है तथा
उनमें स्थानीय चुहल भी रहती है। वह ताने
लोकनृत्य के साथ नव युवकों द्वारा
होली के दिनों में सामूहिक रुप से नृत्य के
साथ गाई जाती हैं। गाँवों में काष्ठ के पहियों के
फ्रेम पर बड़े-बड़े बंबों को रखकर नाचते-गाते
होली के जुलूस निकाले जाते हैं। इन नृत्यों के
साथ साखी गाने की परम्परा हैं। यह
साखी कभी-कभी प्रश्नोत्तरों में भी होती है, जैसे "विंद्रावन आधार कमल पै।
यों मति जाने प्यारे अधर धरौ है,
ये तौ शेषनाग के फन पै।"
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