बुंदेलखंड संस्कृति |
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बुंदेलखंड का वैभव एक झलक
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बुंदेलखंड
विन्ध्याचल की उपव्यकाओं का प्रदेश है।
इस गिरी की अनेक ऊँची नीची शाखाऐं
- प्रशाखाऐं हैं। इसके दक्षिण भाग में मेकल,
पूर्व में कैमोर, उत्तर-पूर्व में केंजुआ,
मध्य में सारंग और पन्ना तथा पश्चिम
में भीमटोर और पीर जैसी गिरी
शिखाऐं हैं। यह खंड लहरियाँ लेती
हुई ताल-तलैयों, घहर-घहर कर
बहने वाले नाले और चौड़े पाट के
साथ उज्जवल रेत पर अथवा दुर्गम गिरि-मालाओं
को चीर कर भैरव निनाद करते हुए
बहने वाली नदियों का खंड है। सिंध
(काली सिंध), बेतवा, धसान, केन तथा
नर्मदा इस भाग की मुख्य नदियाँ
हैं। इनमें प्रथम चार नदियों का प्रवाह
उत्तर की ओर और नर्मदा का प्रवाह पूर्व
में पश्चिम की ओर है। प्रथम चार नदियाँ
यमुना में मिल जाती हैं। नर्मदा पश्चिम
सागर (अरब सागर) से मिलती हैं।
इस क्षेत्र में प्रकृति ने विस्तार लेकर
अपना सौन्दर्य छिटकाया है।
बुंदेलखंड लोहा, सोना, चाँदी,
शीशा, हीरा, पन्ना आदि से समृद्ध है।
इसके अलावा यहाँ चूना का पत्थर भी
प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। विन्धय
पर्वत पर पाई जाने वाली चट्टानों
के नाम उसके आसपास के स्थान के नामों
से प्रसिद्ध है जैसे - माण्डेर का चूना
का पत्थर, गन्नौर गढ़ की चीपें, रीवा और
पन्ना के चूने का पत्थर, विजयगढ़ की चीपें
इत्यादि। जबलपुर के आसपास पाया
जाने वाला गोरा पत्थर भी काफी प्रसिद्ध
है।
इस प्रांत की भूमि भोजन की फसलों
के अतिरिक्त फल, तम्बाकू और पपीते की
खेती के लिए अच्छी समझी जाती है।
यहाँ के वनों में सरई, सागोन,
महुआ, चार, हरी, बहेरा, आँवला, घटहर,
खैर, धुबैन, महलौन, पाकर, बबूल,
करौंदा, सेमर आदि के वृक्ष अधिक
होते हैं।
बुंदेलखंड में ग्रामों की संख्या
अधिक है। उनके नाम वृक्षों, जलाशयों,
पशुओं, पक्षियों, घास-पात अथवा स्थान
विशेष के निकट होने वाली कोई
ध्वनि विशेष के आधार पर रखे गये
प्रतीत होते हैं। चूँकि इस भाग में
वृक्षों की अधिकता है और जलाशय भी
अनेक हैं, अत: अधिकांश नाम इन्हीं से
ही सम्बन्ध रखते हैं। वृक्षों में विशेषकर
पीपल, आम, जामुन, ऊमर, इमली, बेल,
बेर, महुआ, चार और हरदू पर
बहुत से नाम हैं। केवल जबलपुर
जिसमें प्राय: ५० गाँव पिपरिया, पिपरहटा
नाम के हैं। इसी प्रकार अनेक जमुनियां,
उमेरिया, इमलई अथवा इसनिया
हैं। इबरी,
कुआ, सागर, झीरिया आदि नाम जलाशयों
पर आधारित हैं। जलाशय सूचक नामों
से साथ कहीं-कहीं वृक्षों के नाम संयुक्ति
होकर ग्राम नाम बन गये हैं। जैसे
सेमरताल, आमानरो।
पशुओं के नाम से भी कई गाँव
के नाम पड़े हैं जैसे रीछ से रीछई
या रीछाई, हिरन से हिरनपुरी।
वृक्षों से नाम स्थान पर कई गाँवों
के नामक पशुओं और जलाशयों के नाम
को भी मिला कर बने हैं जैसे - बाघडबरी,
हाथीसरा, गिधौटा, मगरमुहा, झींगुरी
।
उपयुक्त ग्राम-नाम-परिचय से ज्ञात
होता है कि ग्रामों के बड़े विचित्र नाम
रखे गये हैं जो कभी कभी हास्यपद
भी लगता है। पास-पास बसे हुए गाँवों
के बीच की दूरी नाक-कान के बीच की
दूरी अर्थात थोड़ी ही बताते हुए किसी
लोक कवि ने कहा है -
वास्तुकला:
बुंदेलखंड
के बीते वैभव की झलक हमें आज उक्त
भूमि पर छिटकी हुई पाषाण काल
से प्राप्त होती है। इस भूमि पर इस
कला ने कितना आदर पाया और उसका
कितना विकास हुआ, यह बात पुरातत्व-विशेषज्ञों
से छिपी नही है। यो प्रागैतिहासिक
काल कि आदिवासियों द्वारा पूजी जाने
वाली मूर्तियाँ भी बुंदेलखंड से प्राप्त
होती हैं। कला की दृष्टि से इनका मूल्य
अधिक नहीं है, किंतु मूर्तिकला के आदि
रुप का इनसे अच्छा ज्ञान होता है। ये
मूर्तियाँ बहुत मायने रखती हैं और
अमूल्य हैं।
बुंदेलखंड के विभिन्न स्थानों में
सुर्ख रंग की चित्रकारी भी मिलती
है। उसका रंग इतना पक्का है कि अब तक
वह किसी प्रकार भूमि धूमिल नही
हो पाया। इनमें मनुष्यों और घोड़ों
के भद्दे चित्र हैं। इतिहासज्ञ इस चित्रकारी
को पूर्व ऐतिहासिक काल की बतलाते
हैं। करबी तहसील के कल्याणपुर ग्राम
में मानिकपुर के निकट सारहट के जंगल
और कठौता में शाहगढ़ और देवरा
के निकट (बिजावर) पिपरियां में फतहपुर
(हता-दमोह) में ऐसी लाल रंग की चित्रकारी
बहुत है।
देवरा के निकट शिला-भित्तियों
पर गैरिक रंग के बने हुए चित्र मानव
प्रकृतिकी आदिम अनुभूतियों के साक्षी
हैं। इन चित्रों में पशुओं का प्रदर्शन
किया गया है। निकट ही आखेटिक अवस्था
में मानव-चित्र भी हैं।
जहाँ तक रामायण तथा
महाभारत के स्वर्ण युगों की कला-कृतियों
का संबंध है, बुंदेलखंड की क्या सारे
भारत में वे नहीं के बराबर है। उक्त
ग्रंथों द्वारा ही हमें उनकी कला का ज्ञान
होता है। महाभारत युग में
महाराज युधिष्ठिर के सभा-भवन का
निर्माण जिस कुशलता से दानव आदि
कलाकारों ने किया था, उसका वर्णन ग्रंथों
में ही सीमित है। काव्य कला द्वारा
ही उसका आनन्द लिया जा सकता है। इन
दोनो युगों में बुंदेलखंड के अधिकांश
भाग में असभ्य जातियों का विस्तार था।
अत: किसी प्रकार की कला का विकास न
हो पाया।
नागौढ़, जबलपुर, और महौबा
आदि कुछ स्थानों में बौद्ध युग की मूर्तिकला
कहीं कहीं मिलती है। शिलालेख भी प्राप्त
हुए हैं। सम्राट अशोक ने इस प्रांत पर
भी अपना अधिकार स्थापित किया था और
धर्म प्रचार हेतु शिलालेखों पर धर्म
प्रशस्तियाँ उत्तकीर्ण कराईं थी। धर्म से
सदा ---
तृतीय शताब्दी से तेहरवीं शताब्दी
तक इस प्रांत में उस स्थापत्य कला का सृजन
हुआ जो कलिं और खजुराहों की
कृत्तियों में जीवन्त रुप में आज भी वर्तमान
हैं। कलिं का कला चंदेली काल की
है। खजुराहो की उससे भी पहले की
है, क्योंकि चीनी यात्री (जो कि
हर्षवर्धन के राज्य-काल में आया था)
ह्येनसांग ने भी खजुराहो में मंदिर
का होना लिखा है। कदाचित चंदेलों
ने उन पुरातन मन्दिरों का जीर्णोद्धार
करा कर प्रशस्तियां अंकित रहाई
होंगी। खजुराहो का विशाल मन्दिर,
देवगढ़ की विष्णुमूर्ति, दतिया का पुराना
महल, पन्ना का बृहस्पति कुण्ड, जतारा
का मदनसागर आदि वास्तुकला के सवाल
प्रमाण है। अजयगढ़, बरुआ सागर, तालबेहट,
करैरा आदि में भी कला की प्रचुरता
है।
खजुराहो में बीस मन्दिरों के
समूह कविकल्पना को मानो मूर्तिमती
करके पृथ्वी पर उतार लाया है। शिल्पी
का स्वप्न मानो साकार हो गया है।
अपने विशाल मंडपों, अंतरालों, आमलक
शिखर अनुशिखर और स्तूपिका से सज्जित
ऊँची मीनारों और अपनी असंख्य अनुपम
शिलाकृतियों से विभूषित यह मन्दिर
समूह आज अनगिन को अपने दर्शन का आमंत्रण
देने लगा है। मन्दिर के बाहर और
भीतर दोनों ओर की दीवारों देवताओं,
अप्सराओं, संदरियों, विद्याधरों, युगल-मिथुनों,
गज और शार्दूलों की सुन्दर कला-कृतियों
से सजाई गई हैं। खजुराहों के
शिल्पी अनुपम कृतित्व हैं, उसकी नारी
प्रतिमाएं इतनी सुंदर हैं, उन्हें देख कर
ऐसा लगता है मानो जड़ में चेतन अपने
सम्पूर्ण वैभव के साथ जाग उठा हो।
इतना सम्मोहन है कि पाषाण में जीवन
सपंदन का भ्रम होने लगता है।
खजुराहो के शिल्पियों ने नारी
के जीवन और भाव के प्रत्येक रुप का
अंकन किया है। कबी शालमंजिक के रुप
में तो कभी अपने प्रेमी के साथ काम-क्रीड़ा
तथा भोगविलास करते, सखियों के
साथ हास, परिहास और वार्तालाप
करते, बच्चों को स्तनपान कराते, श्रृंगार
करते, सोते, उठते-बैठते, प्रत्येक स्थिती
में तन्मय और भाव-विभोर होकर।
विशाल अर्ध निमिलित नेत्र, उन्नत उरोज,
भारी नितम्ब, अनेक टेढ़ी-मेढ़ी भंगिमाओं,
भरे अधरों पर तैरती तरल हँसी अथवा
मुस्कुराहट में प्रेम का मौन निमंत्रण
नारी-मूर्ति-शिल्प की विशेषता है।
नागौढ़ के निकट मुमरा ग्राम का
शिव मंदिर तथा नचना ग्राम (अजयगढ़)
के समीप चौमुखनाथ का मन्दिर दोनों
अपने ढंग के हैं। इतिहासकारों का मत
है कि इन्हें नागवंशीय शैव शासकों
ने बनवाया था। नचना का शिवालय नागकालीन
स्थापत्य का अद्भुत उदाहरण है। उसमे
शिव-पार्वती को शिखरों पर कैलाश
पर्वत पर का दृश्य अंकित किया गया
है। कुछ लोग मुमरा और नचना के
मन्दिरों की गणना गुप्तकालीन स्थापत्य
कला में किया करते हैं। इन मंदिरों
के दरवाजों पर विचित्र कलायुक्त तोरण
उत्कीर्ण हैं। जबलपुर जिले में तिगवां
ग्राम में गुप्तकालीन सुंदर विष्णु मंदिर
हैं।
सागर जिले में अनेक स्थानों पर
भी ऐसी कला का क्षेत्र है। बीना के आस
पास तो इसके भंडार हैं, विशेष कर
एरन ग्राम के निकट हूण राज्य काल में
बुन्देलखण्ड की राजधानी थी।
जबलपुर के पास लगभग आठ मील
पश्चिम की ओर तेवर (त्रिपुरी) नामक
ग्राम है। इसके आस-पास देवालयों
और खण्डहरों के अवशिष्ट पाये जाते
हैं, जिनमें उक्त स्थान के बीते वैभव की
झलक मिलती है। यहां अनेक मूर्तियाँ
पाई जाती हैं, जिनमें वज्रपाणि, भगवान
बुद्ध और जैन तीथर्ंकर ही विशेष
हैं। तेवर की प्राचीनता हमें ईसा की
पहली शताब्दी में ले जाती है। तेवर
जिसे त्रिपुरी कहते हैं कलचुरियों
का प्राधान्य रहा है। किन्तु कुछ मूर्तियों
तथा एक प्राचीन बावली को छोड़ कर अन्य
कोई भाग्नावशेष नहीं बचा है। त्रिपुरी
से थोड़ी दूर कर्णबेल में कुछ प्राचीन
भाग्नावशेथ है। त्रिपरी
ही चेदी की राजधानी थी।
जबलपुर के पास ही गढ़ा ग्राम पुरातन
"गढ़ा मण्डलराज्य' के अवशेषों से पूर्ण
है। गढ़ा-मण्डला गौड़ों का राज्य था गौड़
राजा कलचुरियों के बाद हुए हैं।
जबलपुर के पास की कलचुरि वास्तुकला
का विस्तृत वर्णन अलेक्ज़ेन्डर कनिंहाम
ने अपनी रिपोर्ट (जिल्द ७) में किया
है। प्रसिद्ध अन्वेषक राखालदास बैनर्जी
ने बी इस विषय पर एक अत्यन्त गवेष्णापूर्ण
ग्रंथ लिखा है। भेड़घाट और नंदचंद
आदि गाँवो में भी अनेक कलापूर्ण स्मारक
हैं।
भेड़ाघाट में प्रसिद्द "चौंसठ योगिनी'
का मंदिर। इसका आकार गोल हैछ।
इसमे ८१ मूर्तियों के रखने के लिए खंड
बने हैं। यह १०वीं शताब्दी में बना
है। मन्दिर के भीतर बीच में अल्हण मन्दिर
है। इन सभी स्थानों में मन्दिरों और मूर्तियों में जिस प्रकार की कला पाई जाती है, उससे स्पष्ट होता है कि बुन्देलखंड वास्तव में कला-भूमि रहा है। मूर्तियों की मुखमुद्रा, शरीर की बनावट, वक्ष प्रदेश, कटि, अँगुलियाँ तता नासिका आदि की बनावट से उच्चकोटि की कला का परिचय मिलता है। अनेक स्थानों में प्राप्त मूर्तियों में तो इतनी दक्षता पाई जाती है कि शिल्पकार के छैनी-हथौड़े की सम्पूर्ण शक्ति उसमें चुक गई होती है। शरीर पर के रोम तक दर्शाये जा सके हैं। इतना ही नहीं पारदर्शक वस्र भी दर्शाये जा सके हैं।
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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र
Content prepared by Mr. Ajay Kumar
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