बुंदेलखंड संस्कृति

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वाकाटक और गुप्त युगीन बुंदेली समाज और संस्कृति

 

       वाकाटकों के पूर्व और मौर्यौं के बाद का बुंदेली समाज शुंग वंश, नागवंश, सातवाहन, विक्रमादित्य, शक, कुषाण, नवनाग आदि शासकों की अधीनता में रहा है। इस समय शासकों के बीच संघर्ष अधिक हुए हैं। इस युग गो आचार्य द्विवेदी ब्राह्मण साम्राज्य न मानकर हिन्दु संस्कृति का निर्माण युग मानते हैं जिसमें ब्राह्मण संघर्षशील तो हैं परंतु आपस में ही बौद्धों के प्रति प्रतिक्रिया कहीं नहीं थी। सामाजिक राजनीतिक क्षेत्र में अत्यंत उथल-पुथल थी। धर्मशास्र को नवीन रुप दिया गया (यह वस्तुत: संकट की व्यवस्था थी) पर परवर्ती स्मृतिकार उसे आगे न बढ़ा सके। विभिन्न शासकों के समाज तंत्र में समान्वित किया गया। पं० द्विवेदी लिखते हैं कि मान से या अपमान से यवन, शक, कुषाम सभी #ुस समाज तंत्र में खपा लिये गये। राजनीति में राजा की निरंकुशता का, उसके दैवी अधिकारों का जन्म भी इस युग से पहले ही हो गया था। इस युग में ब्राह्मण राज हो गया। परिणाम यह हुआ कि जब आगे दैवी अधिकार वाले सम्राटों का उत. हुआ तब राज्यपीठों से अपदस्थ हुए ब्राह्मणवंशों में पराजय, जन्य कुण्ठा एवं जन्म जात श्रेष्ठता की झूठी भावना घर कर गई और सम्राटों के दरबार के समान ही समाज में ऊँच-नीच एवं स्पृश्य-अस्पृश्य के भेद दिखाई दिये।

       वाकाटक काल में अपने-अपने वर्ण के अन्तर्गत विवाह की अनुमति थी परंतु कभी-कभी अनुलोभ विवाह भी होते थे। वाकाटक रुद्रसेन का विवाह प्रभावती गुप्तों से होना इसका प्रमाण है। इसी प्रकार ब्राह्मण क्षत्रिय विवाह का भी उल्लेख मिलता है। ब्राह्मणों में उपपद प्रसिद्ध थे पर कुल के नाम से प्रचलित न हुए थे। वाकाटकों के लेखों में ॠग्वेदी और सामवेदी ब्राह्मणों का उल्लेख कहीं नहीं है। वर्ण व्यवस्था का पालन नियमानुसाल था। वाकाटक काल में पत्थरों और कहीं-कहीं ईटों से मन्दिर बाँधने की पद्धति प्रचार में आने लगी थी। अजंता की गुफाओं से ज्ञात होता है कि तत्कालीन राजप्रसाद, घर और दूकान लकड़ी के होते थे। कालिदास के साहित्य में तत्कालीन सामाजिक परिवेस का परिचय मिलता है।

       वाकाटक काल में पौराणिक हिन्दु धर्म का भी अत्याधिक उत्कर्ष हुआ। उनके राज्य में सर्वत्र अनेक हिन्दु देवी के देवालयों का निर्माण हुआ। अधिकांश वाकाटक राजाओं के शैव होने के कारण अन्य देवो की अपेक्षा भगवान शिव के मंदिरों का निर्माण संख्या में हुआ होगा। साहित्य के क्षेत्र में संस्कृत और प्राकृत दोनो की रचनायें लिखी मिलती है। स्थापत्य की दृष्टि जबलपुर के पास बहरीबंध और तीगोवा के मंदिर को ध्यान में रखना आवश्यक है।

       वाकाटकों के समय में बुंदेलखंड में शिवोपासना के साथ विष्णुपूजा में तीव्रता आई। कृष्ण और राम विष्णु के अवतार के रुप में पूजे जाने लगे। परशुराम को भी विष्णु का अवतार माना जाने लगा। विष्णु और शिव के बीच अभिन्नता स्थापित की गई। यह हिन्दु संस्कृति के निर्माण का युग था जिसे पं० द्विवेदी ने शुंगों के काल से ही माना है। शुंगो के शासन काल में वैष्णव देवमन्दिरों का निर्माण हो रहा था और पश्चिमोत्तर सीमाओं के यवन भागवत धर्म मे दीक्षित हो रहे थे। इसके अतिरिक्तत टुमेन मे प्रस्तुत काल का एक विष्णु मंदिर प्राप्त हुआ है। जिसमें आजकल विन्ध्यवासिन देवी की मूर्ति लगा दी गई है। इसे वासुदेव की लीलाओं के अर्धचित्रों से अलंकृत किया गया है।

       बौद्ध धर्म में महायान शाखा का सूत्रपात हुआ और उसमें भी मूर्तिपूजा होने लगी। जैन धर्म का भी प्रचार हुआ। लक्ष्णीय बात यह है कि शैव और वैष्णव को राजचिन्हों में भी धारण किया गया।

       दामोदर धर्मानन्द कौसम्बी के अनुसार समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त को भी विजित किया तथा नौ नाग राजा को अपना चाकर बताया। प्रयाग प्रशस्ति में इसे विस्तार से कहा गया है। समुद्रगुप्त तसे हर्षकाल तक के समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीन उच्च वर्ग माने गए थे। शुद्रों की स्थिती में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। उत्तर कालीन हिन्दु धर्म में श्रेणियों और सामाजिक दलों के पारस्परिक संबंध संगोत्र विवाह-पद्धति, सहभोज के नियमों द्वारा शासित थे। ब्राह्मण क्षत्रिय स्पर्धा चालू रही। गुप्तवंश के शासन में समाज और धर्म की उन्नति के अनेक प्रयत्न हुए। विशुद्ध साहित्य के क्षेत्र में जो सर्वतोन्मुख उन्नति हुई उसका दर्शन हमें कलाओं में होता है। न केवल वास्तु तथा स्थापत्य कलाओं ही वरन् चित्रमाला, संगीत, लक्षणकला और मुद्रा निर्माम की कला का अभूतपूर्व विकास हुआ। ब्रह्मगुप्त, आर्यभ और वहाहमिहिर इस काल के प्रसिद्ध वैज्ञानिक, गणितज्ञ हैं। कालिदास का साहित्य एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इस युग में धार्मिक सहिष्णुता के साथ साथ एक राष्ट्रीय संस्कृति का विकसित होने का असर था। भारत धार्मिक क्षेत्र में ही नहीं सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर समन्वय की भावना विशेष थी। स्पष्ट है कि विवाह, खान-पान, संस्कारों आदि में निषेध कठोर नहीं हुए थे। अन्त्यज की दशा शुद्धों से भई बुरी थी। दास प्रथा का प्रचलन था। नारी की स्थिती में परिवर्तन आ ग गया था । गुप्तकालीन स्मृतिग्रंथों में वैदिक शिक्षा केवल उच्चकुलों की स्रियों तक सीमित हो गई थी, सती, पर्दा प्रथा का कहीं कहीं प्रचलन था। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार उन्नति में था। वाकाटक और गुप्तकाल मंदिरों के निर्माण का युग माना जाता है। फाहियान पाँचवीं शताब्दी में भारत आया था। उसने बौद्धधर्म, जैनधर्म की उन्नति का विवरण दिया है। इस प्रकार की सर्वतोन्मुखी उन्नति के कारण ही गुप्तकाल को इतिहास का स्वर्णयुग कहा जाता है।

       इसी समय के आसपास हूणों ने भारत के राजनीतिक जीवन में अत्याधिक अस्त व्यवस्तता प्रस्तुत की। गुप्त साम्राज्य को हूण आक्रमणों से प्रबल धक्का पहुँचा। कतिपय इतिहासकार हूणों के आक्रमण को गुप्त साम्राज्य के पतन का कारण भी मानते हैं। कालांतर में हूण लोग हिन्दू समाज में मिला लिये गये। अनेक विद्वानों का विचार है की इन्हीं हूणों से अनेक राजपूत वंश उत्पन्न हुये हैं। राजपूतों की इस विदेशी उत्पत्ति को बुंदेलखंड के संदर्भ में बिलकुल भी नही माना जा सकता क्योंकि बुंदेली समाज में शौर्य अवश्य है पर इसके साथ-साथ सदाशयता, राष्ट्रीयता और स्वाभिमान की भावना विशेष है।

       गुप्त साम्राजय के बाद हर्षवर्धन को भारतीय इतिहास तथा बुंदेलखंड दोनों में विशेष महत्व का माना गया है। बुंदेलखंड में हर्षवर्धन का शासनकाल अत्यंत महत्व का माना जाता है। उसने हूणों के आक्रमण को विफल किया था। हूणों का मुखिया तोरमण था उसने बुंदेलखंड कुछ समय के लिए एरन (बुंदेलखंड की प्राचीन नगरीध पर राज किया था। एरन के लेख में तथा अन्यत्र भी उसके बुंदेलखंड में भयभीत करने वाले शासन का उल्लेख है। इतिहासकारों ने हूणों की संस्कृति और सभ्यता को बर्बर कहा है क्योंकि उनका आघात केवल भारत ही नहीं विश्व की अन्य सभ्यताओं पर पशुता पूर्ण माना गया है। बुंदेलखंड में बर्बतापूर्ण व्यवहार करने वालों को "हूण' (हूण का विकृत रुप) कहा जाता है। बन्दरों की प्रकृति हूणों से समान मानकर उन्हें अपने खेत से भगाने के लिए "हूडजा' का प्रयोग संभवत: इसी का प्रतीक है। ऐसे ही बिना नियम के खेल "हुड़ी' भी कबड्डी का रुप है जिसमें खिलाड़ी की साँस की उपेक्षा सहनशक्ति की परीक्षा ली जाती है और सभी प्रकार से नोचा-खसोटा जाता है। हर्षचरित में कतिपय महत्वपूर्ण उल्लेख करते हैं जिनसे बुंदेलखंड में रहने और तत्कालीन जीवन के संबंध में कहा जा सकता है- जैसै - हर्ष की बहन राज्यश्री का अपने पति की मृत्यु पर क्षुब्ध होकर विन्धय पर्वत पर चला जाना, हर्ष द्वारा उसकी खोज करना और विन्ध्य पर्वत पर चला जाना, हर्ष द्वारा उसकी खोज करना और विन्ध्य प्रदेश के जीवन में कृषि और अहेर का उल्लेख करना आदि ऐसे साहित्यिक साक्ष्य हैं जो हर्ष कालीन बुंदेलखंड के जीवन की झाँकी देते हैं। हर्षचरित में गाँव और जंगल के जीवन में समानता बताई गई है जिससे यह भी निष्कर्ष लिया जा सकता है कि जातीयता का विशेष बोलबाला नही था। इसी समय की अजंता गुफा की चित्रावली भी (६-७वीं शताब्दी के आस पास) इसका साक्ष्य है।

       मुसलमानों के पूर्व तथा हर्ष के बाद उत्तर भारत (६४० ई० से १२०० ई०) अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बँट जाता है। विभिन्न शासकों में कन्नौज का राजकुल, आयुध राजकुल, प्रतिहार और गहड़वाल वंश प्रमुख हैं। मिहिरभोज और अल्पकालीन शासन इस प्रदेश को कुछ न दे पाया । मिहिरभोज से पहले नवीं शताब्दी में बुंदेलखंड प्रतिहारों के नागभट के अधीन रहा था। इसी की परंपरा में महीपाल दसवीं शताब्दी में और उसके बाद विनायकपाल भी थोड़े समय तक बुंदेलखंड में टिक पाये। विजयपाल के समय में सात शक्तियां उदित हुई और वे इस प्रकार है -

  1. आन्हिलवाड़ के चालुक्य

  2. जेजाकमुक्ति मे चन्देल

  3. ग्वालियर के कच्छपघात

  4. डाहल के चेदि

  5. मालवा के परमार

  6. दक्षिणी राजपूताना के गुहिल

  7. शाकम्भरी के चौहान

ये शक्तियां एक जुट न रह सकीं। बुंदेलखंड में तीन शासकों के कुलों का विशेष प्रभाव रहा। ये तीनों जेजाकमुक्ति के चन्देल, डाहल और चेदि (बाद में कलचुरि) और ग्वालियर के कच्छपघात विभिन्न प्रकार से जनसमाज और संस्कृति को एक खास जीवन देते हैं। समस्त उत्तर भारत सामंतवाद में स्थिरता, उन्नति और कला उत्कर्ष की ओर अपने सामर्थ्य के अनुसार अग्रसर होता है। चन्देलों को बुंदेलखंड के उत्तर तथा कलचुरियों को दक्षिण में समकालीन ही माना गया है। दोनो राजसत्ताओं में दिग्विजय के दाँव पेंच चलते रहे थे इनका शासनकाल हिन्दु धर्म और समाज दोनों की उन्नति देने वाला था।

 

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