बुंदेलखंड संस्कृति

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कलचुरि कालीन बुंदेली समाज और संस्कृति

 

       कलचुरियों के समाज में नीति, मर्यादा, धर्मनिष्ठा के साथ युद्धों की अधिकता थी अत: अनिश्चय का वातावरण था। शैवोपासना का प्रसार युवराज देव के समय में हुआ। इस समय शोण नदी के तट पर मत्तमयूर शैवों का बहुत बड़ा मठ बनाया गया। इतिहासकारों के विचार से युवराजदेव के राज में शैव सिद्धांत, शैवागम, शैवाचार्य, शैवमठ मन्दिरों की बाढ़ सी आ गई थी। बुंदेलखंड में ज्ञान साधना के केन्द्रों के रुप में अनेक मठों का निर्माण किया गया। गुर्गी और बिलहारी के मठ और मंदिर इस समय में साहित्य और अन्य विद्याओं की अभूतपूर्व उन्नति। शैवों के साथ सिद्ध भी जुड़े हुए हैं। कदम्ब गुहा शैव-सिद्धों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है तथा गोलकी मठ के साथ तो अनेक ग्रामों की आय भी जुड़ी थी। युवराज देव के समय में साहित्य के क्षेत्र में कवि "राजशेखर' का बुंदेलखंड में आना और "विद्वशाल भंजिका' नाटक, कर्पूरमंजरी तथा बालरामायण की रचना तत्कालीन साहित्यिक वातावरण को प्रस्तुत करती है। ग्यारवीं शताब्दी में कर्ण ने काशी में "कर्णमेह' नाम से शिव का प्रसिद्ध प्रसाद बनवाया था। ऐसा ही अमकंटक में चित्रकूट देवालय के नाम से निर्माण किया गया। स्थापत्य और वास्तुकला की दृष्टि से यह उत्कृष्ट कलाकृति है। बारहवीं शताब्दी में चंदेलों की बढ़ती हुई शक्ति के समक्ष कलचुरियों का पराभव हुआ। कलचुरिवंश लगभग तीन सौ वर्ष तक दक्षिण बुंदेलखंड का शासक रहा। इनके मदिरों में शिव मंदिर अधिक है साथ ही सामान्यतयर त्रिदेवों की पूजा भी होती थी। मूर्तियों में अलंकरण का प्रावधान और प्राधान्य था। समाज में विभिन्न वर्गों में उपजातियों का निर्माण इसी काल में हुआ था। क्षत्रिय युद्धों में, वैश्य व्यापार में और ब्राह्मण अपनी जीविका के साधनों के लिए सामंतों के आश्रित तो ये ही साथ ही आचार-विचार और रीतिरिवाजों के कठोरकार रहे थे। कलचुरियों के बाद चंदेलकाल में इसका विस्तार ही हुआ।

चंदेल काल :

       आठवीं नवीं शताब्दी के उपरांत बुंदेलखंड के समाज में विशेष परिवर्तन आया। विदेशी आक्रमणकारियों के संस्कृत के कारण हिन्दु समाज में कट्टरता की भावना बढ़ी। आर० सी० मजूमदार ने ब्राह्मणों की निरंकुशता को एक अनिवार्य कारण माना जिसके कारण शेष समाज को उनके अधीन बन जाना पड़। दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी के इतिहासकार इब्नशुर्दद्व के लेखों में भी इस का समर्थ नहीं मिलता है। चन्देलकाल में जाति विभाजन के दो पहलू थे - व्यावसायिक और विवाह जन्म जो बारहवीं शताब्दी के अंत तक स्थिर न रह सके। जातीय वर्ग विश्रंखलन सभी वर्णों में घटित हुआ। सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए समाज को ब्राह्मणों की ओर देखना पड़ता था। अलबेरुनी ने लिखा है महमूद ने भारतवर्ष की सभी अर्जित घाती और उसका सौंदर्य सोलह आने नष्ट कर दिया। हिन्दुओं के विचार क्रमश: संकीर्णता की ओर बढ़ते गए। इस समय परिवार की दशा व्यावसायिक थी और उपजीविका से संबंध रखती थी। मध्ययुग तक वैश्य केवल कृषि का कार्य करते थे परंतु इस काल में वे कृषि कार्य से एक दम विरक्त हो गए और बूढ़ों के साथ ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने इस हस्तगत कर लिया।

       केशव प्रसाद मिश्र के अनुसार विवाह जैसे संस्कार में भी ब्राह्मणों को अन्य जाति (क्षत्रियों, वैश्य) की कन्या से विवाह वर्जित था। मध्ययुग के उत्तर में बाल-विवाह भी प्रचलित हुए और उसके निर्मित मनु-समृति और पराशर संहिता की व्यवस्थाओं को दुहराया गया -

अष्ट वर्षा भवेगौरी नव वर्षा तु रोहिणी ।

दश वर्षा भवेत्कन्या तत उर्दू रजस्वला।।

प्राप्तेषु द्वादश वर्षे कन्यां यो न प्रयच्छति।

मसि मसि रजस्तस्या: पिवन्ति पितर: स्वयं।।

                      (पराशर संहिता)

बाल्यविवाह का एक कारण मुसलमानों अथवा विदेशियों के अत्याचार भी था। विधवा विवाह मना किया गया। बहुविवाह प्रथा प्रचलित रही। धीरे-धीरे जाति के बाहर का संबंध निषिद्ध हुआ। चंदेल राजाओं ने समकुलशील वालों के यहाँ भी विवाह संबंध किए हैं। नारियों की दशा इसी के साथ साथ गिरी और कन्या उत्पन्न करने पर उस ही दृष्टि से देखा गया। नारियों के अभिशप्त दशा में पहुँचने पर पारिवारिक विश्रंखलता आनी स्वाभाविक थी।

       भोजन और पेय में शूद्रों को छोड़ कर शेष सभी वर्ण आपस में मिलते जुलते थे। शूद्र कि स्थिती दिन-प्रतिदिन गिरती गई। ब्राह्मण से शूद्र का यह निर्देश "टूरे तावत्स्थीयताम् । ब्राह्मण प्रस्वेद कनिका प्रसरन्ति' उनकी स्थिति का ज्ञापन कराता है। मद्यपान यद्यपि घृणित था परंतु यह प्रचलित था। वस्रों में पैजाम, पगड़ी, मिरजई का चलन था। आभूषण प्राय: सभी स्री-पुरुष पहनते थे।

       सामाजिक रीत-रिवाजों में परिशुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता था। कृषि कार्य में बैसाख सुदी तीज को कृषि वर्ष का आरंभ माना जाता था। देवशयन आषाढ़ सुदी ११ को और देव जागरण कार्तिक सुदी ११ को मानना कृषि संबंधी पूजा की रीति थी। सामान्य लोगों में कर्म और उनके फलों का विश्वास था (प्राय: सुकृतिनामर्थे देवायान्ति सहायताम् प्रबोध चन्दोदयय पृ० १४१) पर अनार्य जातियों में विशेषकर गौड़ और सौरों में भूतप्रेत में विश्वास दृढ़ था। फलस्वरुप ये अनेक काल्पनिक देवताओं की पूजा करके धर्म भावना की तृप्ति करते थे। भाव-जगतम, जवार, झाड़ फूँक पर लोगों को औषधियों से भी अधिक विश्वास था। यह तांत्रिकों और अघोरपंथियों का युग था। वर्तमान बुंदेलखंड में जिम ग्राम देवताओं (खेरमाता, भिड़ोहिया, घटोइया, गौड़ बाब, मसानबाबा, नट बाबा, छीट) का प्रचलन है तथा जिन महामारियों की देवियों और शक्तियों की पूजा प्रचलित है वह इन्हीं की देन है।

       मनोरंजन के क्षेत्र में उच्चस्तरीय वर्गों में गायन, वादन और नृत्य, अभिनय आदि थे तो शेष वर्गों में पर्यटनशील सपेरे, अभिचार और ऐन्द्रजालिक कार्य थे। इस प्रकार जिन बुराईयों का श्री गणेश इन शताब्दियों में हुआ वह कालान्तर में प्रौढ़ हो गई। आर्थिक दशा सामान्यत: अच्छी थी पर धार्मिक विवाद और संप्रदायगत संघर्ष बढ़ते ही गए। हठयोग #ौर तंत्र का प्रसार भी हुआ। धार्मिक अनैक्य के रहते हुए भी बौद्धधर्म का तिरोहण हुआ परन्तु कुमारिल और शंकर के अभियान के बावजूद जैन धर्म पल्लवित होता रहा। खजुराहो और महोबा में बने जैन मन्दिर इसके प्रमाण हैं। चंदेह शासकों का धर्म हिन्दु था पर वे जैन धर्म के प्रति उदार थे। धर्म में वैष्णव सम्प्रदाय के स्वरुप में परिवर्तन आया। बुद्ध विष्णु के अवतार के रुप में घोषित हो चुके थे। अहिंसा के समादार से वैष्णव धर्म ने जैन धर्म को आसन्त किया है शैव मत प्रसार वैष्णव मते के समानतर ही रहा परन्तु शाक्त को भी लोग मानते रहे। इस प्रकार विष्णु, देवी, गणेश, सूर्य आदि की पूजा प्रचलित थी परन्तु वैदिक विधियां तपंण, सूर्योपासना और हवन क्रमश: महत्वहीन होती गई। प्रत्येक हिन्दु गृह में किसी न किसी देव की लघु मूर्ति प्रतिष्ठित होती गई। हिन्दुओं के पंचांग त्यौहार से भरे पड़े थे। तीर्थ यात्रा की महिमा स्थापित हुई। मन्दिरों का जीर्णोद्धार, तालाब खुदवाना धार्मिक कृत्य बन गया। जहां तक इस्लाम की बात है बुंदेलखंड में इसका प्रभाव मुगलकाल में भी प्राय: नगण्य रहा है।

       देशी राज्यों के उदय से प्रदेशीय भाषाओं का उदय भी हुआ। चन्देल साम्राज्य के अंतर्गत बुंदेली की विकास हुआ। अन्य भाषाओं में गौणी, बघेली का विकास हो रहा था। बुंदेली साहित्य का निर्माण इसी समय प्रारंभ हुआ। संस्कृत में उपदेशात्मक साहित्य, सोमदेवकृत कथा सरित्सागर, त्रिविक्रम भ कृत नल चम्पू, कृष्ण मिश्र रचित प्रबोध चन्द्रोदय (नाटक) तथा धार्मिक साहित्य पर भाष्य लिखे गये। ललित कलाओं, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि पर ग्रन्थों का प्रणयन हुआ।

       चन्देलों ने जलाशयों और दुर्गों के निर्माण में विशेष शक्ति लगाई कालंजर का दुर्ग यद्यपरि ७वीं शती का निर्मित माना जाता है पर यह चन्देल साम्राज्य का विशेष आकर्षण था। अजयगढ़, बारीगढ़, मतियागढ़ मारफ, मौधा, मरहर, देवगढ़ आदि इसी युग का स्मरण कराते हैं। मुद्राओं में चन्देल और कलचुरियों के सिक्के मिलते जुलते हैं।

       चन्देलों ने उस संक्रमण काल में शासन किया है जिसमें मुसलमान क्रमश: विजय की ओर और हिन्दु पतन की ओर बढ़ रहे थे। शासकों की राजनितिक दृष्टि में संकीर्णता होने के कारण राष्ट्रीयता का सार्वभौम भाव प्राय: लुप्त था। देश बाहर और भीतर से संघर्ष की भट्टी में था। कुल मिलाकर धर्म, समाज, संस्कृति और साहित्य में परिस्थितियों से साक्षात् करने वाली दृष्टियों को अपनाया गया। धार्मिक उदारता तो रही पर भीतर से समाज धर्म और संस्कृति में एक कठोर व्यवस्था का ताना बाना बुन रही थी। तांत्रिकों और अघोरपंथियों के उदय के साथ मैथुन और मदिरा का उसी प्रकार प्राबलय हो गया जिस प्रकार वज्रयानियों और मंत्रयानियों में था। हिन्दुधर्म में उपासना के और अनेक माध्यम स्थापित हो गये। धर्म यात्रा, तीर्थ, दान, त्यौहार और व्रतों की मान्यता अधिक हो गई। यही चन्देल कालीन बुंदेली समाज का स्वरुप और संस्कृति थी।

 

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