बुंदेलखंड संस्कृति |
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परवर्ती बुंदेली समाज और संस्कृति
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मराठों के शासनकाल में बुंदेलखंड
में यजुर्वेदिय हिन्दु शाखाओं के साथ
ॠग्वेदीय हिन्दुओं का समागम हुआ।
इनमें ब्राह्मण तथा अन्य जातियों के
अनेक वर्ग मिलते हैं। मुसलमानों में
शिया और सुन्नी के सिवा भी अन्य
बोहरा बहना आदि अन्य जाति के व्यक्ति
इस प्रदेश के निवासी बने। अंग्रेजी राज्य
में विलयन होने पर ईसाई मिशनरियों
ने भी जिला स्तरों पर मुख्यालय बनाये
और अपने धर्म का प्रचार-प्रसार किया।
बुंदेली समाज अब तक चातुण्र्वण्य तक
ही सीमित था और आर्यों तखा अनार्यों
का श्रेणियों में आसानी से विभाजित
हो जाता था पर गत दो सौ वर्षों में
उसमें विविधता आई। सभी जातियाँ
अपने खान-पान, विवाह संबंधों तथा
जन्म आदि के संस्कारों में एक दूसरे
के प्रभाव में आई। वर्तमान रीति-रिवाजों
और संस्कारों में बहुत कुछ एक सा
हो गया है।
मध्ययुग में अकबर के शासन के उपरांत
शाहजहाँ और औरंगजेब के धार्मिक
नीति में कट्टरता आने लगी और हिन्दुओं
पर क्रमश: अत्याचार बढ़ने लगे और
इसका प्रभाव हिन्दुओं के राजनैतिक
नेताओं - विशेषकर अधीनस्थ सामंतों
पर भी पड़। एक और राजपूत बादशाह
की कृपा के पात्र बने रहना चाहते थे
और दूसरी ओर वे आत्मसम्मान की
रक्षा हेतु बलि देने को भी तैयार
हो जाते थे, यहाँ उनका विद्रोही स्वर
झलकता था। बुंदेलखंड के शासकों
में इस काल में दो प्रवृतियां लक्षित
होती हैं। एक वर्ग के जागीरदार, शासक,
दरबारी, संस्कृति के दास बनते
हैं और दूसरे वर्ग के शासक विद्रोह
का रास्ता अपनाते हैं। इनमें
वीरसिंह, जुझारसिंह, चम्पतराय, छत्रसाल,
मानवती, शहीद सुमेरसिंह, मर्दनसिंह,
बख्ताबलीशाह के नाम स्वातंत्र्य प्राप्ति
के लिए तथा हरदौल सिंह, अमानसिंह,
मथुरावली आदि के नाम बलिदान या
उत्सर्ग के लिए प्रसिद्ध हैं। उत्सर्ग करने वाले
व्यक्तियों को जनसमाज ने देव का दर्जा
प्रदान किया है। शौर्य के क्षेत्र में मराठा
शामन में तांत्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई,
दुर्गावती के नाम स्मरणीय हैं। अंग्रेजी
शासनकाल में चन्द्रशेखर, भगवानदास
माहौर के साथ अन्य अनेक शहीदों के
नाम बुंदेलखंड के जोड़े जाते हैं।
मध्ययुग के उपरांत समाज और संस्कृति
के क्षेत्र में बुंदेलखंड में विधानगत
कठोरता बढ़ती गई है परंतु हिन्दु
संस्कृति और सभ्यता की रक्षा के प्रयत्न
भी हुए हैं। उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों की
भाँति यहां आंग्ल और मुसलमानी
प्रभाव न्यून ही रहा है अत: बुंदेली
समाज के घटकों में वर्णो का प्राधान्य
रहा है। विदेशी समाजों के प्रभाव
सामाजिक-धार्मिक कट्टरता के कारण
अनिष्टकारी परिणाम देने वाले नहीं
है। अंधविश्वास, जाति से बड़ी जात, आनुवंशिक
कुलीनता, धार्मिक अन्धता के परिणामस्वरुप
मध्ययुगीन समस्त धार्मिक उपासनाओं
में विविधता बढ़ती गई। राम, कृष्ण
की रसिक उपासनाओ का जोर होने
से अतिवादी रुप भी सामने आये। बुंदेली
समाज में कुल मिलाकर धर्म, संस्कृति
के क्षेत्र में संख्यातीत शाखा-प्रशाकायें
दृष्टिगत होती हैं। बुंदेली समाज के
घटकों का स्वरुप इस प्रकार है।
हिन्दु वर्णाश्रम में ब्राह्मणों की व्यवस्था
प्राय: अपदस्थ हो गई। समस्त ब्राह्मणों
के दो वर्ग सारे देश में हो गए - उत्तर
भारतीय ब्राह्मणों के लिए पंच गौड़ और
दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों के निमित्त पंच
द्रविड़ वर्ग। पंच गौड़ - सास्वत, गोर,
कान्यकुब्ज, मैथिल और उत्कल; पंच द्रविड़
- महाराष्ट्र, तैलंग या आंध्र, द्रविड़
या तमिल, कर्नाटक तथा गू के बीच
की विभाजन रेखा नर्मदा नदी मानी जाती
है। पंच गौड़ के अन्दर अनेक उपजातियाँ
भी मानी जाती हैं जिनमें एक दूसरे
से श्रेष्ठता की प्रतिस्पर्धा अभी तक बनी
हुई है। बुंदेलखंड में अधिकांशत:
जिझौतिया ब्राह्मण ही मुख्य रहै हैं।
कान्यकुब्ज, सरयूपारीण सना और
अन्य ब्राह्मण के वर्ग एक शताब्दी से पूर्व
यहाँ नहीं थे। प्रारंभ में इनका कार्य
मंदीरों में पूजा करना और शासकों
का मंत्री होना था बाद में इन्हें जागीर
और सनदें मिली तो ये कृषि, नौकरी
आदि में भी प्रवृत हो गए। ब्राह्मणों को
मूलस्थान के आधार पर संज्ञायें दी गई
हैं। बुंदेलखंड में इनकी उपजातियाँ
अहिवासी, जिझोतिया, कनौजिया, खेड़ावाल,
मालवी, नागर, नार्मदेव, सनाढ्य, सरबरिया
और उत्कल की पाई जाती है। विप्र, द्विज,
बाँमन श्रोत्रिय महाराज आदि विशेषण
इनके साथ जोड़े जाते हैं। पूर्व और
उत्तर में ब्राह्मण मां भक्षण करते हैं पश्चिम
में वेमसक का पानी पीते हैं परंतु
बुंदेलखंड में इसका चलन नहीं है।
एक ब्राह्मण दूसरे के यहाँ पक्की रसोई
खाता है। इनके कुछ गुणों की जहाँ प्रशंसा
होती है वहीं पर इनके संबंध मे
जनश्रुतियां भी है - (१) विप्र परौसी अजय धन, बिटियन कौ दरबार। एते
पै धन न घटे पीपर राखौ दुआर।। (२) विप्र वैद नाऊ नृपति स्वान सौत मंजार। जहाँ
जहाँ जे जुरत है तहँ तहँ राखौ
बिगार।। (३)
करिया वामन, गोर चमार, इनके
साथ न उतरियो पाऱ ब्राह्मणों के बाद बुंदेलखंड की दूसरी जाति क्षत्रिय है जिनके ३६ प्रकार अथवा उपजातियाँ यहाँ पाई जाती हैं। रसैल का कथन है कि उनकी कुलीनता के संदर्भ में यह बताना कठिन है कि शुद्ध रक्त कौन हैं? बुंदेलखंड में अधिकांशत: परमार बिसेन, बुंदेला, बनाफर, चन्देल, मदौरिया, कछवाहा, तोमर, चौहान, धाकड़, हैदयवंशी, कलमुरि आदि भी प्रमुखता से पाये जाते हैं। इन्हीं के साथ दांगी, लोधी और कुरमी भी अपने को ठाकुर कहते हैं। ये मध्ययुग तक कृषि करने वाले माने गए हैं। करमियों में उररेंटे, चन्दनास, सिंगोरे, लोधी आदि अनेक उपजातियाँ हैं। शासक वर्ग के कारण इनमें बहुविवाह, बालविवाह और माँस, मदिरा का प्रचलन अब तक रहा है। दाँगी सागर में विशेष संख्या में होने के कारण इस प्रदेश को दाँगीपाड़ा भी कहा जाता है। वैसे दाँगी के संबंध में जनश्रुति यह है कि वे जगली जाति के हैं ; भले ही वे अपराध वृत्ति नही रखते हैं पर इनके संबंध में कहा जाता है - (१) खेत में बासी गाँ में दाँगी (२) जिनकी घोड़ी तितगई, दंग हाथ करयारी (लगान) रई। (३)
तीन में न तेरा में, मृदंग बजावे
डेरा में। कदाचित
दाँगी को चालाक प्रवृत्ति और अविश्वसनीय
माननें के कारण यह प्रचलित है। राजपूतों
में दाँगियों की भाँति देवी की पूजा
प्रमुख है। शेष रीति-रिवाजों में
य वैष्णव और शाक्त उपासकों की भाँति
हैं।
बैश्य जिनके अनेक नाम बनिया, वणि,
महाजन, सेठ, साहूकार आदि प्रचलित
हैं ये वास्तव में सुदूर अतीत में अनाज,
घी, और अन्य मनिहारी का समाज बेचने
वाल थे। मध्ययुग के बाद इनका कार्य
बैंकिंग और कृषि हो गया। वैश्य दो
प्रकार के हैं - जैन और हिन्दु। मध्ययुग
के बहुत बाद तक यह अलग विभाजन
नहीं था। जैन - बनिया, ओसवाल, सैतवाल,
परवार, गोला, घूरब, चरनापर, बघेलवाल,
समैया आदि उपजातियों में विभाजित
हैं। हिन्दु, बनिया, अग्रवाल, असाटी, गहोई,
केसरवानी, महेश्वरी, नेमा आदि उपनामों
से जाने जाते हैं। जैन बनिया दिगम्बर
या श्वेताम्बर होते हैं और पारसनाथ,
बाहुबलि को मानते हैं। हिन्दु बनिया
पूर्णत: वैष्णव: होते हैं।
असाटी के बारे में जनश्रुति हैं -
"अर्धा जाले अर्धा गारे, जिनका नास
असाटी पारे' इनकी उत्पत्ति के संबंध में
अनेक मत हैं। गहोई वैष्णव हिन्दु
होते हैं। महेश्वरी में ७२ कुल माने
जाते हैं।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य मूलत:
आर्यों के साथ जुड़े हैं और शेष जातियों
की अनार्य उत्पत्ति मानी जाती है। इनमें
सामाजिक स्तर के अनुसार शूद्र सबसे
नीचे और उनके ऊपर अन्य सभी व्यावसायिक
और कामगार जातियाँ आती हैं। सबसे
निचले स्तर पर चमार, मोची, कोरी,
तेली, बखोर, पासी, कलार, कुम्हार
आदि की गणना की जाती है। इनकी गतिशीलता
से कहीं अधिक घोसी, धोबी, गड़रिया,
गूजर, अहीर आदि की होती है। व्यावसायिक
वर्ग में सुनार, लुहार, ठठेरा, बढ़ई,
कसेरा को अन्य दर्जा मिला है जबकि
बनजारा, कुँजड़ा, भड़भूँजा, बनिया
खत्रि आदि को उनके कार्य के आधार पर
स्तर दिया गया है। कचेरा, लखेरा या
माली, काद्दी, चौरसिया या बरई की
भी इसी प्रकार स्थिति मानी गई है।
आधुनिक युग में इन सभी जातियों का
महत्व कम हो गया है। अनेक निचले
स्तर के कहे जाने वाले, नौकरी करने
लगे हैं और वर्ण की व्यवस्था नगरों
में प्राय: कम हो गई है। गाँवों
में अभी भी इसका यही कथित रुप है।
प्रत्येक जाति के सथ कुछ जनश्रुतियाँ
भी प्रसिद्ध हैं - ब्राह्मण से संबंधित - (१) लंपा साँप सन्नोड़िया, मिलियौ हाथ ले गेड़ियाँ। (२) तीन घर तेरा चूल्हे। (३) आगे ब्राह्मण पीछे भाट
ताके पीछे और जात। (४) ओई बाँस के डाल टोकना, ओई के चलनी सप। ओई कूँख के कैये राजा अमानजू, ओई कूँख की सहोद्रा बैन।। क्षत्रियों
सें संबंधित - (१) बारा बरस लौं कूकर जीये और सौटा लौं जिये सियार। बरस
अठारा क्षत्रिय जीये आगैं जीवे को धिक्कार।। (२) चार बां चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण ता
ऊपर सुल्तान हैं मत चुकौ चौहान (३) जिहि कि बिटीया सुन्दर देखी तिहि पै जाय धरे तरवार। वैश्यों
से संबंधित - (१) आमा नींबू बनिया, दाबे में रस देत कायस्थ
कौऔ काट्टया, मुदौं से ले लत (२) टुआर धनी के पर रहो, धका धनी के खाव इक
दिन ऐसा होयगो, आप धनी हो जाव (३) दुकान को एक घड़ी को भूलो तो
दुकान कये मैं तोय सब दिन को भूलौ। (४) डाँडी मारें साब कहावें, रह हाँके सो चीर। चुपर चुपर के बाबा खावैं, जिनके और न छोर।। अन्य जातियों
से संबंधित - अहीर - अहीर गडरिया पासी, ये तीनों सत्यानाशी।
अहीर गड़रिया
गूंजर, ये तीनों चाहें ऊजर।। बनजारा- रंजन का पानी, छप्पर का घास, दिन के तीन खून माफ
और जहाँ आसफ जहाँ के घोड़े,
वहां भंगी जंगी के बैल धोबी - धोबी पर धोबी बसे, तब कपड़ो पर साबुन परे धोबी का गधा घर का ना घाट का
राजा का सिरी, परि ताकै तिरी। माली -
मुरार माली जोते टाली, टाली
मर गई, धरे कुदाली। लुहार
- अर,
धर, चुचकार, इन तीनों से बचावे करतार। नाई - नाई है छत्तीसा, ख्याना का पैसा। शबरा - शबरा के पागे, रावत के बाँधे
जहँ चुल्ला, तहँ दुल्ला ।। तुली - इर पिरा खटका खटकीरा खाँसी को खाला, रई रोग
मुटको तो छे ऊन जागा मरबोढ़ कसाई - न देखा हो बाघ तो देखो बिलाई।
न देखा हो ठग
तो देखो कसाई।। जुलाहा - कारीगाह छोड़ तमाशा जाय, नाहक
चोट जुलाहा खाय। मल्लहा
- जहाँ
बैठे मलाव, तहां लगे अलाव। पिंडारी
- नीचे
जमीन और ऊपर अल्लाह, और बीच में
फिरे शेख दूल्ह।
बुंदेली समाज में द्रविड़ उत्पत्ति की
जातियों में गौड़ विशेष हैं। इनके
रीति-रिवाजों का प्रभाव शेष जातियों
पर भी पड़ा है। मुसलमानों के आगमन
के बाद जो विभिन्न जाति के लोग ग्रामों
और नगरों में बसे उनमें बहना के
संदर्भ में मतभेद हैं। कट्टरपंथी
हिन्दु का कहना है - (१)
तुरुक तो तुरुक और बहना तुरुक। (२) अचेरा कचेरा पिंजारा मुहम्मद
से दूर, दीन से न्यारा (३) आधौ हिन्दू आधौ मुसलमान। तिनखों
कहं धुनुक पढ़ा न।। (४) शेखों की शेखी, पठानों की दई। तुर्कों
की तुर्कशी, बहनों की भई।। इस
प्रकार बुंदेलखंड के विभिन्न जातियों
के लोग रहते हैं परंतु उनका अपना
धर्म, रीतिरिवाज, संस्कार आदि का वैशिष्टय
है। मुख्य जनसंख्या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों
और कामगार लोगों की है जो वास्तव
में वैष्णव, शाक्त, शैव, जैन, मुसलमान
और ईसाई हैं। वर्तमान
बुंदेली समाज कतिपय त्यौहारों
और रीति-रिवाजों से बंधा है। नगरों
सें इसका चलन कम, कस्बों और ग्रामों
में विशेष है। उच्च वर्ण के लोगों की
तुलना में निम्नवर्ण के लोग अभी भी
जादू टोना, अंध विश्वास, बहुदेववाद,
रुढियों और अज्ञान के शिकार हैं। सामन्तवाद
इस प्रदेश में पंद्रहवीं शताब्दी के बाद
विशेष रुप से रहा है, इसीलिए उसके
दोनों प्रकार के प्रभाव मिलते हैं। सद्
पक्ष में जहाँ हिन्दू धर्म, जाति की सुरक्षा
के निमित्त सांस्कृतिक पुनरुत्थान
होता रहा है मंदिरों और स्थापत्यकला
के स्मरणीय नमूनों को निर्माण हुआ
है वहीं सामन्तवाद उसद्पक्ष में जनसमाज
सका शोषण भी हुआ है। आदिम दास
प्रथा, वर्ग शासन सत्ता से मुक्ति सामन्तवाद
ने दी थी परंतु यही प्था बाद में आर्थिक,
राजनीतिक और बौद्धिक उत्पीडन का कारण
बना। सामन्तवाद के अन्तर्गत वर्गीय समाज
को स्थायी बनाया गया। परिणाम
स्वरुप शासक एक ही जाति के हुए। वंश
परम्परा से शासकों का होना प्रगति
में बाधक सिद्ध हुआ। बुंदेलखंड के
पिछड़े होने का प्रमुख कारण यही
है कि पिछले पाँच-छह सौ वर्षों में
जनता को शासनाधीन रहना पड़ा, धर्म,
संस्कृति सामाजिक आचार-विचार भी
शासकों के द्वारा था उनकी नकल पर अपनाये
गये। सामन्तों में ईश्वरत्व का आरोपण
इसी समय हुआ। बुंदेलखंड में बुंदेला
शासकों को "जू देव' उनके नाम के
साथ लगाया जाना इसी प्रवृति का द्योतक
है। जातीय कट्टरता, धार्मिक और सांस्कृतिक
स्तर पर समन्यवयहीनता का परिणाम
यह हुआ कि बीसवीं शताब्दी में पश्चिम
सभ्यता के संपर्क में आने पर मध्यवर्ग
में विलक्षण परिवर्तन हुए। धर्म, संस्कृति
परंपरा और सामाजिक अगतिकता को
नयी पीढ़ी ने एकदम झाड़कर स्वतंत्र
होने की प्रक्रिया अपनाई। एक अति पर पहुँचकर
वह पश्चिम का अनुगामी बनी जबकि दूसरी
अति पर लोग पुरातन मूल्यों और रुढियों
से बाहर न निकल सके। उत्तर
मध्यकाल में बुंदेलखंड में उपासनाओं
के क्षेत्र में अत्यधिक मिलती है। क्षत्रियों
एवं उनसे संबंधित जातियों ने शक्ति,
दुर्गा, विन्ध्यवासिनी, मैहर की शारदा
देवी आदि के प्रति अनेक विध भक्तिभाव
प्रदर्शित किया। नवरात्र में उपवास रखना,
सिद्ध स्थानों पर मेले लगाना, कुल देवी
की पूजा करना और शक्ति के अनेक रुप
मानना, शासक वर्ग की रिवाज सा
हो गया। शक्ति से संबंधित शिव, शंकर,
पशुपति आदि नामो से शैव उपासना
का प्रचलन ही नहीं हुआ, अनेकानेक शिव
मंदिरों का निर्माण भी हुआ। कबीर
की परंपरा में अक्षर अनन्य तथा कवियों
निर्गुण ईश्वर की उपासना की। इनके
सम्प्रदाय भी बने, छत्रसाल के समय
से इसमें भी प्रगति आई। प्राणनाथ सम्प्रदाय
के दो केन्द्र बाद भी गतिशील रहा। कृष्णोपासना
भक्तिकाल में ब्रज प्रदेश में प्रधान थी, उत्तर
मध्ययुग में बुंदेलखंड इसका केन्द्र
बना। रामोपासना का प्रभावशाली श्रीगणेश
ओरछा में हुआ था। "राम राजा' का
मंदिर बनना और रामनवमी का त्यौहार
धूमधाम से मनाया जाना राजकीय कार्य
हो गया। दशहरा, दीवाली और शिवरात्रि
के पर्वों? को बड़ी धूमधाम से मनाया
जाने लगा। गौड़,
भील और अन्यान्य वर्गों की मान्यता सवर्णों
की तुलना में कम ही रही। ठाकुर, बाबा,
गौड़ बाबा, दरोइया बाबा, खब्बीस-बाबा,
हरदोल-लाला, कारस देव, घटोईया
देवा, पूजा देव, दूल्ही बाबा तथा खेर
माता, हिंगलाज माता, मरई माता,
हरीसिद्धि देवी, दन्तेश्वरी देवी आदि
शक्तियों की विभिन्न प्रकार उपासनायें,
अनुष्ठानें और पूजायें अन्य वर्गों में प्रचलित
रहीं। टोनेटोके,
बलि, जादू, झाड़फूँक आदि के प्रयोगों
में भी इनमें कोई अन्तर नहीं आया। जन्म
से मृत्यु तक के समस्त संस्कारों आदि
डालने की परंपरा बुन्देलखंड के सभी
वर्गो के लोगों में प्रचलित है यह
वस्तुत: अनार्य संस्कृति की देन है।
मांसाहारी वर्ग भी अब शाकाहारी
हो गये। कानों में बाली पहनना क्षत्रियों या सामन्तों के प्रभाव में शुरु हुआ था, यह भी चलन अब बंद हो रहा है। शिव अनार्यों के देवता थे पर पूर्व मध्ययुग में वे पूर्णत: आर्यों के देवता बन गए। ग्रामीण समाज अब भी परम्पराओं, रुढियों, अंधविश्वासों का पालन कर रहा था।
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Content prepared by Mr. Ajay Kumar
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