बुंदेलखंड संस्कृति |
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बुन्देलखण्ड का लोक जीवन |
भारतीय समाज की जीवन शैली न्यूनाध्कि एक जैसी है किन्तु उसमें आंचलिकता और लोकत्व की झलक उसे विशिष्टता प्रदान करती है। लोक जीवन के अध्ययन में सबसे बड़ी कठिनाई उसमें बढ़ती जा रही शिष्ट संस्कृति एवं अपसंस्कृति के पार्थक्य को समझने की है। उसका मूल स्वरुप धुंधलका में खोता जा रहा है। सामान्य जन के मन में यह बात बैठा दी गयी है कि पुराने रीति-रिवाज, लोक-गीतों का गायन गंवारपन है। नये फिल्मी गीत गाना या पश्चिमी संस्कृति को अपनाना, अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग --मम्मी, पापा आदि-- प्रगतिशीलता --आधुनिकता-- है। लोक-जीवन के सांस्कृतिक पक्ष में लोक संगीत --लोकगीत, लोकनृत्य, लोकवाद्य-- लोककथायें, लोकगाथायें, बुझौअल --पहेली-- लोकोक्तियां रीतिरिवाज, पर्व उत्सव, व्रतपूजन, अनुष्ठान, लोक देवता, ग्रामदेवता, मेले आदि का समावेश है। कला पक्ष के अन्तर्गत भूमि भित्त अलंकरण, मूर्तिकला, काष्ठशिल्प, वेशभूषा, आभूषण, गुदना, आदि दृष्टव्य है। सभ्यता पक्ष के अन्तर्गत दैनिक-चर्या --ब्रह्ममूहुर्त में जागना--, लोकाचार --दादा दादी के पैर स्पर्श--, टोटका, भोजन व्यंजन लोक-रंजन --लोकक्रीड़ा-- तथा उद्यम व्यापार की चर्चा शामिल है। बुन्देलखण्ड के लोक चितन में शाश्वत जीवन मूल्यों का संरक्षण, भारत की चिरंतन संस्कृति का पोषण एवं रागात्मक बोध है। यहाँ की लोकधारा वैदिक, स्मृति, पुराण काल से प्रवाहित होती हुयी अपनी लोक संजीवनी शक्ति के माध्यम से समाज के सभी वर्गों में समरसता बनाए हुई थी। वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज व्यवस्था समन्वयवादी, पारस्परिक स्नेह एवं सम्मानवर्धक है। ब्राह्मण पुत्री के विवाह में नाई का विशिष्ट स्थान है तथा धोबिन से सुहाग मांगा जाता है। सामाजिक एकरुपता में सभी वर्ग अनन्योश्रित हैं। विवाह की लकड़ी काटने हेतु छेई के बुलउवा से अन्त्येष्टि तक का बुलउवा लगता है। मृत्यु के पश्चात भी फेरा डालने में सामाजिक तथा आर्थिक सहयोग की भावना महत्वपूर्ण है। वीरता और जनसेवा जहाँ केवल बखानी ही नहीं जाती है उसे देवत्स की प्रतिष्ठा दी जाती है। हरदौल तथा कारसदेव आदि वह व्यक्तित्व हैं जिसे मानव होकर भी देवत्व की गरिमा प्राप्त है। उनका चबूतरा लोक की आस्था का केन्द्र बन जाता है। बुन्देलखण्ड के विशिष्ट पर्व यथा कजलियों के मेले में प्रेम से आलिंगनबद्ध होकर मिलना, कजलियां देना तथा बड़ों का चरण स्पर्श करना लोक धर्म है। सुअटा, नौरता, टेसू, अकती, विशिष्ट लोक-पर्व हैं। यह बालक बालिकाओं को जीवन क्षेत्र में उतारने के पूर्व प्रशिक्षण देते हैं। बुन्देली लोक जीवन में अधिकतर शुभकार्य उत्तरायण तथा पंडितों से मुहूरत निकलवा कर किये जाते हैं। पर्वतों नदियों, सरोवरों, और वृक्षों की पूजा की जाती है। पीपल, बरगद, नीम, आंवला, तुलसी, केला, बेलपत्र आदि वनस्पतियों को पूज्य कोटि में रखा गया है। भोजन बनने के पश्चात तुलसी डाल कर ठाकुर जी को प्रसाद लगाकर खाना तथा तुलसी के बिरवे को नित्य जलदान देना नैमितिक कर्तव्य माना गया है। वनस्पतियों का संरक्षण एवं सम्बर्द्धन वातावरण को शुद्ध कीटाणुमुक्त करता है। इसे नयी पीढ़ी मात्र ढकोसला रुढिवादिता, पुरातनपन्थी मानकर उपहास करने लगी है जबकि वे शुद्ध वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित हैं। वैदिक-कालीन संस्कृति में बलिवैश्व यज्ञ एक नियमित आचरण था। इसके अन्तर्गत पांच देवता-चींटी, पक्षी, श्वान गाय तथा अग्नि को भोजन प्रथम नैवेद्य समर्पित किया जाता था। आज भी चूल्हे में बने भोजन की प्रथम लोई अग्नि को भेंट करने की परम्परा है। गाय, कुत्ते, पक्षी, को कौरा निकालने की प्रथा जीवसंवर्धन भावना का अंग है। शिशु जन्म के कुछ दिनों बाद उसे घृत मधु चटाने की परम्परा है। यह पदार्थ शोधक, विकार नाशक है तथा देह को पुष्ट करते हैं। मुंडन के पश्चात बेसन की लोई मस्तक पर फेरने या लेपन करने की परम्परा है। मुंडन के कारण से उत्पन्न घाव आदि से बचाव का यह लोक विज्ञान है। प्रसूता को सौर --सोवर-- में अजवाइन का धुंआ देना नीम या लौंग के जल से स्नान कराना, पीपर का अति प्रयोग करना, चरुआ के जल में वनस्पतियां डालकर उसका काढ़ा देने के विधान आयुर्वेद सम्मत हैं। चेचक निकली होने पर घर में सब्जियों का छांका लगाना, नाई से बाल बनवाना, धोबी से कपड़ा धुलाना आदि वर्जित हैं। इस प्रक्रिया से संक्रामक रोग के कीटाणु अन्य स्थान पर फैलने से रोकना लोकहित में है। लोक जीवन का सर्वांग निरुपण करने वाले ग्रन्थों का प्रायः अभाव है, परम्परायें नई पीढ़ी को वाभाविक रुप से हस्तांतरित होती रहती है। जनमानस अपना उल्लास और कसक लोक गीतों के माध्यम से व्यक्त करता है। किसी को इन गीतों के उत्स --रचनाकार-- का पता नहीं होता है। यदि किसी गीत का रचनाकार ज्ञात हो तो उसे लोक-गीत की श्रेणी में परिगणित नहीं किया जाता है। इन गीतों का लोकत्व यह है कि यह विशिष्ट धुनें यमुना नदीसे नर्मदा नहीं तक और चम्बल से टोंस नदी तक प्रायः एक जैसी गाई जाती हैं। स्वररागिनी तथा केन्द्रीय भाव एक समान रहते हैं। यह गीत लिखित में कम वाचिक परम्परा में अधिक है। यह गीत प्रायः देवी-देवताओं के पूजा विषयक संस्कार गीत, ॠतु विषयक गीत, श्रृंगार गीत, श्रमदान गीत, जातियों के गीत, बालक-बालिकाओं के क्रीड़ात्मक उपासना गीत या शौर्य प्रशस्ति गीत होते हैं। बुन्देली लोक गीत लोक संस्कृति के दपंण हैं। यह प्रदेश आस्था और भक्ति का प्रदेश है। महिषमर्दिनी माँ दुर्गा, शारदा यहां की अधिष्ठात्री भी हैं। कार्तिक स्नान पर्व में महिलायें राम/कृष्ण के चरित्र विषय गीत प्रभात बेला में झुंडों में निकलकर गाती हैं। मांगलिक कार्य में गणेश जी, पवन पुत्र हनुमान आदि को अंधड़ पानी से निवारण हेतु आमंत्रित करती हैं। शास्रोक्त संस्कार सोलह हैं। विधि विधानपूर्वक जातक --व्यक्ति-- को हस्तांतरित किया जाता है। प्रथम तीन संस्कार, पुन्सवन तथा सीमान्तोन्नयन जन्म पूर्व के हैं। शेष संस्कार जातक के हैं। परिवार में जन्मा बालक राम या नन्दलाल --कौशल्या या यशोदा के कोख से जन्मा-- माना जाता है। उसके जन्म या विवाह में वही उल्लास और हर्ष पाया जाता है जो कभी अवध या ब्रज अथवा जनकपुरी में छाया था। यह लोक-गीत उनकी लोक स्मृतियों में इतने अधिक बस गये हैं कि आप सिर्फ तार छेड़ दीजिये उनके बोल स्वतः अपने आप फूट पड़ेंगे। लोग गीत के गायन के साथ ढोलक मजीरा पर्याप्त वाद्य हैं। अब तो कर्ण-कटु भोंडे फिल्मी गीत --कैसेट-- सुनने का रिवाज बढ़ रहा है। लोकनृत्य - लोकनृत्य उल्लास पूर्ण अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम हैं। हर्ष के क्षणों में जब समूह में उमंग की हूक उठती है तो पैर स्वतः ताल लय में थिरकने लगते हैं। यह नृत्य प्रायः तीन प्रकार के होते हैं-सार्वजनिक नृत्य, पारिवारिक नृत्य तथा जातीय या आदिवासियों के लोकनृत्य। करमा और शैला आदिवासियों के लोक नृत्य हैं। सार्वजनिक नृत्य के अंतर्गत दिवारी --अहीर हाथ में डण्डे लिये रहते हैं कमर में घुंघरु बांधे रहते हैं तथा टेर के साथ गाते हैं-- नृत्य ढ़ोलक तथा नगड़िया के साथ समूह में होते हैं। राई नृत्य प्रमुख रुप से बंड़िनी जाति का नृत्य है। झिंझिया क्वांर माह की पूर्णिमा को टेसू के अवसर पर कुंवारी बालिकाओंसे लेकर वृद्ध महिलाओं तक के द्वारा नृत्य किया जाता है। कानड़ा, --धुबियायी-- रावला, --काछी, धोबी, चमार, गड़रिया, मेहतर, कोरी आदि-- में एक पुरुष स्री का वेश रखता है। दूसरा विदूषक बनकर रावला गीत रमतूला सारंगी के साथ गाते नाचते हैं। ढीमरयाही ढीमर जाति द्वारा विवाह के अवसर पर पुरुष तथा महिलाओं द्वारा नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। पारिवारिक नृत्य में चंगेल या कलश नृत्य शिशु जन्म के समय बुआ द्वारा लाये गये बधाई के साथ किया जाता है। लाकौर या रास बधावा नृत्य विवाह में भांवर की र पूरी होने के पश्चात कन्या पक्ष की महिलायें द्वारा जब वह डेरों पर जाती हैं तो बहू का टीका पूजन, वर पक्ष के रिश्तेदारों द्वारा किया जाता है। बालिकायें व महिलायें बन्नी गाते हुये नृत्य करती हैं। इसी प्रकार बहू उतराईका नृत्य विवाहोपरान्त वर पक्ष के निवास में होता है। सगुन चिरैया गीत गाये जाते हैं सास देवरानी, जिठानी, बुआ आदि उल्लास में नाचती हैं। लोक कथायें, लोक गाथायें दादी या नानी द्वारा सुनाई जाती थीं। बहुधा यह पद्यमय होती थीं। लोकोक्तियां व्यवहार तथा नीति सम्बन्धी होती हैं। बुझौअल --पहेली-- बालक, बालिकायें आपस में बूझते हैं। मुहावरों का प्रयोग लेख या मौखिक वार्ता में होता है। लोक देवता, ग्राम्य देवता तथा रीतिरिवाज सामाजिक स्वीकृति के आधार पर जन्मते तथा विकसित होते हैं। लोक कलायें हमारे सामाजिक जीवन को सुसंस्कृत और सम्पन्नता प्रदान करती हैं। भूमिगत अलंकरण में गणेश जी, स्वास्तिक, यक्राकार सातिया --स्वास्तिक--, कलश, कमल, शंख, दीपक, सूर्य चन्द्र आदि गोबर या चावल के घोल तथा गेरु से बनाये जाते हैं। इन पर जौ के दाने चिपकाते हैं। मूर्तिकला की दृष्टि से महालक्ष्मी तथा हस्ति --हाथी-- गनगौर, सुअटा, दीवाली पर गणेश, लक्ष्मी तथा मलमास में काली मिट्टी की शिवप्रतिमायें बनाई जाती हैं। अक्ती के अवसर पर पतुतरी पुतरिया बनाई जाती हैं। बुन्देली वेशभूषा में महिलाओं में बांड़ --घाघरा-- पहिनने का प्रचलन था। श्रमिक महिलायें कांछ वाली धोती पहिनती हैं। पुरुष साफा, बंडी, मिर्जई, कुर्ता, धोती पहिनते हैं, स्रियां पैरों में पैंजना --दो किलो के वजन तक-- तथा गले में सुतिया --एक किलो वजन तक-- प्रायः चांदी या गिलट के होते हैं। बालक चूड़ा, पैजनिया, करघनी, कड़ा, कठुला पहिनते हैं। आदिवासी तथा ग्रामीण आंचल की महिलायें सौन्दर्य वृद्धि के लिये गुदना गुदवाती हैं। इनमें पशु, पक्षी, फूल, स्वयं का नाम इष्टदेव का नाम आदि होता है। भोजन में "महुवा भलो राम को प्यारो' या "सतुआ लगे लुचई --पूरी- सो प्यारो' प्रमुख था। बरा, बछयावर, फरा, हिंगोरा, ढुबरी, महेरी, सुतपुरी, आदि प्रमुख थे। लोकाचार में सगुन असगुन, टोटका झाड़फूंक पर विश्वास अधिक प्रचलित है। लोक मंच में रामलीला, रास लीला, स्वांग, नौटंकी समय-समय पर आयोजित होते हैं। लोक क्रीड़ाओं में
बालिकाओं के खेल चपेटा या गुट्टा लोकप्रिय हैं। मैदानी खेलों में बालक सामान्यतः गुल्ली डंडा, छुआ छुऔअल, ओदबोद, अत्तीपत्तनी, कंचा --गोली--, कबड्डी, खोखो आदि खेलते हैं। यह खेल प्रायः सामग्री विहीन हैं। गांव या नगरों में समय-समय पर दंगल --कुश्ती-- भी आयोजित होते हैं। नोनौं खण्ड बुन्देल हमारों, नौउंऊ खण्ड को प्यारो। -नाथूराम माहौर
-कृष्ण गोपाल गौतम
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Content prepared by Mr. Ajay Kumar
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